6000 साल पहले अरब में चला ‘स्वच्छता मिशन’, ऐसे विकसित हुए शौचालय

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आशीष आनंद-

भारतीय उपमहाद्वीप आज भी अछूत प्रथा से जूझ रहा है, जिसमें पड़ोसी मुस्लिम देश भी शामिल हैं। एक बड़े नेता तो यह तक कह चुके हैं इन अछूत लोगों के बारे में कि उनको अपशिष्ट की सफाई से आध्यात्मिक संतोष मिलता है। दरअसल यहां एक जाति को ही मल उठाने की घृणित व्यवस्था में धकेला गया। बरसों से सशक्तिकरण जारी है, लेकिन मैला ढोने वालों की जिंदगी खास नहीं बदली, भले ही इस कलंक से बीते दो-तीन दशकों में काफी हद तक आजादी मिल गई हो। यहां तक कि स्वच्छ भारत अभियान या स्वच्छता मिशन के तहत लाखों शौचालय बनने के बाद भी पूरी तरह न तो खुले में शौच करने की आदतें बदलीं हैं और न ही शौचालयों को बनाने और उसका इस्तेमाल करने की कोशिश पूरी तरह कामयाब हुई है, दावे जो भी हों।

यह सवाल भी आता है कि बाकी दुनिया में भी लोग शौच करते हैं, तो वहां इस तरह की प्रथा या ऐसी जाति क्यों नहीं है। इस मामले में गहराई से पड़ताल तो होना ही चाहिए। हमने जब यह जानने की कोशिश की तो कई अहम जानकारियां सामने आईं।

मौजूद जानकारी के हिसाब से स्वच्छ शौचालय की सुविधा का सबसे पुराना अवशेष आज के इराक़ और तब के बेबीलोन में मिला है, जो तकरीबन 4000 ईसापूर्व का है, यानी 6000 साल से भी पुराना। साधारण सेसपिट (मल के लिए बनाया जाने वाला गड्ढा) की यह सुविधा इस साम्राज्य के तब के शहरों में ही नहीं दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों में भी रही, ऐसे अवशेष बरामद हुए हैं।

बेशक, वे साधारण खुदाई करके बनाए गए हों, लेकिन यह उस दौर की समझ का अंदाजा कह सकते हैं। बेबीलोन के लोगों ने पानी को एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाने के लिए हाइड्रोलिक सिस्टम विकसित कर लिया था और मिट्टी के पाइप भी बनाए, जिससे मल को धार के साथ शौचालय से किसी गड्ढे में पहुंचाया जा सके। स्वच्छता की यह तकनीक आज भी कारगर है और नए साधनों के साथ उपयोग में लाई जाती है। लगभग वैसे ही, जैसे दो गड्ढे वाले शौचालय की तकनीक है।

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जिस तरह बेबीलोन में स्वच्छता प्रणाली के अवशेष मिलते हैं, उसी तरह के अवशेष सिंधु घाटी की सभ्यता के शहर मोएनजो दाराे में भी इमारतों के साथ सीवेज सिस्टम से जुड़े शौचालयों का बंदोबस्त होने के प्रमाण मिलते हैं। इसी सिस्टम से अपशिष्ट को किसी नाले के जरिए सिंधु नदी में ले जाया गया, जिसने उस नदी के पानी को प्रदूषित करना शुरू कर दिया। नदियों में अपशिष्ट बहाकर प्रदूषित करने की शुरुआत इतनी पुरानी होगी, यह तो शायद ही किसी ने सोचा होगा।

कृषि के लिए अपशिष्ट जल का पहला उपयोग प्राचीन ग्रीस यानी यूनान में मिलते हैं, क्योंकि लंबी नदियां की कमी रही होगी। यहां के कुछ शहरों में इस तरह के अवशेष मिलते हैं कि सीवेज सिस्टम से पानी को शहर के बाहरी इलाकों में डंपिंग साइट की ओर ले जाया गया और यहां से पाइपिंग प्रणाली से यह पानी फसलों के लिए खेतों तक भेजा गया।

रोमन साम्राज्य में शौचालय के बारे में जो तथ्य मिलते हैं, उसके हिसाब से यह सुविधा सिर्फ उच्च वर्ग को ही हासिल थी। पुरातत्वविदों की अवधारणा के अनुसान, वे घरों में नहाने में इस्तेमाल होने वाले पानी को सफाई में उपयोग करते रहे।

