शहीदे आजम भगत सिंह के व्यक्तित्व पर जिसकी छाप थी, उन करतार सिंह सराभा की आज 126वीं जयंती है। ब्रिटिश हुकूमत की बुनियाद हिला देने वाले करतार सिंह को अंग्रेजों ने महज 19 साल की उम्र में फांसी पर चढ़ा दिया। क्रांति के लिए कुर्बान की प्रेरणा और आजादी के लिए जीवन दांव पर लगाने की मिसाल करतार सिंह हमेशा ही भगत सिंह के मन में बसे रहे। जब उनकी बारी आई तो अपने आदर्श को जैसे सबसे सामने जीवित कर दिया।
भगत सिंह को अपने प्रेरणास्रोत करतार सिंह की लिखी एक गजल अक्सर गुनगुनाते थे-
“यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयां मेरा,
मैं बंदा हिंद वालों का हूं, है हिंदोस्तां मेरा;
मैं हिंदी ठेठ हिंदी जात हिंदी नाम हिंदी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा;
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूं,
यही बस इक पता मेरा यही नामो-निशां मेरा;
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूं चूम ऐ भारत!
कहां किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहां मेरा;
तेरी खिदमत में अय भारत! ये सर जाये ये जां जाये,
तो समझूंगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा।”
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करतार सिंह सराभा का जन्म पंजाब में लुधियाना के सराभा नामक गांव में 24 मई 1896 को हुआ था। पिता मंगल सिंह और माता साहिब कौर का साया बचपन में ही उठ गया था। माता-पिता के देहांत के दादा जी ने पालन-पोषण किया। प्रारंभिक शिक्षा गांव में और फिर लुधियाना में मालवा खालसा हाईस्कूल से आठवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। बाद की शिक्षा उन्होंने रिश्तेदार के पास उड़ीसा रहकर की।
प्रतिभा को देखते हुए उनके दादाजी ने उच्च शिक्षा के लिए उन्हें 1912 में अमेरिका भेजा। इसी दरम्यान एक भारतीय होने के कारण उनको गुलाम की नजर से देखा गया। कई गुलामों की तरह व्यवहार सहना पड़ा। किसी ने जब कहा, ‘क्योंकि तुम भारत देश से आये हो और भारत एक गुलाम देश है।’ तभी करतार सिंह उनके मन में क्रांति और आजादी का बीज पड़ गया।
अमेरिका और कनाडा में तमाम भारतीय रहते थे। सेन फ्रांसिस्को में ही वर्ष 1913 में गदर पार्टी की स्थापना सोहन सिंह भकना और लाला हरदयाल ने की थी। इस दल ने अमेरिका में शिक्षा ग्रहण करने आए छात्रों से संपर्क और उन्हें भारत की आजादी के लिए प्रेरित किया।
इसी समय 17 वर्ष की छोटी उम्र में करतार सिंह ने अपनी पढ़ाई छोड़कर गदर पार्टी की सक्रिय सदस्यता ग्रहण कर ली। वह गदर पत्रिका के गुरुमुखी भाषा के संपादक भी बन गए और बहुत ही अच्छे तरीके से अपने क्रांतिकारी लेखों और कविताओं के माध्यम से देश के नौजवानों को क्रांति के साथ जोड़ा।
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यह पत्रिका हिंदी, पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि भारतीय भाषाओं में छपती थी और विदेशों में रह रहे भारतीयों तक पहुंचाई जाती थी। गदर पार्टी का उद्देश्य था 1857 की क्रांति की तरह ही एक बार फिर ऐसी ही क्रांति के जरिए देश को अंग्रेजी हुकूमत से आजाद करवाना। गदर पार्टी इतनी बड़ी बन गई थी कि इसकी खबर इंग्लिश अखबारों में छपनी शुरू हो गई। कुछ सरकारी जासूस भी इस पार्टी में शामिल हो रहे थे।
जब ब्रिटिश हुकूमत वर्ष 1914 में शुरू हुए प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल था, जिसके चलते ब्रिटिश सेना और सरकारी तंत्र खुद को इस युद्ध में बचाने में लगा हुआ था। इस गदर पार्टी ने अपने लिए क्रांति करने का सुनहरा अवसर जानकर अपने पत्र में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का आह्वान कर दिया।
5 अगस्त 1914 को एक पत्र में इसकी जानकारी पार्टी के हर सदस्य को दी गई। 15 सितंबर 1914 को करतार सिंह अपने साथी सत्येन सेन और विष्णु गणेश पिंगले के साथ अमेरिका छोड़कर भारत रवाना हुए।
करतार सिंह कोलंबो के रास्ते नवंबर 1914 में कलकत्ता पहुंच गए। बनारस में उनकी मुलाकात रास बिहारी बोस से हुई, जिन्होंने करतार सिंह को पंजाब जाकर संगठित क्रांति शुरू करने को कहा। रास बिहारी बोस 25 जनवरी 1915 को अमृतसर आए और करतार सिंह व अन्य क्रांतिकारियों से सलाह कर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति शुरू करने का फैसला किया गया। इसके लिए ब्रिटिश सेना में काम कर रहे भारतीय सैनिकों की मदद से सैन्य-छावनियों पर कब्जा करने का निर्णय लिया गया।
21 फरवरी 1915 का दिन सारे भारत में क्रांति के लिए निश्चित किया गया। इसी बीच उन्होंने लुधियाना ज़िले में हथियान बनाने की एक छोटी सी फैक्टरी लगाई।
खुद करतार सिंह ने लाहौर छावनी के शस्त्र भंडार पर हमला करने का जिम्मा लिया। सारी तैयारियां पूरी हो गईं, लेकिन कृपाल सिंह नामक एक गद्दार पुलिस का मुखबिर बन गया और क्रांति की योजना को पुलिस के सामने रख दिया। पुलिस को इसकी खबर मिलते ही क्रांति से पहले 19 फरवरी को ही गदर पार्टी के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। भारतीय सैनिकों को छावनियों में शस्त्र-विहीन कर दिया गया। इसे अंग्रेजों ने ‘लाहौर षड्यंत्र’ का नाम दिया।
करतार सिंह सराभा यहां से बच कर निकलने में कामयाब रहे। लेकिन वे देश छोड़कर नहीं गए। उन्हें काबुल में मिलने के लिए कहा गया, लेकिन काबुल जाने की बजाय करतार सिंह अपने साथियों को छुड़वाने की योजना बना रहे थे। उनकी यह कोशिश नाकाम रही और उनको भी गिरफ्तार कर बाकी आंदोलनकारियों के साथ लाहौर जेल भेज दिया गया।
उन पर मुकदमा चलाया गया और ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की साजिश रचने के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई। अंग्रेजी हुकूमत ने 16 नवंबर 1915 को करतार सिंह सराभा को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी के तख्ते पर लटका दिया। उसी सेंट्रल जेल में 23 मार्च 1931 को भगत सिंह और उनके साथी राजगुरू व सुखदेव को फांसी दी गई।
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