मिस्र की जिस स्वेज नहर में जहाज फंसने से पूरी दुनिया बेचैन है, उसे बनाने में 1.20 लाख मजदूरों ने गंवाई थी जान

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1.20 Lakh Laborers Lost Lives Egypt Suez Canal

खुर्शीद अहमद


 

स्वेज नहर मिस्र में है जो भू-मध्य सागर को लाल सागर से जोड़ती है. भूमध्य सागरीय तट पर स्थित पोर्ट सईद से शुरू होकर स्वेज शहर के पास लाल सागर में जा मिलती है. इन दोनों शहरों के बीच गुजरने वाली स्वेज नहर की लंबाई शुरू में 100 मील या करीब 164 किलोमीटर और चौड़ाई मात्र 60 मीटर थी. लेकिन इस पर काम होता रहता है और अब इसकी लंबाई 193.3 किलोमीटर और चौड़ाई कहीं पर 264 मीटर तो कहीं 313 मीटर तक हो चुकी है.

जनरल सीसी के सत्ता में आने के बाद इस नहर के एक बड़े प्रोजेक्ट पर काम हो रहा है. जिसके 2023 तक पूरा होने की संभावना है. फिर इस नहर की चौड़ाई दूगनी हो जाएगी.

इस 193.3 किलोमीटर लंबी नहर की वजह से यूरोप से एशिया का रास्ता बेहद आसान बना है. यूरोप से भारत जैसे देशों में आने के लिए पूरे अफ्रीकी महाद्वीप को पार नहीं करना पड़ता है. और लगभग चार हजार मील या सात दिन की बचत होती है.


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विश्व व्यापार में इस नहर का हिस्सा 10 प्रतिशत का है. अर्थात विश्व में सालाना जितना माल ढोया जाता है, उसका 10 प्रतिशत माल इसी नहर से गुजरता है. हर वर्ष इस रास्ते से डेढ़ करोड़ कंटेनर सामान यूरोप जाते हैं जिनमें 75 प्रतिशत चीन के बने हुए सामान होते हैं. इस नहर से होने वाली सालाना आमदनी मिस्र के लिए काफी अहम है. यह टूरिज्म के बाद आमदनी का दूसरा बड़ा सोत्र है.

स्वेज नहर का इतिहास

अभी जो स्वेज नहर है यह 1869 में बनकर तैयार हुई है. लेकिन जैसा कि आप को मालूम है कि मिस्र और भूमध्यसागरीय देश पुरानी सभ्यताओं के देश हैं. और शुरू से ही यूरोप से एशिया को जोड़ने वाले इस रास्ते का महत्व का अंदाजा हो गया था. इसलिए शुरुआत से ही इस पर काम भी हुआ. आज के लगभग 3900 वर्ष पहले फिरऔन सनोसर्त थर्ड ने नील नदी से कुछ छोटी-छोटी नहरें खुदवाईं थीं, जिससे भूमध्य सागर को लाल सागर से जोड़ा गया था.

इसके बाद दूसरे फिरऔन और उसके बाद रोमन साम्राज्य व बाइजेंटाईन सम्राज्य में भी इन नहरों को विकसित किया गया. हजरत उमर के समय जब मिस्र पर इस्लामी सेना को विजय प्राप्त हुई तो मिस्र के गवर्नर हजरत अम्र-बिन-अलआस ने एक नहर खुदवाई.

जिसका नाम अमीरुल मोमिनीन नहर रखा गया. हज़रत मोआविया और खलीफा हारून रशीद ने भी इन नहरों पर विशेष ध्यान दिया. लेकिन इन सब लोगों की कोशिशें छोटी-छोटी नहरों को ही विकसित करने पर रहीं, शायद उस समय की जरूरतें भी इतनी ही थी.


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18वीं शताब्दी के आखिर में नेपोलियन बोनापार्ट ने जब मिस्र पर कब्जा किया तो उसने एक बड़ी नहर खोदवाने की तैयारी की. बजट तैयार हुआ, पर उस समय के फ्रांसीसी राष्ट्रपति की मंजूरी इस पर नहीं मिली. नेपोलियन के समय यह काम नहीं हो पाया पर फ्रांस रुका नहीं.

कोशिश करते रहे और 1854 में फ्रेंच इंजीनियर फरडायनानड डी लेसबेस ने उस समय के मिस्र के गवर्नर सईद पाशा के सामने एक प्रपोजल रखा. जिसे सईद पाशा ने स्वीकार कर लिया और इसतंबुल के हेडक्वार्टर से इजाजत हासिल कर ली. इस तरह 1858 में मौजूदा स्वेज नहर बनना शुरू हूई जो दस साल बाद 1868 में बन कर तैयार हो गई.

इस नहर के लिए दिन-रात शिफ्टों में काम हुआ. प्रोजेक्ट की शर्तों के अनुसार काम करने वाले 85 प्रतिशत मजदूर मिस्र के थे. इन दस सालों में एक लाख बीस हजार मजदूर खाने-पीने की कमी और दूसरी बीमारियों में मर गए. आज मानवाधिकारों के चैंपियन फ्रांस ने मजदूरों को जरूरत भर का खाना भी नहीं दिया. वह मर गए. मिस्री मजदूरों की चिंता न तो फ्रांसीसी लोगों को थी और न ही मिस्र पर शासन करने वाले तुर्को को.

1868 में बनने के बाद इस नहर की जिम्मेदारी फ्रांस को मिली. आमदनी का मात्र 15 प्रतिशत हिस्सा ही मिस्र को मिलता था. 1954 में जमाल अब्दुल नासिर ने स्वेज नहर फ्रांस से लेकर उसका राष्ट्रीयकरण कर दिया. जिससे नाराज होकर फ्रांस इजरायल और ब्रिटेन ने मिस्र पर हमला कर दिया. उसके सात वर्षों तक यह नहर दूसरों के कब्जे में रहने के बाद मिस्र को वापस मिल गई.

(खुर्शीद अहमद का ये लेख उनके फेसबुक वॉल से प्रकाशित से है-साभार.)

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