द लीडर : समाजवादी पार्टी के नेता धर्मेंद्र यादव ने आज़मगढ़ में अपनी हार का ठीकरा मुसलमानों के सिर फोड़ दिया है. यह कहकर कि हम अल्पसंख्यकों को समझाने में कामयाब नहीं हुए. लेकिन शायद अब उनकी आंखें खुल जाएंगी… मतलब धर्मेंद्र यादव का कहना यह है कि मुस्लिम समाज ने समाजवादी पार्टी को वोट नहीं दिया. इसलिए हम हार गए… इसी साल मार्च में जब 2022 के विधानसभा चुनाव का रिज़ल्ट आया तो बसपा सुप्रिमो मायावती ने भी कुछ. ऐसा ही कहा था और अब गुड्डू जमाली की हार के बाद भी उनका पूरा फोकस सिर्फ़ और सिर्फ़ विशेष समुदाय यानी मुसलमानों को गुमराह होने से बचाने पर टिका है. (Dharmendra Yadav Azamgarh Muslims)
मतलब समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों का एक ही शिकवा है कि मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया. इसलिए भाजपा जीत गई और वो हार गए… यानी उत्तर प्रदेश की दोनों प्रमुख पार्टियों की बस एक ही ख़्वाहिश है कि मुसलमान भाजपा को हराने का झंडा उठाकर अपनी छाती कूटते रहें. अपने घरों पर बुल्डोज़र चलवाएं. लाठियां-गोलियां खाएं. जवान बच्चे जेलों में सड़ें और बूढ़े बाप कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटें… और जिसे सपा या बसपा का बेस वोट कहा जाता है, उस समाज से जुड़े लोग भाजपा के साथ मिलकर सत्ता का सुख भोगें. मलाई खाएं. है न कमाल की राजनीति.
कितने सयाने नेता हैं. धर्मेंद्र यादव का मुसलमानों से ये शिकवा तब है-जब चार महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में मुस्लिम समाज ने थोक में अपना क़रीब 85 प्रतिशत वोट समाजवादी पार्टी की झोली में उड़ेल दिया था लेकिन एहसान फ़रामोशी तो सियासत की रग-रग में भर चुकी है, तो भला उम्मीद क्या करेंगे..
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धर्मेंद्र यादव का 2014 से 2019 तक का संसद का कार्यकाल देख लीजिए. जब वो बदायूं से सांसद थे. निसंदेह सदन में उन्होंने मुखरता के साथ अपनी बात रखी. लेकिन संसद में धर्मेंद्र यादव ने जितने भी मुद्दों पर बात की है-उनमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से 85 प्रतिशत मामले ओबीसी से जुड़े हैं… धर्मेंद्र यादव ख़ुद भी इसी ओबीसी बिरादरी से आते हैं…सपा के संस्थाक पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव हैं-और इसकी कमान यादव परिवार के हाथों में है, तो यादवों को.. सपा का बेस वोट माना जाता है और इस ओबीसी वोट बैंक पर भारतीय जनता पार्टी 2014 से नज़रें.. गढ़ाए हुए है. इस साल 2022 के चुनाव तक भाजपा ने ओबीसी का अधिकांश वोट अपनी तरफ खींच लिया है. (Dharmendra Yadav Azamgarh Muslims)
आज़मगढ़ सपा की विरासत वाली सीट मानी जाती है. जहां यादव बिरादरी का अच्छा ख़ास वोट है. दिनेश लाल यादव उर्फ निरहुआ, जो उप-चुनाव जीतकर भाजपा से सांसद बने हैं-वो धर्मेंद्र यादव के सजातीय भाई हैं. लेकिन धर्मेंद्र यादव ने कितनी चालाकी के साथ अपनी हार का ज़िम्मेदार शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली और मुसलमानों को क़रार दे दिया.
