द लीडर : फिलवक़्त, मुसलमान भारत के स्थायी विपक्ष हैं. सड़क से लेकर संसद तक. उनकी ही आवाज़ है, जो गूंज रही है. भाजपा ने 80 बनाम 20 की लड़ाई छेड़कर अधिकारिक तौर उन्हें ये दर्ज़ा दे दिया है. इसलिए मुसलमानों के बूते कल तक जो पॉलिटिकल पार्टीज सत्ता की मलाई चाटा करती थीं. आज फड़फड़ाने लगी हैं. बसपा सुप्रिमों मायावती का दर्द भी ऐसा ही है. (Muslim Opposition UP Election)
यूपी चुनाव में 72 सीटों पर बसपा की ज़मानत ज़ब्त हो गई. उमा शंकर सिंह-इकलौते बसपा विधायक बने हैं. लेकिन मायावती हैं कि, अपनी हार का ठीकरा मुसलमानों के सिर फोड़ा दिया. इस दर्द के साथ कि मुसलमानों ने सपा को एकतरफा वोट देकर भारी भूल कर दी है. 2017 के चुनाव में सपा की हार पर यादव बंधुओं का भी कुछ इसी तरह का रिएक्शन था.
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 255 सीटें जीतकर भाजपा ने सत्ता में वापसी की है. समाजवादी पार्टी को 111 सीटें मिलीं. अखिलेश यादव की हार से मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा सदमे में हैं. तब, जब यूपी चुनाव में उसके मुद़्दों का कोई नामलेवा नहीं था.
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कर्नाटक के हिजाब विवाद से जुड़ा सवाल-रिपोर्टर के बार-बार पूछने पर, अखिलेश को सुनाई नहीं पड़ रहा था. इसलिए मुसलमानों को सदमे से उबरकर ख़ुश होना चाहिए. इस सच के साथ कि उन्होंने समाजवादी पार्टी के रूप में राज्य को एक ताक़तवर पॉलिटिकल अपोजिशन दिया है. जिसमें उसके समुदाय के 36 विधायक शामिल हैं. (Muslim Opposition UP Election)
अखिलेश यादव को मुसलमानों का विशेष धन्यवाद करना चाहिए. इस बात के लिए कि उन्होंने सपा की इज्ज़त बचा ली. 2017 में कांग्रेस हो 2019 में बसपा या फिर 2022 में आरएलडी समेत अन्य दलों के साथ सपा का गठबंधन. क्या हश्र हुआ. सब हाज़िर-नाज़िर है. हर बार मुस्लिम वोटरों के भरोसे ही सपा का सम्मान बचा है. वरना उसका हश्र भी बसपा जैसा ही नज़र आता. जबकि अखिलेश यादव ने इस चुनाव में मुसलमानों से पूरी तरह से मुंह फेरे रखा. ये उनकी राजनीतिक मज़बूरी भी थी.
लेकिन बदायूं में पूर्व मंत्री आबिद रज़ा का टिकट काटना राजनीतिक प्रतिशोध था. आबिद रज़ा आज़म ख़ान के बेहद क़रीबी हैं. ये जानकर उनका टिकट काटने का एकमात्र कारण पूर्व सांसद धर्मेंद्र यादव से आबिद का विवाद ही था. बहरहाल, सपा की हार के एक-दो नहीं, बल्कि कई और ठोस कारण हैं. अखिलेश यादव अपनी लीडरशिप में मिली चौथी हार के ठोस कारणों पर गंभीरता से आकलन कर भी रहे होंगे, या फिर करेंगे.
