#UP: जिंदा रखने का नहीं, सीधे स्वर्ग भेजने का इंतजाम

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गोरखपुर में 12 करोड़ रुपये की लागत से बना श्मशान घाट
आशीष आनंद-

देश में कोरोना की दूसरी लहर अभी खत्म नहीं हुई है और तीसरी लहर आने की संभावनाओं की घोषणा हो चुकी है। बिल्कुल उसी तरह, जैसे पहली लहर के समय दूसरी लहर आने की घोषणा हुई थी। दूसरी लहर से सामना करने की तैयारी का तो सभी को पता है, सबसे वह खौफनाक मंजर देखा है। लाशों के ढेर, ऑक्सीजन और बेड न होने से सड़कों पर मौतें, श्मशान और कब्रिस्तानों में, खासतौर पर शहरी इलाकों में कतारें, दिन रात सैकड़ों शवों की अंतिम क्रिया के डराने वाले दृश्य।

अब जब तीसरी लहर आने की बात आई तो सबक लेकर उसका सामना करने के बंदोबस्त पर जोर दिया गया। जाहिर है, जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव आसन्न हैं, वहां तो कम से कम हो ही रही होगी ये तैयारी। खासतौर पर उत्तरप्रदेश में।

एक ऐसा प्रदेश, जिसकी आबादी तकरीबन 22 करोड़ है। जो चीन, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्राजील की आबादी के बाद शायद सबसे ज्यादा आबादी वाली जगह है। जहां 18 मंडलों में 75 जिले हैं, उन जिलों में 59163 हजार से ज्यादा ग्राम पंचायतें हैं अौर उन ग्राम पंचायतों में 97941 गांव हैं। इस प्रदेश में 915 शहरी क्षेत्र, 8135 न्याय पंचायत, 13 नगर निगम, 226 नगरपालिका परिषदें, 822 विकासखंड, 1 लाख 80 हजार डाकखाने, 2885 टेलीफोन एक्सचेंज हैं। यह वह प्रदेश है, जहां से 80 सांसद लोकसभा में, 31 सांसद राज्यसभा में हैं। यहां की विधानसभा में 404 एमएलए और विधान परिषद में 100 सदस्य हैं। इस प्रदेश की लगभग 80 फीसद आबादी गांवों में रहती है, जिनमें लगभग 66 प्रतिशत सीधे तौर पर किसान हैं।

इस प्रदेश में दूसरी लहर का कहर सबसे ज्यादा देखा गया। पूरी दुनिया ने यहां लाशों के अंबार देखे। शवों के अंतिम संस्कार की जगह कम पड़ गई। गंगा में बहते शव हृदयविदारक मौत का सबूत बन गए।

यह स्थिति आगे न हो, ऐसा कौन नहीं चाहता। सरकार भी चाहती ही होगी, यह हम मानकर चल रहे हैं। इस स्थिति से बचने के लिए सरकार इंतजाम कर रही होगी, ऐसी उम्मीद सभी करते हैं। क्या उम्मीद? यही कि अब पर्याप्त इंतजाम होगा अस्पतालों का, इलाज करने वालों का, ऑक्सीजन का, चिकित्सा स्टाफ का, दवा का…यही न!

लेकिन शायद सरकार की प्राथमिकता पहले मरघट की सुविधा मुहैया कराने की है। वह भी ऐसे वैसे नहीं, बेहतरीन श्मशान। हो भी क्यों न आखिर, पिछले विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह सवाल भी उठाया था। यही नहीं, उससे पहले, केंद्र में पहली बार मोदी सरकार बनी तो श्मशान यानी अंत्येष्टि स्थल बनाने की औपचारिक प्रक्रिया शुरू हुई।

तत्कालीन उत्तरप्रदेश की अखिलेश सरकार ने दो सितंबर 2014 में इस सिलसिले में शासनादेश जारी किया था और उसका बजट तय किया। कुछ नए अंत्येष्टि स्थल बनाए भी गए, लेकिन कब्रिस्तान की बाउंड्री चुनावी मुद्दा बन गईं।

अब फिर से चुनाव होना है और बीते दिनों के हालात से योगी सरकार ने शायद नतीजा निकाला है कि तत्काल प्रभाव से श्मशान स्थल बनाए जाएं। इसका बजट जारी कर दिया गया है। एक अंत्येष्टि स्थल बनाने की लागत 24 लाख रुपये से ज्यादा निर्धारित हुई है।

