एक पिता जब क्रांतिकारी होता है: बटुकेश्वर दत्त की बेटी भारती दत्त से #TheLeaderHindi की बातचीत

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-जयंती-

आशीष आनंद-

ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल के विरोध में असेंबली में बम फेंककर अंग्रेजी हुकूमत को चेताने वाले भगत सिंह के साथ उनके भरोसेमंद क्रांतिकारी मित्र थे बटुकेश्वर दत्त। आज उनका स्मृति दिवस है। आज ही के दिन 18 नवंबर 1910 को जन्म हुआ और महज 55 साल की उम्र में 20 जुलाई 1965 को उनका निधन हुआ, आजादी के बाद के दो दशक भी पूरे नहीं हुए थे तब। उस वक्त भी उन्हाेंने कम तकलीफों का सामना नहीं किया।

महान क्रांतिकारी बुटकेश्वर दत्त की जिंदगी के तमाम पहलू सभी पहले से जानते हैं। एक पिता जब क्रांतिकारी होता है, तब उसका कैसा व्यक्तित्व होता है, यह हमने उनकी इकलौती संतान भारती दत्त बागची से जानने की कोशिश की, जिसे आज के पिताओं और उनकी संतानों को गौर से सुनना-समझना चाहिए।

भारती दीदी ने असेंबली बम केस के बाद अखबारों में प्रकाशित तस्वीर सहेजकर रखी है

भारती दीदी अब रिटायर हो चुकी हैं। दीदी ही कहते हैं ज्यादातर लोग उनको। शायद इसीलिए कि उनके पिता ने पूरे देश की संतानों को अपनी संतान जैसा चाहा और उसके लिए कुर्बानी देने से अंतिम दम तक पीछे नहीं हटे। पटना यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र और कॉमर्स की प्रोफेसर रहीं भारती दीदी कुछ अरसे पहले रिटायर होकर पटना शहर में ही रह रही हैं। तबीयत नासाज होने के बावजूद उन्होंने द लीडर हिंदी से सिर्फ इसलिए फोन पर बातचीत की, कि वे एक क्रांतिकारी के बारे में पूरे देश को कुछ बता सकती है, तो बताया जाना चाहिए।

भारती दीदी बताती हैं, ‘मैं पिता जी के साथ 14 साल ही रह पाई। इस उम्र में जो उनसे सीखा समझा जा सकता था, वह उनका व्यवहार ही था। बचपन उस वक्त गुजरा जब आजादी के बाद चीजों को नई तरीके से गढ़ने की कोशिश हो रही थी और ढेरों उम्मीदें पूरे देश को थीं। ज्यादातर देशवासी तकलीफों को इसलिए बर्दाश्त कर रहे थे कि उनको कम से कम विदेशी गुलामी की जंजीरों से मुक्ति मिली। ऐसे में एक क्रांतिकारी तकलीफों को क्या मानेगा, जिसने अपना जीवन ही आजादी के लिए दांव पर लगा दिया हो।’

‘पिता जी के बारे में कई बातें बाद में मीडिया में प्रकाशित हुईं कि वे बहुत मुश्किलों से गुजरे। हकीकत ये है कि वे उन मुश्किलों को मुश्किल नहीं मानते थे, बल्कि देश के आम लोगों की जिंदगी के साथ जोड़कर देखते थे। वे उस वक्त मुझे बहुत खिलौने नहीं लाते थे, बल्कि कहानियों की ऐसी पुस्तिकाएं लाते थे, जिससे एक सच्चा इंसान बना जाए, जिसकी जिंदगी में अनुशासन हो और गरीब-मेहनती लोगों के लिए दिल में करुणा हो।’

सेल्युलर जेल भ्रमण के दौरान क्रांतिकारी डॉ.गया प्रसाद के बेटे क्रांति कुमार और भारती दीदी

कभी-कभी पुराने क्रांतिकारी साथियों के बारे में बताते हुए यादों में डूब जाते, फिर आंखों में नए निर्माण की चमक भी दिखती। यह उन्होंने बताया था एक बार कि कैसे असेंबली में बम फेंकने के लिए खुद भगत सिंह ने उनको चुना। दोनों लोगों को अलग-अलग कैदखाने में रखा गया और एक दूसरे का भरोसा तोड़ने के प्रयास हुए, कि ‘उसने खा लिया तुम भी खा लो’, या ‘उसने सरकारी गवाह बनना मंजूर कर लिया तुम भी बन जाओ’। ये प्रयास हास्यास्पद थे हम लोगों के लिए। हम पर भरोसा पूरे दल का था, जिसे हम दोनाें पूरा करके दिखाया। शहीद साथियों के ख्वाब कैसे पूरे हों, इसके लिए कुछ करना ही होगा, कुछ इस तरह की बातें तो अक्सर ही होती थीं।


