यूनानी चिकित्सा पद्धति-1 : अरब और ईरान का दखल

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डॉ खुर्शीद अहमद अंसारी-

जबसे मनुष्य धरती पर आया है, उसे अवश्य ही शारीरिक और मानसिक अवसादों और बीमारियों का सामना करना पड़ा है। जिसका वर्णन दुनिया के बहुधा धर्म ग्रंथों में विस्तार से मिल जाता है। मिथकों और परंपराओं से ये भी ज्ञात होता है कि 300 ईसा पूर्व तक रोग उसके कारण और निदान का संबंध देवी देवताओं का क्रोध अभिशाप या उनके अप्रसन्न होने को मुख्य कारण माना गया और उसका निदान भी बलि या उन्हें प्रसन्न किए जाने वाले यज्ञ पर ही आधारित था।

हिप्पोक्रेट्स जो निर्विवाद रूप में चिकित्सा पितामह माने जाते हैं, उनके दर्शन, तार्किकता और विवेकपूर्ण आख्यानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि बुकरात ने ही तार्किकता का प्रयोग चिकित्सा विज्ञान में करते हुए, कारण पर विस्तार से चर्चा ही नहीं की वरन उन कारकों द्वारा होने वाले रोगों के उपचार और निदान पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण इस्तेमाल किया।

कॉरपस हिप्पोक्रेटिकम की दरअसल 100 के लगभग पुस्तकें या मैगज़ीन मान लें, जिनके बारे में इतिहासकार शंकित हैं कि उन्हें बुकरात ने लिखा या उसके गुरुकुल के शिष्यों ने, लेकिन यह बात सत्य है कि कुछ किताबें उसने संक्रमण, संक्रामक रोगों के विषय और संदर्भ में विस्तार से व्यख्यायित कर लिखीं, जैसे एपिडेमिक I, एपिडेमिक III, ऑन एयर आदि। इससे यह सिद्ध होता है कि वह मलेरिया, तपेदिक, कॉलरा जैसी महामारी और संक्रामक रोगों के फैलने का कारण ख़राब हवा (दूषित वायु-mal+aeria) और दूषित पानी को ही मानता था।

दूसरा दार्शनिक और चिकित्सक और पादप विज्ञानी, दूसरी सदी ईस्वी में रोमन तबीब (चिकित्सक) गैलन (जलिनूस) है। जिसका अद्वितीय योगदान, चिकित्साशास्त्र के उद्भव और विकास में भुलाया जाना असंभव है। जिसने Miasma (दूषित वायु और जल से) होने वाले संक्रमण की विस्तार और तार्किकता के साथ चर्चा की है।

ईसा के जन्म के बाद एक बार पुनः धर्मान्धता और चर्च के पादरियों द्वारा सत्ता, उसकी नीतियों पर जब दख़ल बढ़ता गया तो उसके साथ ही चिकित्सा विज्ञान में फिर से जड़ता और शून्यता आ गई, जिससे चिकित्सा विज्ञान और दूसरे विज्ञान आधारित विषयों पर चिंतन और मनन समाप्त हो गया, जिसे “अंधेरे युग” यानी डार्क एजेज के नाम से याद किया जाता है।

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हज़रत मुहम्मद (SAW) के नए धर्म के प्रसार का यह आलम कि वो यूरोप के अधिकतर भागों में फैल चुका था, साथ ही साथ अंतरराष्ट्रीय संबंधों और ज्ञान दर्शन के आदान प्रदान के सिलसिले भी व्यापक स्तर पर इतिहास में देखे जाते हैं।

इस्लामी प्रभाव वाले राज्यों में धर्म की स्वतन्त्रा और धर्मनिरपेक्ष चरित्र स्थापित रखने के बाद साथ ही साथ विज्ञान, संगीत, गणित, चिकित्सा, ज्योतिष, अंतरिक्ष विज्ञान आदि पर काम करने के लिए दुनिया के हर देश के गुणी और ज्ञानियों को पूर्ण स्वतंत्रता के शोध की सुविधा ही नहीं उनके लिए सम्मान व सुविधा संपन्न जीवन सुनिश्चित किया गया।

