मुगल सल्तनत का वह सिपाही, जिसे सब एक बेहतरीन कवि के तौर पर जानते हैं

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– राहुल सांकृत्यायन –

हिंदी के पहले युग में मुसलमान कवि सर्वेसर्वा थे, यह मंझन, कुतबनः जायसी की कृतियों से मालूम है। इनसे पहले मैथिली के विद्यापति और काशी के कबीर ही हिंदी गगन के चमकते नक्षत्र थे। फिर अकबर का समय आया जबकि हिन्दी कविता को बहुत आगे बढ़ने का मौका मिला।

इस युग में जहां सूर और तुलसी जैसे सूरज-चांद उदय हुए, वहां रहीम भी हमारी कविता के उन्नायक बने। उनकी हिंदी कविता कितनी चुभती हुई है, यह इसी से मालूम होता है कि उनके दोहे तुलसी की चौपाइयों की तरह लोगों के मुख पर चढ़े हुए हैं। उनके एक-एक दोहे में गागर में सागर की तरह गंभीर अर्थ और अनुभव भरा होता है। उनकी कविताओं में सांप्रदायिक संकीर्णता की गंध नहीं मिलती।

इतनी उदारता का कारण क्या है, इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। हम जानते हैं कि तीन वर्ष के रहीम 16 वर्ष के अकबर की छत्रछाया में पले थे- अकबर जिसने सांप्रदायिकता को अपने ही हृदय से नहीं, बल्कि देशवासियों के हृदय से उखाड़ फेंकना चाहा था। रहीम के पिता बैरम खान भी उसी तरह उदार थे।

शिया संप्रदाय ने ईरान में सांस्कृतिक उदारता का प्रसार किया और भारत में भी उसके विचार उदार रहे। जब बाप पर शिया होने का संदेह किया जाता था, तो बेटे पर क्यों न किया जाता जो कि अपनी उदारता में हिंदू-मुसलमान का भेद नहीं रखता था, हिंदुओं की भाषा में कविता करता, हिंदू कवियों को मुक्त हस्त होकर दान देता? लेकिन इस तरह के संदेह के शिकार उस समय और भी थे। अकबर के महामंत्री अबुलफजल, उनके बड़े भाई और अपने समय के अद्वितीय विद्वान फैजी को शिया कहा जाता था। दोनों के पिता मुबारक ने तो अपने उदार विचारों के कारण बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेली थीं।

बीच के थोड़े दिनों में सैयद, लोदी और सूर राजवंशों को छोड़ दिल्ली के मुसलमान शासक सभी तुर्क थे। गुलाम, खिलजी और तुगलक तीनों मध्य एशिया के तुर्क थे। और अंतिम मुगल राजवंश भी। तुर्कों के साथ इन राजवंशों का विशेष पक्षपात होना स्वाभाविक था। अन्तिम मस्लिम काल में तो चार राजनीतिक दलों की आपस में प्रतिद्वंदिता थी, जिनमें ईरानी दल के नेता मुर्शिदाबाद और लखनऊ के शिया नवाब थे। पठानों का एक अलग मजबूत दल था, जिनमें बंगशों और रुहेलों की प्रधानता थी।

तीसरा दल मुल्कियों का था, जिनके नेता सैयद बंधु थे। चौथा दल शाही समझा जाता था, इसे तूरानी कहते थे। तुर्को की मध्य-एशिया की भूमि को तुर्किस्तान और तूरान दोनों कहा जाता था। आरंभ में तूरानी दल सबसे जबर्दस्त था। बाबर-हुमायूं-अकबर-जहांगीर के समय इस दल की शक्ति बड़ी जबर्दस्त थी। तूरान (तुर्किस्तान) में कई तुर्क जातियां थीं। आज उनके ही प्रतिनिधि कज्जाक, किर्गिज, उज्बेक, तुर्कमान हैं।

बाबर और उसके वंशज आजकल के उज्बेकिस्तान से आए थे। उन्हें उज्बेक कहा जा सकता है– यदि भाषा और जात का ख्याल किया जाय।

लेकिन, मंगोल खान उज्बेक के वंशज शैबानी खान ने बाबर को मध्य एशिया से भगाया था, इसलिए वह उज्बेकों का नाम भी सुनने के लिए तैयार नहीं था। दरअसल, शबानी खानदान ने ही देश को उज्बेक नाम दिया। उससे पहले, बाबर के समय, वह अपने को चगताई कहते थे। चगताई महान विजेता चिगीज खान का पुत्र था। वह मंगोल था, जबकि उसकी प्रजा–वहां के लोग-तुर्क थे। जो भी हो, बाबर के वंशज और अनुयायी तुर्क, उसके पोते के समय भी, अपने को चगताई कहते थे। बैरम खां चगताई नहीं, बल्कि तुर्कमान तुर्क था। आजकल सोवियत मध्य-एशिया में तुर्कमानों का अलग गणराज्य है। भारत में तूरानी लोन तुर्कमान दल के अभिन्न अंग थे।