प्रसिद्ध क्रांतिकारी डॉ.गया प्रसाद के बेटे क्रांति कुमार बताते हैं कि मुझे भी कुछ वक्त बटुकेश्वर दत्त के साथ रहने का मौका मिला, जब एक बार भारत सरकार ने काला पानी की सजा पाने वाले क्रांतिकारियों को आजादी के बाद अंडमान की सेल्युलर जेल सैर पर भेजा। मैं उनके व्यक्तित्व को देखकर यह भांपने की कोशिश करता रहा कि कितने साहसी होंगे ये क्रांतिकारी कि सत्ता के केंद्र में बम फेंककर भी कभी नहीं घबराए और उनका जीवन क्रांति की सेवा में गया। अपने पिता से भी उनके बारे में काफी कुछ सुना, विरले होते हैं ऐसे लोग। भारती दीदी से कुछ अरसे पहले भेंट ने सभी यादों को ताजा कर दिया।

 


 

भारती दीदी अपनी बुआ प्रमिला देवी से सुना वह किस्सा बताती हैं कि किस फितरत ने पिता बटुकेश्वर दत्त को क्रांतिकारी बना दिया।

”बचपन में जब वे स्कूल जाते थे तो अपने खाने का टिफिन रास्ते में एक असहाय को रोजाना दे देते। जाड़े के दिनों में एक बार जब टिफिन लेकर पहुंचे तो वह असहाय ठंड से मर चुका था। घर लौटकर वे बहुत रोए। घरवाले समझ नहीं पा रहे थे कि किसलिए इतना सुबक रहे हैं। आखिर में काफी समझाने-बुझाने पर बटुकेश्वर दत्त ने बहन प्रमिला को बात बताई। फिर वह गरीब, गरीबी, उनके उपाय के बारे में गहराई से जानने को पढ़ने लगे। विवेकानंद, अरबिंदो और तिलक के लिखे लेखों या वक्तव्यों ने उनका रुझान क्रांति की दिशा में बढ़ा दिया।”


”क्रांतिकारी दल के संपर्क में आकर जो हुआ, वह पूरी दुनिया जानती है। मुझे लगता है कि गरीब-असहायों के लिए करुणा क्रांतिकारी हाेने की पहली शर्त है। यह गुण हर क्रांतिकारी में दिखाई देता है। तभी वे वैकल्पिक दुनिया के निर्माण का ख्वाब बुन पाते हैं, जिसमें गरीब-असहाय जनता न हो, हर ओर खुशहाली हो।”

-भारती दत्त बागची


‘आज भी सरकार से क्या शिकायत की जाए, कितना दोष गिनाया जाए। हम जब खुद ही करप्ट हैं। ऐसा भी नहीं है कि आजादी के बाद कोई विकास नहीं हुआ है। मेरे पास तमाम कम उम्र के बच्चे आते हैं यही सब जानने को, मैं उन्हें वही बताने की कोशिश करती हूं, जो मेरे पिता ने मुझे बताया-सिखाया…नैतिकता, करुणा, अनुशासन, लक्ष्य, क्रांतिकारियों का देखा खुशहाली का ख्वाब। हमें उम्मीद करना चाहिए कि भविष्य खूबसूरत होगा, खूबसूरत भविष्य बनाने वाले हमेशा बने रहेंगे’, भारती दीदी ने बातचीत के आखिर में यह कहा।

 बम का दर्शन- क्रांतिकारियों का वह लेख जो महात्मा गांधी के लेख के जवाब में लिखा गया

क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त की जिंदगी

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर, 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला-नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। उनका बचपन जन्म स्थान के अलावा बंगाल प्रांत के वर्धमान जिले के खंडा और मौसु में बीता। स्नातक शिक्षा पीपीएन कॉलेज कानपुर में हुई और 1924 में कानपुर में ही उनकी भगत सिंह से भेंट हुई, जिसके बाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल हो गए।

8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान का संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बिना किसी को नुकसान पहुंचाए पर्चे फेंककर क्रांतिकारी मकसद को प्रचारित किया। उस दिन ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।

इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 12 जून, 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड्यंत्र केस चलाया गया।

साइमन कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों के इशारे पर सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेजी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। जिस पर लाहौर षड्यंत्र केस चला और भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दे दी गई।

वहीं, बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केंद्रीय कारागार पटना में लाए गए और 1938 में रिहा हुए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए।

आजादी के बाद नवंबर, 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव बिहार विधान परिषद ने 1963 में प्राप्त किया। उनका निधन 20 जुलाई, 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुआ। उनका दाह संस्कार उनके अन्य क्रांतिकारी साथियों-भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल के पास पंजाब के हुसैनी वाला में किया गया।


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