पश्चिम बंगाल के चुनाव में कारपोरेट लॉबी क्यों ले रही इतनी दिलचस्पी

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गिरीश मालवीय

भारत को जमीन के रास्ते दक्षिण-पूर्व एशिया से जोड़ने की योजना है। भारत-म्यांमार-थाईलैंड को सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए भारत के सहयोग से ट्राई लेटरल हाईवे का निर्माण चल रहा है। अब थाईलैंड और भारत के मध्य व्यापार बढ़ाने के लिए थाईलैंड के रानोंग बंदरगाह से भारत के चेन्नई व अंडमान को भी समुद्र मार्ग से जोड़ने की योजना है।

पश्चिम बंगाल भी तीनों तरफ से पूर्वोत्तर भारत से घिरा हुआ है यानी वहां भी व्यापार की अपार संभावनाएं हैं।

अडाणी समूह 2018 में कह चुका है कि वह पश्चिम बंगाल के हल्दिया में कंपनी की खाद्य तेल रिफाइनरी की क्षमता को दोगुना करने के लिए 750 करोड़ रुपए का निवेश करेगा। वहीं मुकेश अंबानी भी पश्चिम बंगाल में 5,000 करोड़ रुपए का निवेश करने का ऐलान कर चुके हैं। यह निवेश पेट्रोलियम और खुदरा कारोबार में किया जाएगा।

वाराणसी से हल्दिया के बीच गंगा में विकसित हो रहे जलमार्ग पर अडानी ग्रुप 10 जलपोतों का संचालन करने जा रहा है। इसके साथ ही पटना टर्मिनल तक भी वह 2000 टन क्षमता के जहाज चलाना चाहता है।

पिछले कई सालों से नीतियों को खुलेआम कारपोरेट के हित में बनाने और लागू करने की कोशिश में जुटी सरकारें पूरी ताकत लगाकर पश्चिम बंगाल के राजनीतिक समीकरण अपने पक्ष में करने को आतुर हैं। इसके आमतौर पर दिखाई देने वाले कारणों पर कई विश्लेषण मौजूद हैं। लेकिन कारपोरेट के नफा-नुकसान का कोई रिश्ता है, इस पर रोशनी नहीं डाली गई है।

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साफ दिखाई दे रहा है कि पश्चिम बंगाल का इलेक्शन पूर्वोत्तर भारत और उसके जरिए पूरे उत्तर पूर्वी एशिया के देशों तक एकाधिकारवादी कारपोरेट लॉबी की पकड़ बना देगा। पश्चिम बंगाल चुनाव में कारपोरेट लॉबी न सिर्फ पूरी ताकत से धन बल के साथ जुटी है, बल्कि साम दाम दंड भेद का हर संभव तरीका आजमाया जा रहा है।

दस साल पहले सोची समझी रणनीति के तहत वाम का किला ढहाया गया और अब उस किले को ढहाने वाले राजनैतिक दल को ठिकाने लगाने को जोर लगाया जा रहा है। वाम के किले में सेंध ममता ने लगाई और अब ममता के किले में सेंध बीजेपी लगा रही है।

ममता को 21वीं सदी के पहले दशक में कारपोरेट घरानों और नए उदार अमीरों का अंध समर्थन मिला था, लेकिन 2021 में कारपोरेट का प्रिय राजनीतिक दल भाजपा है।

टीएमसी की सत्ता आने से पहले पश्चिम बंगाल वाम दलों का मजबूत गढ़ था, जहां कारपोरेट लॉबी का दखल तो था, लेकिन मनमाना खेल खेलना उनके लिए मुमकिन नहीं था। वहीं वामपंथी सीपीएम सरकार की भी राजनैतिक बाधा थी कि वे कारपोरेट को एक हद तक ही छूट दे सकते थे।

तृणमूल के लिए भी तकरीबन यही बाधा है। बंगाल के इतिहास और संस्कृति की जड़ें भी इन दलों को ऐसा करने से रोक देती है।

दूसरी ओर देखें तो एकाधिकारवादी कारपोरेट लॉबी के लिए इससे बेहतर माहौल शायद कभी नहीं मिला, लिहाजा बंगाल में पैठ बनाने को उनके सामने करो या मरो जैसा प्रश्न है। वे बंगाल को भी देश की ‘मुख्यधारा’ में शामिल करने के लिए हर कीमत देने को तैयार है, जिसको पूरे देश में आजमाया जा चुका है।

तथ्य यह भी है कि अडानी ग्रुप पूरे देश की कोस्टल लाइन काबिज हो गया है। इस ग्रुप के पास देश का सबसे बड़ा पोर्ट नेटवर्क है। पश्चिमी तट के जितने भी प्रमुख बंदरगाह हैं वे सात साल पहले ही इस ग्रुप के नियंत्रण में आना शुरू हो गए थे। बीते सात साल में पूरी तरह उनका संचालन इस ग्रुप के हाथ में आ गया।

देश के पूर्वी तट पर भी एक-एक करके बंदरगाहों का संचालन अडानी ग्रुप के हाथ में तकरीबन आ ही चुका है। अब सिर्फ बंगाल का हल्दिया पोर्ट ही ऐसा है जहां राज्य सरकार की अड़ंगेबाजी का सामना करना पड़ता है। हल्दिया पोर्ट से नेपाल तक को माल सप्लाई होता है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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