अंतिम मुगल-काल में तूरानी दल का मुखिया निजामुलमुल्क भी तुर्कमान था, जिसने हैदराबाद में अपने राज्य की स्थापना की।

बैरम के पूर्वज, तैमूर की विजयों में उसके सहायक थे और बड़े-बड़े पदों पर रह कर उन्होंने अपने स्वामी की सेवा की थी। कराकुलू तुर्कमानों के बहारल कबीले का अलीशकर, तैमूर की तरफ से हमदान का राज्यपाल था। इसी के वंश में शेरअली हुआ, जिसका पुत्र यारअली बाबर की सेवा में रहा। यारअली का पुत्र सैफ अली अफगानिस्तान में मुगलों की ओर से शासक था। उसका बेटा बैरम अभी छोटा ही था, जबकि बाप मर गया। वह हुमायूं का समवयस्क था।

अपनी योग्यता से उसने हुमायूं को, और पीछे उसके पिता बाबर को खुश किया। संगीत और साहित्य की चर्चा उसके खानदान में होती रहती थी। बैरम खां के यहां गवैयों और वादकों की बड़ी कदर थी। वह स्वयं अपनी मातृभाषा तुर्की और फारसी का कवि था। योग्यता के बारे में क्या कहना! हुमायूं के भारत को पुनः प्राप्त करने में बैरम का बड़ा हाथ था। हुमायूं के समय भी राजकाज को देखना बैरम के हाथ में था और अकबर के आरंभिक शासन में बैरम की कितनी चलती थी, इसे सभी जानते हैं।

बैरम की कई बीवियां थीं, जिनमें से एक हुमायूं की भांजी सलीमा भी थी। इससे यह भी मालूम होगा कि बैरम खां का संबंध शाही खानदान से था। कई बेगमों के रहने पर भी बैरम को संतान बहुत पीछे हुई। उसका बड़ा बेटा रहीम तो बाप के मरने से तीन ही वर्ष पहले पैदा हुआ था- और, शाहजादियों से नहीं। उसकी मां हसन खां मेवाती की भतीजी थी। वह उन्हीं मेव लोगों का सरदार था जो अब भी रोहतक-भरतपुर में बड़ी संख्या में रहते हैं। आरंभिक मुस्लिम शासन में हिंदू मेवों ने दिल्ली के शासकों के नाकों दम कर रखा था। पीछे वे सबके सब मुसलमान हो गए। हसन खां मेवाती की एक भतीजी (जमाल खां की बेटी) रहीम की मां थी, और मौसी अकबर की बेगमों में से थी।

अब्दुर्रहीम का जन्म लाहौर में सफर 14 तारीख, मंगलवार 17 दिसम्बर 1556 में हुआ। रहीम के जन्म से कुछ ही महीने पहले पानीपत में हेमू को हराकर मुगल राजवंश की नींव पड़ी थी।

बैरम खां तुर्कमान हुमायूं के पुनः दिल्ली के सिंहासन पर बैठने में सबसे बड़ा सहायक था, यह बतला आए हैं। अकबर गद्दी पर बैठने के समय 13 ही वर्ष का था। बैरम उसके बाप को भी अंगुली पर नचाता था, इसलिए बेटे को यदि दुधमुंहा बच्चा समझे, तो आश्चर्य क्या? लेकिन, अकबर बहुत दिनों तक दुधमुंहा बना रहने के लिए तैयार नहीं था। उसके 16-17 वर्ष का होते होते बैरम खां का सितारा डूबने लगा।

बैरम खां के सामने अकबर ने तीन प्रस्ताव रखे : या तो हमारे दरबारी बन कर रहो, या चंदेरी-कालपी के जिले के हाकिम बन जाओ, या फिर हज करने जाओ। खानखाना जिस जगह पहुंचा था, वहां से नीचे उतरने के लिए तैयार नहीं था, उसने हज करने जाना ही स्वीकार किया।

तीन वर्ष का अब्दुर्रहीम भी बाप के साथ था। गुजरात के किसी बंदरगाह से मक्का की तरफ जाने वाले जहाज को पकड़ना था। पठानों के साथ बैरम खां ने जिस तरह का बर्ताव किया था, उससे वे उसे क्षमा करने के लिए तैयार नहीं थे। पाटन में पहुंचने पर मुबारक खां लोहानी 30-40 पठानों के साथ उससे मुलाकात करने आया और हाथ मिलाने के बहाने बैरम खां की पीठ में तलवार घुसेड़ दी। खंजर आर-पार हो गया। फिर एक तलवार और सिर पर मार कर उसने वहीं उसे खतम कर दिया।