लेकिन चुनाव में भाजपा की प्रचंड जीत और सपा की करारी शिकस्त का मोटा-मोटा एनालिसिस सामने है. पश्चिमी यूपी, जो जाटलैंड भी है. यहां किसान आंदोलन का बड़ा असर था. इसलिए सपा ने राष्ट्रीय लोकदल (RLD)को 33 सीटें दीं. जिसमें आरएलडी को महज 8 सीटों पर जीत मिली है. 3 सीटों पर तो उसकी ज़मानत ज़ब्त हो गई. दूसरी तरफ किसानों ने थोक के भाव भाजपा में वोट डाला. (Muslim Opposition UP Election)
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मैनपुरी, इटावा, एटा, फिरोजाबाद, मथुरा, हाथरस, कासगंज, यादव बाहुल्य इलाकों की 59 में से 43 सीटों पर भाजपा जीती है. जबकि सपा 16 सीटों पर ही सिमट गई.
यूपी विधानसभा में क़रीब 19 प्रतिशत मुस्लिम वोट हैं. और 11 प्रतिशत यादव. एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 78 से 80 प्रतिशत मुसलमानों ने सपा को वोट दिया है. पश्चिमी यूपी, रुहेलखंड, पूर्वांचल की क़रीब तीन दर्ज़न सीटें ऐसी हैं-जहां मुस्लिम कैंडिडेट सिर्फ अपने समुदाय के वोट के दम पर जीत हासिल कर सकते हैं. जैसा कि 36 विधायक बने भी हैं. इसमें रामपुर, मुराबाद, संभल, अमरोहा, बरेली आदि ज़िले शामिल हैं.
यूपी की क़रीब 143 सीटों पर मुसललमानों का असर माना जाता है. दूसरी तरफ अखिलेश यादव की बिरादरी का बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ हो चुका है. ख़ुद उनकी भाभी अपर्णा यादव को ही ले लीजिए. जो भाजपा की जीत पर जश्न मना रही हैं. (Muslim Opposition UP Election)
वहीं, स्वामी प्रसाद मौर्य, ओम प्रकाश राजभर और दूसरे जिन नेताओं के सहारे सपा ने जीत का दम भरा था. उनका पूरा का पूरा वोट बैंक 2014 से ही भाजपा में विलय कर चुका है. फिर भी पार्टीज और नेता जातीय समीकरण पर इंजीनियर बनते फिरते हैं. जबकि इलोक्टोरल पॉलिटिक्स से जातियों का खेल ख़त्म करके, भाजपा दूसरे मिशन पर डट गई है.
एक सच ये भी है कि भाजपा के साथ क़दमताल करना, विपक्ष के हाल फिलहाल में तो विपक्ष के बस से बाहर है. भाजपा और उसके संगठनों की मेहनत को नज़रंदाज नहीं किया जा सकता. जो पूरे साल ज़मीन पर सक्रिय रहते हैं.
इसलिए यूपी 2022 का चुनाव महज पॉलिटिकल पार्टीज के लिए सेल्फ एनालिसिस का विषय भर नहीं है. बल्कि उनसे कहीं ज़्यादा अति-उत्साही मुसलमानों को ठहरकर सोचने-समझने की ज़रूरत है. जो लगातार राजनीति का शिकार बनते रहे हैं. यूपी चुनाव के दौरान वाराणसी की घटना ताजा सबक है. जहां ईवीएम पकड़े जाने के विरोध में मुसलमान झंडा उठाकर सड़क पर आ गए. (Muslim Opposition UP Election)
विवाद हुआ. तो अब 40 मुसलमानों के ख़िलाफ नामज़द केस दर्ज़ हुआ है. और 600 अज्ञात हैं. मतलब, अभी और भी फंसेंगे. इस तरह की एक नहीं, अनगिनत घटनाएं हैं. जहां ज़ज्बाती मुसलमान आगे आकर भाजपा से दुश्मनी मोल लेते हैं. इसी तरह का एक नेक्सस साइबर वर्ल्ड में है, जो भाजपा से नफरत के लिए मुसलमानों को अपनी खाद-बीज के रूप में इस्तेमाल करता रहता है. मेरा ख़्याल यही है कि यूपी चुनाव का रिज़ल्ट मुसलमानों को आत्मचिंतन का सबक देता है. स्थायी विपक्ष का अर्थ किसी पार्टी-संगठन से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है.