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इसके अलावा सड़कों के बराबर में सीवेज सिस्टम बनाकर अपशिष्ट पानी को अलग रखा गया। तब लैट्रीन भी विकसित हुई, जो पहले के मुकाबले बेहतर प्रणाली कही जा सकती है। आम लोगों के लिए तो यह सुविधा थी नहीं, लिहाजा 100 ईसा पूर्व तक लोग सड़कों पर मलमूत्र फेंक देते थे। फिर जाकर कोई नियम-कायदा बना और सभी घरों को सीवेज सिस्टम से जोड़ने की कोशिश हुई, जिससे शहरों में विकास को आंखाें से देखा जा सकता था।

एक काम और हुआ, जिसने व्यवस्था को और बेहतर किया। यह था, एक ही पानी को तीन हिस्सों में प्रयोग। रोमन लोगों ने बाकायदा चित्र या मॉडल बनाकर इस पर चर्चा की और नया रास्ता निकला। इस तरह पहला पानी नहाने के लिए, थर्मल स्नन से बहे वाली को सार्वजनिक शौचालयाें को धोने को इस्तेमाल किया जाने लगा, इससे सभी को खासी राहत दी।

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शौचालयों के इस विकास में कीटाणुशोधन जैसी कोई अवधारणा तब नहीं थी। केवल इतना ही था कि बदबू से बचा जा सके। ऐसी भी समझ नहीं थी कि गंदे पानी को नदी में डालने से क्या होगा।

मध्ययुग आते-आते सभी तरह का विकास ठहर गया तो शौचालय व्यवस्था भी ठप हो गई। पेरिस जैसे कुछ ही शहर थे, जहां प्राचीन रोमन सीवेज सिस्टम के कुछ ढांचे बच पाए। शहरी आबादी बढ़ने पर वे भी खत्म हो गए।

किलाबंद शहरों में सेसपिट बनाए भी गए तो वे ज्यादा समय तक नहीं टिके और शहर की दीवारों से लेकर सड़कों तक मलमूत्र फेंका जाने लगा। शायद यही वजह रही कि तब हैजा और प्लेग की महामारियों ने तबाही ला दी और मध्यकालीन यूरोप की 25 फीसद तक आबादी खत्म हो गई। शहरों से बेहतर स्थिति तो गांवों में थी, जहां किसानों से गड्ढे में मल को मिट्टी से पाट देने का काम किया।

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यूरोप में जब यह अंधकार युग छाया था। उसी समय अरबी शहरों में स्वच्छ पेयजल के लिए कठोर कवायद चल रही थी, क्योंकि तब आज जैसी तकनीक नहीं थी कि समंदर के पानी को पीने लायक बना लें। उस समय अरबियों ने स्वच्छता नियम बनाए। बारिश का पानी तो कुदरत की नेमत थी, जिसे वे पीने के लिए जमा करते थे। इस पानी का भी बहुत सावधानी से इस्तेमाल करते। घरेलू कामों में प्रयोग होने वाले गंदे पानी को भूमिगत या सतह पर पाइप के जरिए आंगन से बाहर कर देते और अपशिष्ट पानी को निकालने का अलग पाइप लगाते, जिसका अलग निस्तारण होता।

फिर शुरू हुआ पुनर्जागरण काल। जिसने अंधकार युग को रोशनी से चीरना शुरू किया। कला और विज्ञान ने फैलाना शुरू किए, जिसका सामंतों ने गला घोंट दिया था। सत्रहवीं शताब्दी के दौरान भी यूरोपीय शहर गंदगी से बजबजा रहे थे और बदबू से सांस लेना मुहाल था। खुले में शौच करना आम बात थी। ट्रेन और हवाईजहाज का अविष्कार होने तक भी यह बंद नहीं हुआ। इन आधुनिक परिवहन साधनों में भी लोग खुले में या खिड़की-दरवाजों पर ही मल त्याग करते थे।

इसी दौरान सड़कों पर गंदगी और खुले हुए सीवर को नदियों में बहाने की व्यवस्था बनने लगी। बेहतर स्थिति तब बनी, जब जलविद्युत शक्ति की खोज हुई और उस आधार पर अविष्कार हुए। पानी को पंप करके इकट्टा करने और वितरण की प्रणाली विकसित होना शुरू हुई। फिर भी सामंती सत्ताओं की जकड़ ने लोगों को परेशान करना जारी रखा। सत्तरहवीं शताब्दी में जिस वक्त पेरिस में लोगों को पानी के लिए मशक्कत करना होती थी, उस समय लुई चौदहवें ने वर्साय के महल में फव्वारे, तालाब और नहरें अपनी अयाशी के लिए बनवाए।


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