हत्यारे ने कहा-माछीवाड़ा में इसने मेरे बाप को मारा था, उसी का मैंने आज बदला लिया।

1567 में अब रहीम अनाथ हो गया। उसकी मां की एक बहन अकबर की बेगम थी। बैरम की हत्या की खबर अकबर तक पहुंची। उसे बहुत अफसोस हुआ। सलीमा सुल्तान बेगम अपने तीन वर्ष के बच्चे को लेकर किसी तरह अहमदाबाद पहुंची। दरबार में आने के सिवा कोई चारा नहीं था। चार महीने बाद, आगरा की ओर चलने का इंतजाम हुआ।

अकबर ने ढाढ़स बंधाते हुए अपने फरमान में लिखा कि मां-बेटे को अच्छी तरह दरबार में लाओ। यह फरमान उन्हें जालौर में मिला।

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आगरा पहुंचने पर शाही महलों में सलीमा बेगम को उतारा गया। अकबर ने रहीम के ऊपर कृपा दिखलाते हुए, उसकी मां को अपनी बीवी बनाया। जिस वक्त रहीम सामने लाया गया, तो अकबर ने आंसू बहाते हुए उसे गोद में उठा लिया। उसने लोगों से सख्त हिदायत की कि बच्चे के सामने कोई खानबाबा (बैरम खां) का जिक्र न करे। पूछे तो कह दे- खुदा के घर हज्ज करने गए।

इस प्रकार, 1567 में रहीम अकबर का पुत्र सा बन गया। अकबर उसे प्यार से ‘मिर्जा खान’ कह कर बुलाया करता था। रहीम का बाप साहित्य-संगीत-कला में प्रवीण पुरुष था। रहीम के विश्वासपात्र नौकरों और उसके परिवार का उसके निर्माण में बहुत हाथ था। अकबर भी उसकी शिक्षा-दीक्षा का बराबर ध्यान रखता था। तुर्की और फारसी रहीम की मातृभाषाएं थीं। मां के हरियाना की होने से हिंदी भी उसके लिए मातृभाषा जैसी थी। इन तीनों भाषाओं पर रहीम का अधिकार था। अरबी भी अच्छी तरह पढ़ता था। यद्यपि हिंदुस्तान में अरबी दरबारी जबान नहीं थी, पर धर्म और दर्शन के लिए उसका बहुत ऊंचा स्थान माना जाता था।

रहीम असाधारण सुंदर तरुण था। चित्रकार उसकी तस्वीरें उतारते थे, जिन्हें अमीर लोग अपनी बैठकों को सजाने के लिए लगाते थे। होश संभालते ही, रहीम का शायरों और कवियों, संगीतज्ञों और कलाकारों से संपर्क हुआ। लेकिन अकबर रहीम को कलाकार नहीं, सैनिक बनाना चाहता था। रहीम के जीवन का अधिकांश भाग सिपाही के तौर पर ही बीता।

अभी वह नौ वर्ष का ही था, जब अकबर ने उसे “मनअम खान” की उपाधि प्रदान की। 16 वर्ष की उमर (1573 ई.) में जब अकबर गुजरात विजय के लिए चला, तो रहीम सैनिक अफसर के तौर पर उसके साथ गया। इसी वक्त अकबर ने दो महीने की यात्रा सात दिन में पूरी की थी। 16 वर्ष के लड़के रहीम का अकबर के साथ जाना बतलाता है कि वह कितनी जीवट वाला था। 19 वर्ष की उमर (1576 ई.) में अकबर ने रहीम को गुजरात का राज्यपाल बनाया। मिर्जा खान नहीं चाहता था कि दूर रहे, लेकिन अकबर ने उसे मजबूर किया। रहीम ने इस छोटी उमर में भी अपनी योग्यता का परिचय दिया।

34 वर्ष की उमर (1591 ई.) में रहीम ने अकबर की आज्ञा से बाबर के आत्मचरित “तुज्क बाबरी” का फारसी में अनुवाद किया। बाबर हमारे यहां एक विजेता, योग्य शासक और सेनपति के तौर पर मशहूर है। लेकिन, मध्य-एशिया में उसे महान साहित्यकार माना जाता है- गद्य और पद्य दोनों में।