ये सिलसिला ख़लीफ़ा मामूम और हारून रशीद तक निर्बाध चलता रहा जो इतिहास में निर्विवादित रूप में दर्ज है। 8वीं सदी ईस्वी से लेकर यह 16वीं सदी तक ज्ञान के पटल पर सर्वोच्च शिखर तक मौजूद रहा।

इतिहासकारों ने लिखा है कि हज़रत मुहम्मद (SAW) ने भी भारतीय मूल के विद्वानों और चिकित्सकों को बेहद ज्ञानी माना था और जटिल बीमारियों के लिए हारिष बिन कुल्दाह से इलाज कराने को कहा करते थे।

यही वो दौर है 8वीं ईसवीं से लेकर 16 ईसवीं तक, जिसमें मुसलमानों द्वारा चिकित्सा, विज्ञान, गणित, भौतिकी, खगोलविज्ञान आदि में अद्वितीय योगदान दिया गया। इसका उल्लेख पश्चिमी इतिहासकारों ने बहुत विस्तार से किया है, जिसमें कैमेरून, गोर्डन, जेरार्ड ऑफ क्रेमोना आदि को पढ़ा जा सकता है।

इसी काल में दुनिया की पहली यूनिवर्सिटी स्थापित की गई। “बैतल हिकमाह” इसी ज़माने में सबसे बड़ा हस्पताल इराक़ में बनवाया गया। लाइब्रेरी आदि स्थापित की गई, बिल्कुल उसी तरह जैसे भारतीय सभ्यता और उपमहाद्वीप में नालंदा और तक्षशिला को ईसापूर्व एक गौरवशाली इतिहास का पन्ना माना जाता है।

अगर पूर्वाग्रह ग्रस्तता से परे देखने और पढ़ने का प्रयास करेंगे तो बहुत कुछ ऐसा मिलेगा जिससे आप आश्चर्य चकित हो जाएं कि नायकों की तलाश में हम इतिहास को इतना छेड़ते और विकृत करते हैं कि घटना, कारण और नायक सब बदल जाता है।

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हम यह समझने का प्रयास करें कि यूनानी चिकित्सा जो अपने वर्तमान स्वरुप में जीवित है, उसका आधार, जन्म और विकासक्रम कैसे समझा जाए। अरबों और ईरानियों ने नई चिकित्सा पद्धति को बुक़रात, जालीनुस के चार तत्व, चार शरीर द्रव्य और चार प्रकृति को आधार बनाते हुए उसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण और शोध पर गहन अध्ययन किया।

ईरानियों या अरबों के एशिया में आने के बाद इसे ग्रीको-अरब चिकित्सा पद्धति कहा, क्योंकि ईरानियों और अरबों ने यूनानी (ग्रीस) दार्शनिकों, वैज्ञानिकों के अभूतपूर्व योगदान को कभी मलिन न होने दिया बल्कि उनको उचित स्थान देते हुए इस चिकित्सा पद्धति को यूनानी चिकित्सा पद्धति ही कहा, जो भारत मे हज़ारों साल से नागरिकों के रोग, निदान, चिकित्सा जैसी सुविधा सकुशल देती आ रही है।

दुर्भाग्य यह हुआ इतिहास के कालखंड में कि जहां से उद्भव हुआ इस चिकित्सा विज्ञान का चाहे यूनान हो या अरब व फ़ारस वहां अब इस चिकित्सा विज्ञान का अस्तित्व तक नहीं रहा, यहां तक कि उसके अवशेष भी नहीं रहे।

इस ऐतिहासिक परिदृश्य के साथ ही हम अगले भाग में कोरोना महामारी के संदर्भ को विश्व विख्यात अरबी वैज्ञानिकों विशेष कर इमाम राज़ी, शेख़ बू अली सीना, इब्न ए रुश्द, रब्बन तबरी का उल्लेख उनकी महामारी के संदर्भ में समझ, उसके बचाव और इलाज को संक्षेप में तो करेंगे ही, साथ ही भारतीय उपमहाद्वीप में आम जन की स्वस्थ्य जीवन रेखा यूनानी चिकित्सा पद्धति के मूल सिद्धांतों पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे।

(लेखक जामिया हमदर्द, नई दिल्ली में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं, ये उनके निजी विचार हैं)


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