 

यह सभी ग्रामीण क्षेत्र में ही फिलहाल बनने हैं। इसके लिए ग्रामसभा की भूमि ली जा रही है। वह भूमि, जहां गांव के लोग गोबर से उपले पाथते हैं, रुहेलखंड में इन जगहों को पथनौरे और उपलों को कंडा कहा जाता है। इन्हीं जगहों के आसपास गांव के लोग कूड़ा निस्तारण करते हैं और अपना घूरा डालते हैं, जो जरूरत पड़ने पर खेतों में जैविक खाद की तरह मिलाया जाता है।

लेकिन उससे क्या फायदा? सरकार ‘सीधे स्वर्ग भेजने का इंतजाम’ कर रही है। ऐसा गोरखपुर के सांसद और अभिनेता रवि किशन ने बाकायदा माइक पर हजारों लोगों से कहा, उस वक्त मंच पर बैठे प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रफुल्लित होकर खुश हो रहे थे।

जानते हैं, कितनी जगह चाहिए नए आलीशान कंडीशन के मरघट के लिए? 2000 गज। इतनी जमीन का होगा क्या? तो आपको बता दें कि यहां बहुत सी सुविधाएं होंगी। गांव के लोगों को यहां 13 तो कारें खड़ी करने को पार्किंग होगी। चारों ओर पेड़ और बाउंड्रीवॉल होगी। दाह संस्कार के लिए ईंधन रखने को एक टीन शेड, दो शव दाह शेड, लेखा जोखा रखने का एक दफ्तर, एक बगीचा, जिसमें भगवान शिव की विशाल मूर्ति होगी।

इसी इंतजाम को शायद सांसद अभिनेता रवि किशन ने ‘सीेधे स्वर्ग जाने का टिकट’ बताया होगा।

प्रदेश के एक जिले में पांच ऐसी श्मशान भूमि का मतलब हुआ लगभग सवा करोड़। पूरे प्रदेश के हर जिले में ऐसी पांच-पांच श्मशान का बजट हुआ लगभग 93 करोड़ रुपये। इससे आधा बजट उत्तरप्रदेश के बरेली में बने शानदार 300 बेड का अस्पताल का रहा है। लेटलतीफी के चलते बजट बाद में जरूर बढ़ाया गया।

बहरहाल, इस नई मरघट व्यवस्था का क्या होगा, यह तो आगे आने वाले दिनों में पता चलेगा। इससे पहले उन नए अंत्येष्टि स्थलों का भी हमने पता करने की कोशिश की, जो योगी सरकार से पहले बनाए गए। ज्यादातर, बल्कि सभी में निर्माण के बाद एक भी शव की यहां अंत्येष्टि नहीं हुई।

ऐसा क्यों हुआ? ऐसा इसलिए कि हर गांव में मरघट उनके अस्तित्व के समय से ही मौजूद हैं, क्योंकि मौत सच है। वे परंपरागत तौर पर उन मरघटों में शवदाह करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। वे नई जगह पर अपने परिजन को नहीं छोड़ना चाहते। उनकी परेशानी यह तो है कई जगह, कि वहां बरसात में दिक्कत होती है, क्योंकि शेड नहीं हैं, झाड़ियां उग आती हैं, रास्ते साफ नहीं हैं या हाथ-मुंह धोने का नल नहीं है।

आमतौर पर ग्रामीण परंपरा में दाह संस्कार में शामिल होने वाले वापसी में मृतक के घर के बाहर पहुंचते हैं और वहीं उनको हाथ धुलाकर कुछ परंपरागत चीज चबाने को दी जाती है।

गांवों में दसवां करने की जगहें भी तय हैं, वो तालाब, नहर या किसी बाग की जगह पर होती रही हैं।

उन्हें किसी नए मरघट या दसवां स्थल की जरूरत ही नहीं है। ज्यादा से ज्यादा मरघट में शेड, नल, बाउंड्री, सफाई की दरकार है। गांवों में आबादी वैसे ही कम हो रही है। यहां तक कि कोरोनाकाल की मौतों को चार गुना भी मान लिया जाए तो उनके मरघटों की हालत खौफनाक हो गई हो, कतारें लगी हों, ऐसा नहीं था। बल्कि उनकी एक हद तक यह मजबूरी जरूर हो गई कि शहरों में किसी का इलाज कराने पहुंचे और वह इलाज के अभाव में मर गया तो वहीं शव दाह कर दिया। इस वजह से शहरों में अतिरिक्त शवों की अंतिम क्रिया हुई।