आख़िर धर्मेंद्र यादव ने निरहुआ पर यह इल्ज़ाम क्यों नहीं लगाया. चुनाव से पहले यादव बिरादरी की महापंचायत क्यों नहीं बुलाई कि निरहुआ के चुनाव लड़ने से यादव ट्रेडमार्क वाली समाजवादी पार्टी कमज़ोर होगी. कम से कम हार जाने के बाद ही अपनी बिरादरी से शिकवा कर लेते. लेकिन ऐसा करने की उनमें हिम्मत नहीं है. क्योंकि सच धर्मेंद्र यादव भी जानते हैं और बाक़ी लोग भी. हां, मुसलमान-जिन्हें राजनीतिक अछूत बनाया जा रहा है-उन पर इल्ज़ाम तराशी सबसे आसान काम है. क्योंकि उधर से पलटकर कोई सवाल नहीं करेगा. करेगा भी तो भाजपा का ख़ौफ दिखाकर उसे अतार्किक बना दिया जाएगा.
धर्मेंद्र यादव ने आज़मगढ़ के मुसलमानों को लेकर जो शिकवा किया है. क्या रामपुर को लेकर भी उसे दोहराएंगे? क्या रामपुर के मुसलमानों ने भाजपा को जिताया है? धर्मेंद्र यादव न सही तो समाजवादी पार्टी के मुखिया या किसी दूसरे नेता को इसका जवाब ज़रूर देना चाहिए. (Dharmendra Yadav Azamgarh Muslims)
बहुजन समाज पार्टी का जहां तक सवाल है, तो उसका एक तिहाई वोट पहले ही भाजपा में शिफ्ट हो चुका है. और बसपा का अगर 100 प्रतिशत वोट भी भाजपा में चला जाए तो कोई चौंकने वाली या रहस्मयी बात नहीं होगी. 18 जुलाई को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के लिए बसपा ने भाजपा प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू को समर्थन दिया है. 2014 से अब तक संसद में भाजपा के अमूमन हर बिल-पॉलिसी को अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष तौर पर बसपा का समर्थन हासिल रहा है. भाजपा के साथ गठबंधन करके मायावती मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं तो भाजपा और बसपा हमेशा से ही एक सिक्के के दो पहलू हैं.
लेकिन इधर मायावती की छटपटाहट इस बात को लेकर है कि 2007 में जिस तरह से मुसलमानों ने बसपा को थोक के भाव वोट किया था. लेकिन 2012 के विधानसभा, 2014 के लोकसभा और फिर 2022 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने उस तरह बसपा को वोट नहीं दिया. तो इसका एक पहलू यह भी है कि जब दलित वोटबैंक ही बसपा के साथ उस तादाद में नहीं रहा तो केवल मुस्लिम समुदाय से ही उन्हें शिकायत क्यों है. लेकिन फिर भी मायावती बार-बार हर चुनाव में हार के बाद सामने आकर मुसलमानों को ही गुमराह बता जाती हैं.
जबकि कड़वी सच्चाई यही है कि समाजवादी पार्टी या बसपा, दोनों में भाजपा से लड़ाई का नैतिक बल नहीं है. इल्ज़ाम लगते रहे हैं कि इनके नेताओं के पास बेशुमार दौलत है. हर पल ईडी और सीबीआई का ख़ौफ रहता है. दूसरा यह कि अब न तो यूपी में इन पार्टियों का ढांचा ही उतना मज़बूत रहा और न ही इनके नेता उतने दमदार हैं. ख़ुद मायावती पर उम्र के साथ गंभीर दबाव का असर देखा जा सकता है. (Dharmendra Yadav Azamgarh Muslims)
सपा-बसपा का जातीय वोट बैंक भाजपा की तरफ खिसक चुका है. सिर्फ़ मुसलमान ही हैं जो इनके राजनैतिक वजूद बचाए हुए हैं. तब, जबकि आज की सपा और बसपा दोनों ने ही उनके ज़ख़्म क़ुरेदने के सिवाय, कुछ भी नहीं किया है.. हां, चुनाव जीत गए तो बिरादरी ने जिताया और हार गए तो मुसलमानों ने वोट नहीं दिया. ये रट इन्हें पतन की तरफ ही लेकर जाएगी. इससे और कुछ हासिल नहीं होने वाला.