‘द लीडर’ की टीम इस वक्त किसान आंदोलन की कवरेज के सिलसिले में दिल्ली के दौरे पर है। टीम आज सिंघु बॉर्डर पर है। शनिवार को टीकरी बॉर्डर पर टीम ने जायजा लिया।
यहां पुलिस ने जिस जगह बैरिकेडिंग करके रोका था, उसके लगभग ठीक पीछे मंच सजा है। यहां पहुंचने के लिए बराबर की बस्ती से होकर रास्ता है। इस रास्ते के हर मोड़ पर प्रदर्शन स्थल तक पहुंचने के लिए हाथ से लिखे बोर्ड लगा दिए गए हैं।
फिलहाल हम यहां की कुछ तस्वीरें दे रहे हैं, जो प्रदर्शन स्थल पर दिखाई दीं। इन तस्वीरों का अर्थ क्या है, ये हमने जानने की कोशिश की। आप भी जानें क्या है इन तस्वीरों में छुपा संदेश-
टीकरी बॉर्डर पर पुलिस तैनात है, लेकिन कोई तनाव नहीं है। हर कोई वहां से आ जा रहा है, पुलिस की रोकटोक नहीं है, न ही किसानों को उनसे मतलब है। हर वक्त झंडे-बिल्ले लगाए किसानों के जत्थों के आने जाने का सिलसिला चलता रहता है। पुलिस सिर्फ इतना ही कर रही है कि कोई बैरिकेडिंग की ओर से न जाए।
रोजाना की तरह मंच के सामने प्रदर्शनकारी जुटते हैं और सुबह से शाम ढलने तक नारे, गीत, भाषण से आसमान गूंजता रहता है। सभी आयु-वर्ग के महिलाओं पुरुषों की मौजूदगी और हर लिहाज से सुरक्षित वातावरण दिखाई दिया।
किसानों की अपनी सिक्योरिटी थी, जिनकी नजर संदिग्धों पर थी, विश्वसीनता जांच के बाद ही मीडियाकर्मी मंच के आसपास जा सकते हैं।
प्रदर्शनकारियों के नियंत्रण क्षेत्र में कोई भी सरकारी बंदोबस्त दिखाई नहीं दिया। यहां तक कि स्वास्थ्य सुविधा भी आंदोलनकारियों की ही है।
हमारी एक मेडिकल स्टोर पर नजर पड़ी, जहां दवा और सलाह तो थी ही, लेकिन हमदर्दी और संवेदनशीलता भी भरपूर दिखी।
किसानों के इस मेडिकल स्टोर पर नजर डालिए, यहां डायपर और सैनिटरी पैड भी रखे हैं। महिलाओं और बच्चों की मौजूदगी और उनकी जरूरत को समझना इसका सबूत है।
किसानों ने सफाई व्यवस्था, शौचालय और पेयजल का बंदोबस्त बेहतरीन तरीके से किया है। कूड़ा प्रबंधन भी वो खुद करते हैं। टैंकर से जोड़कर पानी सप्लाई का इंतजाम उन्होंने खुद ही किया है।
सोते कहां होंगे ये लाेग, ऐसा सवाल भी मन में आता है बाहर से देखने वालों को। पानी, बारिश से बचाव के इंतजाम के साथ टैंट और ट्रालियों को रिहायशी कमरों में ढाल दिया है। रोशनी भी है, बैट्री या सोलर पैनल से।
कपड़े धोने का बंदोबस्त तो सब जान ही चुके हैं। लेकिन ये इतनी ही बात नहीं है। इसमें कई लोग लगे हैं, वे मशीन के अलावा हाथों से भी रबड़ के दस्ताने पहनकर कपड़े खंगालने और निचोड़ने का काम कर रहे हैं। ठेलों में भरकर कपड़ों के ढेर आते रहते हैं।
महिलाएं जीजान से न सिर्फ आंदोलन में जुटी हैं, बल्कि नई पीढ़ी को जज्बे की वैचारिक खुराक दे रही हैं। नेतृत्व का भी हिस्सा हैं।
सर्द मौसम और शीतलहर से बचने को बड़े बुजुर्गों के पास आजमाए हुए नुस्खों की कमी नहीं होती। फिलहाल तो कोरोना से बचाव भी जरूरी है। इन बातों को ध्यान में रखकर इन महिलाओं ने खास जायकेदार काढ़ा तैयार किया है, जिसे पीकर गले और नाक की तकलीफ से लोगों को आराम मिल रहा है।
ये तख्तियां खुद ही आंदोलन के लक्ष्य काे बता रही हैं। ये बात हर जुबान पर है कि खेतीबाड़ी कारपोरेट के हवाले करने से किसान ही नहीं, उपभोग करने वाली आम जनता भी मुश्किलों से घिर जाएगी।
आंदोलन में जगह-जगह जनगीत और लोक संगीत की धुन लोगों का लगातार उत्साह लगातार बढ़ा रहे हैं।
शीतलहर और सरकार से बेनतीजा बातचीतों के बावजूद आंदोलनकारियों के जोश में कोई कमी नहीं है। जितने लोग जाते दिखते हैं, दोगुने आते दिखते हैं और दिनभर हौसलों की महफिल जमी रहती है।
ट्रॉली पर लगे इस बैनर को देखिए। इस पर आदिवासी समुदाय में भगवान माने जाने वाले क्रांतिकारी नायक बिरसा मुंडा की तस्वीर है। बिरसा मुंडा के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ एतिहासिक आंदोलन हुआ था। वे समाज में समानता और बराबरी के लिए आजीवन लड़कर शहीद हुए।
ट्राॅली से बने खेमे पर टंगी ये तस्वीर सबसे खास है। तस्वीर में भगत सिंह मक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘माँ’ देते दिख रहे हैं। भगत सिंह मजदूर-किसानों का राज चाहते थे। उन्होंने साफ कहा था कि गोरे की जगह काले पूंजीपतियों की सरकार आने भर से कुछ नहीं होगा, हमें आजादी की लड़ाई फिर लड़ना होगी।
जिस किताब को वे देते दिखाई दे रहे हैं, ये उपन्यास 1917 में रूस में हुई मजदूर वर्ग की क्रांति से कुछ पहले की है। इस उपन्यास ने रूसी क्रांति के लिए नौजवानों, मजदूरों, किसानों की फौज खड़ी करने में जो भूमिका निभाई, उसके चलते आज तक अमर है।
क्रांति ने सरकार को नहीं, पूरी व्यवस्था को बदल दिया था। एक ऐसी व्यवस्था अस्तित्व में आई, जिसने मुनाफे को केंद्र में रखकर विकास को नकार दिया। मेहनत, शांति, खुशहाली और साझी तरक्की का इतिहास रचा। रूसी क्रांति का प्राथमिक नारा ही रोटी और शांति था।
मौजूदा किसान आंदोलन में भी शांति और अनुशासन कोई भी देख सकता है। रोटी का सवाल यहां भी है।