यहां पर सवाल यह आता है कि उनकी या प्रदेश के लोगों की मदद सबसे ज्यादा अगर की जा सकती है तो वह है इलाज का बंदोबस्त। इसलिए कि बला अभी टली नहीं है। सरकारी स्तर पर मुहैया कराए जाने वाले वर्ल्डोमीटर पर मौजूद ताजा आंकड़ों से पता चल रहा है कि 17 जून 2021 की दोपहर तक देश में 2 करोड़ 97 लाख 313 संक्रमण के केस दर्ज हुए, जिनमें 3 लाख 81 हजार 931 लोगों की मौत हो गई। मौजूदा एक्टिव केस 8 लाख 26 हजार 712 हैं और 8944 की हालत नाजुक है। हालांकि ये आंकड़ा काबिले ऐतबार नहीं है। इन आंकड़ों पर तमाम सवाल उठ चुके हैं। मौत का आंकड़ा तो इससे कई गुना ज्यादा रहा है।

जाहिर है, सबसे बड़ी आबादी वाले और लचर स्वास्थ्य व्यवस्था वाले उत्तप्रदेश में यह स्थिति खतरनाक देखी गई है। लचर स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने की यहां कोई योजना भी नहीं दिखाई दे रही, जबकि मरघट की दिखाई दे रही है। मौजूदा सरकार 2018 के बजट में भी श्मशान-कब्रिस्तान के लिए 100 करोड़ रुपये तय किए गए।

एक नजर अब यहां की स्वास्थ्य व्यवस्था पर डाल लीजिए। सरकारी स्रोतों से पता चलता है कि यहां हाल बहुत खराब है। केंद्र स्तर पर 2019 में जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि यूपी स्वास्थ्य केंद्रों पर सात हजार से 15 हजार मरीजों तक का लोड है, जबकि दावा यह है कि 14 हजार 288 केंद्र ग्रामीण स्तर पर सरकारी भवनों में संचालित हो रहे हैं।

हकीकत यह है कि इन केंद्रों में अधिकांश कभी आबाद ही नहीं हुए, जानवर बंध रहे हैं। यहां जिन एएनएम को आकर ड्यूटी बजाना थी, वे पीएचसी-सीएचसी की परिक्रमा करके लौट आती हैं या फिर सारा हिसाब-किताब आशाओं से करती हैं। टीकाकरण से लेकर चुनाव के कामकाज के रजिस्टर तैयार करने के साथ ही शहरों में ठिकाना उनको यहां पहुंचने ही नहीं देता।

इसी तरह प्रदेश की पीएचसी पर 50 हजार से 95 हजार मरीजों का और सीएचसी पर दो लाख से ढाई लाख मरीजों का लोड है। प्रदेश में 2936 पीएचसी ग्रामीण स्तर पर और 624 शहरों में संचालित हैं, ऐसा सरकारी स्रोत बताते हैं।

आरटीआई के हवाले से 2015 में प्रकाशित इकोनॉमिक टाइम्स की रिपोर्ट बताती है कि प्रदेश में 3496 पीएचसी और 773 सीएचसी हैं। तब की स्थिति में एक पीएचसी पर औसतन 44 हजार मरीजों का लोड था। इसी रिपोर्ट में यूपी प्रोविंशियल मेडिकल सर्विसेज एसोसिएशन यानी यूपीपीएमएसए ने कहा कि पीएचसी पर 30 हजार और सीएचसी पर एक लाख मरीजों से ज्यादा का लोड नहीं होना चाहिए। मानक के हिसाब से प्रदेश में 7000 पीएचसी और 1600 सीएचसी की जरूरत है।

इस लिहाज से देखा जाए तो सरकारी चिकित्सा व्यवस्था में मानक के हिसाब से ही आधा इंतजाम है। मतलब दोगुना स्ट्रक्चर तो सामान्य स्थिति में ही खड़ा करने की जरूरत है।

