क्या 1.5 अरब ‘गड्ढे’ में डालने जा रही योगी सरकार!

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योगी सरकार 1.5 अरब गड्ढे में डालने वाली है, वो भी सच के गड्ढे में। गड्ढा बनाने का इरादा नेक है, लेकिन उसके निर्माण की जो लागत तय की गई है, वह चौंकाने वाली है। यह गड्ढे भूगर्भ जल को रिचार्ज करने के लिए गांवाें में मौजूद सरकारी हैंडपंप से जोड़े जाएंगे। ऐसा करके उनका पानी इधर-उधर नहीं बहेगा, बल्कि उस गड्ढे के जरिए छनकर भूगर्भ जल का हिस्सा बन जाएगा।

जल संचय की यह योजना बहुत अच्छी है। इस तरह से संचय का काम पहले भी लोगों ने किया है। लेकिन इस तरह के एक गड्ढे को बनाने में 8500 रुपये लगेंगे। गड्ढा लगभग उसी तरह का होगा, जैसे दो गड्ढों वाले शौचालय के बनाए गए। इसे हनी कॉम्ब पिट कहा जाता है। यानी मधुमक्खी के छत्ते की तरह जालीदार गड्ढा। साइज भी तकरीबन वही को जल संचय वाले गड्ढे का। इसे पक्की ईंट से बनाने की भी जरूरत नहीं होती, पीली ईंट से भी बनाया जा सकता है, न ही कभी खाली करना है।

यह चूक है या योगी सरकार के प्रशासन की जानबूझकर की जा रही कारस्तानी। इससे पहले सरकारी स्तर पर दो गड्ढे वाले, टॉयलेट केबिन, टॉयलेट सीट, पानी की व्यवस्था, टाइल, किबाड़ लगाकर लागत तय की गई थी 12 हजार रुपये। अगर इसमें से एक गड्ढा कम कर दिया जाए तो नई लागत से इसमें एक गड्ढे वाला शौचालय 3500 रुपये में बन जाना चाहिए। या फिर दो गड्ढों की ही कीमत 17 हजार होना चाहिए, जबकि केबिन और शौचालय की बाकी लागत अलग से।

इस हिसाब से शौचालय की लागत 20 हजार से ऊपर हो जाएगी। जबकि सच्चाई यह है कि कमीशन के बाद वे शौचालय नौ दस हजार के बने। किसी भी तरह का कमीशन न हो तो जालीदार एक गड्ढा एक हजार रुपये में बन सकता है।

जो गड्ढा एक हजार में बन सकता है, उसे 8500 में बनाने की योजना है। कुल मिलाकर 7500 रुपये अतिरिक्त खर्च करने का बजट। एक गांव में दो ही नल पर ये गड्ढे बने तो 15000 अतिरिक्त। पूरे प्रदेश में यही अतिरिक्त लागत लगभग 1.5 अरब रुपये हो जाएगी।

बात तो इस पर भी की जानी चाहिए कि कितने सरकारी हैंडपंप चालू हालत में है। जल संचय पर काम करने वाली संस्थाओं का कहना है कि 70 प्रतिशत से ज्यादा इंडिया मार्का हैंडपंप किसी काम के नहीं बचे हैं।

उनका कहना है कि इन हैंडपंप का शुद्ध पानी मुहैया कराने का मानक ये भी है कि एक दिन में एक पंप से पांच-हजार लीटर तक पानी खींचा जाना चाहिए। इसके लिए ये पंप घनी आबादी में होना चाहिए, जबकि ऐसा अधिकांश जगह नहीं है। अगर ऐसा है तो वाटर रिचार्ज कैसे होगा। हां, इतना कहा जा सकता है कि कुछ तो होगा ही।

अलबत्ता, गांवों में एक दूसरी समस्या होने के आसार जरूर पनप रहे हैं। उसका कारण भी जालीदार गड्ढों वाले शौचालय में मानकों में अनदेखी है।

इन्हें बनाने में सबसे बड़ी कमी छोड़ी गई पेयजल स्रोत से दूरी का मानक। गाइडलाइन के अनुसार पेयजल के स्रोत की शौचालयों के गड्ढों से 10 मीटर की दूरी होना चाहिए। इसकी वजह ये है कि ये गड्ढे तली से कच्ची जमीन पर होते हैं और मधुमक्खी के छत्ते की तरह ईंटों के जाल जैसी दीवार होती है।

इसका तर्क ये है कि मल के साथ जो पानी गड्ढे में जाए, वह रिसकर जमीन की परतों से होते हुए छनकर भूगर्भ जल में मिल जाए। पेयजल स्रोत दूर होने से उसका पानी फिल्टर होने से पहले नहीं आए, इसको सुनिश्चित करना था। एक ही मीटर की गहराई करने की वजह है कि सूर्य की किरणें एक मीटर गहराई तक जाती हैं जिससे मल शुष्क होता जाता है।

बहरहाल ऐसा हुआ नहीं। निर्माण करने से पहले इस बात का खयाल रखा जाए, ऐसा कोई निर्देश किसी स्तर से जारी नहीं किया गया। दूसरी बात ग्राम सचिव और ग्राम प्रधान को निर्माण कराने से मतलब था, इस मानक को जांचने का उनके पास कोई तरीका भी नहीं था।

किसी भी बड़े घर में ऐसा हो भी गया तो पड़ोसी घर के शौचालय का गड्ढा उसके नजदीक बन गया, बीच में दीवार ही तो है। जिन घरों में हैंडपंप हैं और भूगर्भ जलस्तर अच्छा है, वहां बोरिंग की गहराई सामान्यता 40-50 फिट होती है। गाइडलाइन के अनुसार जहां भूगर्भ जलस्तर उथला है या जमीन पथरीली है, वहां इन शौचालयों के बनने से दिक्कत आ सकती है।

गड्ढों के पास कम गहराई वाले नलों का पानी बीमारी के बैक्टीरिया हलक तक उतारने में कितना सक्षम हैं, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 200 फिट से ज्यादा गहराई पर लगने वाला इंडिया मार्का हैंडपंप तक को नाली या कूड़े के पास लगाने से मनाही है।

मिसाल के तौर पर मैदानी गांवों के घर चिपककर बने होते हैं और बहुत से शौचालय बन जाने से ये समस्या और ज्यादा बढ़ना तय है। चिंताजनक बात ये है कि जब भूगर्भ जलस्तर और शुद्ध पेयजल का संकट हो, वहां इस समस्या को नजरंदाज किया जाना कितना भयावह हो सकता है, जबकि ई-कोलाई जैसे सुपरबग इस गहराई के पानी में पाए जा चुके हों। मल के साथ ये बैक्टीरिया गंभीर रोग की महामारी फैला सकता है।


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