5 पूर्व सेनाध्यक्षों ने धर्म संसद को बताया घृणा सभा, सैन्य बलों को उकसाने का आरोप

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Haridwar Dharam Sansad Narsinghanand
यति नरसिंहानंद सरस्वती.

  – विजय शंकर सिंह-

देश की सरकार भले ही हरिद्वार धर्म संसद की भड़काऊ बयानबाजी पर चुप हो या देश में पांच राज्यों की विधानसभाओं में इस मामले में की जाने वाली विधिक कार्रवाई का चुनावी गणित के दृष्टिकोण से गुणा भाग कर रही हो, लेकिन दुनियाभर में भारत के इस नवआतंकी स्वरूप पर हैरानी जताई जा रही है। देश के लगभग सभी क्षेत्रों में, चाहे वह सेना का क्षेत्र हो, या वकीलों बुद्धिजीवियों का, या मैनेजमेंट के सबसे कुशाग्र विद्यार्थियों की जमात हो, हर जगह इस आतंकी शब्दावली, नरसंहार के आह्वान, संविधान विरोधी शपथ की न केवल भर्त्सना की जा रही है, बल्कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री को चिट्ठियां लिखी गयी हैं, और सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिकाएं दायर की गई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका पर संज्ञान भी लिया है और सुनवाई भी शुरू कर दी है। सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई का ही यह परिणाम है कि उत्तराखंड पुलिस हरकत में आई है और अब कुछ गिरफ्तारियां शुरू हुई हैं। (Religion Parliament Armed Forces)

एक और याचिका, सशस्त्र बलों के तीन सेवानिवृत अधिकारियों ने भी सुप्रीम कोर्ट में दायर कर के यह मांग की है, “हरिद्वार और दिल्ली के धर्म संसदों में मुसलमानों के खिलाफ दिए गए नफरती भाषणों की जांच के लिए विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया जाए।” इन तीन याचिकाकर्ताओं के नाम हैं, मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे, कर्नल पीके नायर और मेजर प्रियदर्शी चौधरी। अमूमन सेना के पूर्व अधिकारी इस तरह के मामलों में नहीं पड़ते हैं।

उल्लेखनीय है, सबसे पहले, धर्म संसद को हेट कॉन्क्लेव यानी घृणासभा संबोधित करते हुए पांच पूर्व सेनाध्यक्षों ने ही सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर, राष्ट्रपति को इस मामले की गंभीरता से अवगत कराया है। उनके साथ अन्य सुरक्षा बलों के वरिष्ठ अफसर भी इस मुहिम में शामिल हैं। इस पत्र की प्रतिलिपि प्रधानमंत्री को भी भेजी गई है। इसके बाद तो ऐसे पत्रों का सिलसिला ही शुरू हो गया। (Religion Parliament Armed Forces)

इन तीन पूर्व सैन्य अफसरों द्वारा दायर जनहित याचिका में कहा गया है, ” देशद्रोही और विभाजनकारी भाषणों ने न केवल देश के कानून का उल्लंघन किया, बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 पर भी हमला किया है। यह भाषण राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर दाग लगाते हैं और पब्लिक ऑर्डर (लोक व्यवस्था) पर प्रतिकूल प्रभाव डालने की गंभीर क्षमता रखते हैं।”

याचिका में यह एक गंभीर बिंदु उठाया गया है कि इससे लोकव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। दरअसल, आईपीसी की जिन धाराओं में यह मुक़दमे दर्ज किए गए हैं, वे सज़ायाबी या अपराध की गंभीरता को देखते हुए गंभीर कानूनी धाराएं नहीं हैं, पर उन भाषणों और शपथ के भड़काऊपन से समाज मे वैमनस्यता फैल सकती है, हिंसक प्रतिक्रिया हो सकती है, जिससे पब्लिक ऑर्डर या लोकव्यवस्था भंग हो सकती है। ऐसे मामलों में एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत कार्रवाई की जानी चाहिए जो अब तक नहीं की गई है।

याचिकाकर्ताओं ने कहा है, “अगर ऐसी घटनाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है तो इससे सशस्त्र बलों के सैनिकों के मनोबल और देश की एकता व अखंडता पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि सेना में विविध समुदायों और धर्मों के सैनिक हैं।”

याचिकाकर्ताओं ने इस बात की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है कि “ऐसे नफरती भाषण हमारे सशस्त्र बलों की लड़ने की क्षमता पर भी दुष्प्रभाव डाल सकते हैं, जिसकी प्रतिक्रियास्वरूप राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करना होगा।”

याचिका में दिल्ली और हरिद्वार की धर्म संसदों में कही गईं उन पंक्तियों का भी हवाला दिया गया है, जिनमें कथित तौर पर मुसलमानों के जनसंहार का आह्वान करते हुए देश की पुलिस, नेताओं, सेना और हर हिंदू से मुसलमानों के खिलाफ हथियार उठाने की अपील की गई थी। (Religion Parliament Armed Forces)

यह अपने आप में ही सेना और सुरक्षा बलों को धर्म के नाम पर भड़काना और उन्हें संविधान की शपथ के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह के लिए उकसाना हुआ। इसे हल्के में लेना या जैसा कि एक केंद्रीय मंत्री ने कहा है कि, इसे नज़रअंदाज़ किया जाना चाहिए, सर्वथा अनुचित होगा। याचिका में यह भी कहा गया है कि “इस तरह के असंवैधानिक चरित्र के अभद्र भाषण आज़ादी के बाद शायद पहली बार दिए गए हैं।”

(लेखक रिटायर्ड आईपीएस व ब्लॉगर हैं, यह उनका निजी नजरिया है)


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