लेकिन सरकार की प्राथमिकता मरघट हैं। वह भी गांव में, जहां उनको ऐसी जरूरत भी नहीं है। सरकार इसके लिए शहरों में बंदोबस्त करती तो यह सवाल शायद नहीं उठता। इसकी वजह यह है कि कोरोनाकाल में शहरी मध्यवर्ग के ऊपर ज्यादा गाज गिरी। चुनिंदा श्मशान में स्थितियां खासी खराब दिखाई दीं। जबकि मध्यवर्गीय मुस्लिम इलाकों के कब्रिस्तान भी भर गए।

शहरों में नए ऐसे स्थान बनाने के लिए जगह चुनना भी टेढ़ा काम है, क्योंकि लोगों के ऐतराज बहुत होते हैं और जगहें कीमती हैं। इसके अलावा शहरी घोटाले होने के आसार यहां बहुत ज्यादा हैं। शहर की नए कब्रिस्तान बनाने की कोई योजना भी फिलहाल नहीं दिखाई दे रही।

एक अजीबोगरीब बात यह है कि यूपी में मरघट योजना से पंचायतों के विकास का यह ख्याल तब आया है, जब केंद्र ने नई पंचायतों के गठन के समय 8923 करोड़ रुपये धनराशि जारी करके यह ऐलान किया कि गांव में ही मिलेगा कोरोना का इलाज। यह खबर विस्तार से प्रतिष्ठित अखबार दैनिक जागरण ने प्रकाशित की थी। सरकार ने 35 पन्नों में इस मामले की गाइडलाइन जारी की है।

यह भी ध्यान देने की बात है कि गांव में स्वास्थ्य व्यवस्था के ढांचे को लेकर पूर्ववर्ती सरकारें भी नजरें फेरती रहीं और न ही उनका चुनावी एजेंडा इस पर है। वे भी परशुराम की मूर्तियां लगाने की तो बात कर रहे हैं, मंदिर-मस्जिद की बात कर रहे हैं, लेकिन इस पर चुप्पी साधे हैं।

‘काम बोलता है’ वाले सपा मुखिया अखिलेश यादव को उनके ही कार्यकर्ताओं ने हर गांव में पांच बेड के अस्पताल की योजना साझी की तो उनका कोई जवाब नहीं आया। जबकि उनमें से एक जिला पंचायत सदस्य गजेंद्र सिंह यादव ने बदायूं क्षेत्र के अपने गांव में इस व्यवस्था को बनाने का प्रयास शुरू किया है। जिसमें एक गैर सरकारी स्थानीय चिकित्सक से सेवाएं ली जा रही हैं। इसके अलावा छात्र नेता हृदयेश यादव ने इस तरह का प्रस्ताव पार्टी अध्यक्ष को भेजकर सरकार बनने से पहले पार्टी से जुड़े जनप्रतिनिधियों के जरिए इस कोशिश को अंजाम देने का प्रस्ताव भेजा है।

ग्रामीण क्षेत्र की नब्ज पहचानने वाले ग्राम पंचायत अधिकारियों से जब हमने बात की तो उनका कहना था कि पांच बेड का जरूरी साधनों वाला अस्पताल तैयार करने में दो लाख रुपये के लगभग बजट आएगा। अमूमन सभी ग्राम पंचायतों और गांवों में कोई न कोई सरकारी भवन ऐसा है, जिसका प्रयोग नहीं हो रहा। कहीं गांधी आश्रम, कहीं पंचायत घर तो कहीं कोई और भवन ऐसे ही हैं।

उन जगहों पर बेड, ऑक्सीजन सिलिंडर, दवाएं, सैनिटाइजर, सोलर पैनल, मच्छरदानी आदि का इंतजाम करना होगा। गांव की आशा, विशेष प्रशिक्षण देकर क्षेत्रीय स्थानीय चिकित्सक इस काम को बखूबी कर सकते हैं। पीएचसी और सीएचसी के स्टाफ को उनसे तालमेल बनाना होगा। ये चिकित्सक सरकारी गाइडलाइन का पालन करते हुए उसी तरह प्रैक्टिस कर सकते हैं, जैसे वे किराए की दुकान लेकर करते हैं।

इस स्थिति में सरकार और विपक्षी दलों को विचार करना चाहिए, जिससे जन स्वास्थ्य का ढांचा बेहतर हो। स्वर्ग भेजने का इंतजाम नहीं, जान है तो जहान के नारे को साकार किया जाना चाहिए।

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