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अगले साल अकबर का चित्तौड़ के महाराणा से युद्ध हुआ। रहीम ने उसमें भाग लेकर पुनः अपनी योग्यता का परिचय दिया। अगले साल, 24 वर्ष की उमर (1581 ई.) में रहीम को रणथंभौर की जागीर मिली। 26 वर्ष की उमर (1583 ई.) में वह जहांगीर का अतालीक नियुक्त हुआ। अतालीक तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ गुरु और शिक्षक है। उस वक्त क्या मालूम था कि आज रहीम जिसका अतालीक बन रहा है, वही अपने अतालीक को अन्तिम जीवन में तड़पा डालेगा।

उसके गुजरात से अनुपस्थित रहने पर, वहां की बगावत ने फिर गंभीर रूप ने लिया। गुजरात में, जौनपुर की तरह, एक शाही खानदान कई पीढि़यों तक राज्य करता रहा था। दिल्ली से बाहर रहने वाले मुसलमान सुल्तानों की तरह गुजराती सुल्तान भी अपनी हिन्दू प्रजा को अपनी तरफ करने में बहुत समर्थ हुए। इसलिए उन्हें मुगलों के खिलाफ बगावत करने में सहायक मिल जाते थे।

दूसरों को इस काम में सफल न देख कर, 27 साल के रहीम को अकबर ने सेनापति बना कर भेजा और रहीम ने विजय प्राप्त की। अकबर ने रहीम को “खानखाना” की उपाधि प्रदान की। मध्य-एशिया में खान, राजा को कहते थे। यह मंगोल शब्द 1617 ई. तक इसी अर्थ में बराबर प्रचलित रहा। बुखारा की हकूमत में बादशाह को छोड़ कर कोई दूसरा अपने नाम के साथ खान नहीं लगा सकता था। हिंदुस्तान में उसका मूल्य जरूर कम होने लगा; लेकिन वह आज की हालत में नहीं पहुंचा था। खानखाना का अर्थ राजाधिराज है।

27 वर्ष की उमर में रहीम ने अपने बाप की इस उपाधि को भी प्राप्त किया। अबुलफजल और फैजी भीतर से शिया और बाहर से सुन्नी थे। बैरम खां की भी यही हालत रही थी। इस दृष्टि से भी रहीम अबुलफजल के बहुत नजदीक थे। अबुलफजल अकबर का प्रधानमंत्री ही नहीं था, बल्कि राजकाज में उसी की राय सर्वोपरि मानी जाती थी। रहीम के साथ अबुलफजल का बहुत स्नेह था।

34 वर्ष की उमर (1591 ई.) में रहीम ने अकबर की आज्ञा से बाबर के आत्मचरित “तुज्क बाबरी” का फारसी में अनुवाद किया। बाबर हमारे यहां एक विजेता, योग्य शासक और सेनापति के तौर पर मशहूर है। लेकिन, मध्य-एशिया में उसे महान साहित्यकार माना जाता है- गद्य और पद्य दोनों में। ”तुज्क बाबरी” चगताई तुर्की गद्य का महान ग्रंथ है। उस समय जिसे चगताई तुर्की कहते थे, आज उसी को उज्बेकी कहते हैं। उज्बेक स्कूलों और कालेजों में बाबर की कृतियां बड़े सम्मान के साथ पढ़ी जाती हैं।

उसी साल रहीम को जौनपुर की जागीर मिली। इस तरह, अब्दुर्रहीम को उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग से संपर्क में आने का मौका मिला। रहीम के बरघे पर अवधी-भोजपुरी का असर है।

अधिक दिनों तक रहीम का जौनपुर से संबंध नहीं रहा, और अगले ही साल उन्हें मुलतान की जागीर मिली। कंधार को ईरान ने मुगलों से छीन लिया था। अकबर चाहता था कि वह वहां जाये, इसीलिए रहीम को इस तरफ जागीर मिली। 37 वर्ष की उमर (1593 ई.) में रहीम ने अकबर के लिए कंधार को जीता।

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बादशाह, रहीम की जीतों को अपनी जीत समझता था। रहीम के साथ विशेष प्रेम का एक यह भी कारण रहा कि जहां अपने उत्तराधिकारी से विद्रोह का डर हो सकता था, वहां रहीम से इसकी कभी संभावना नहीं थी।

जहां सबसे ज्यादा खतरा और कठिनाई का सामना होता, वहां वह रहीम को भेजता। अहमदनगर को अकबर ने अपने राज्य में मिलाना चाहा। वीरां गना चांद बीबी से मुकाबला था। दूसरों के असफल होने पर, 36 वर्ष की उमर (1566 ई.) में रहीम को वहां भेजा गया। मुकाबला आसान नहीं था। पर रहीम भी असाधारण सेनापति थे। 5 फरवरी 1567 ई. को अहमदनगर पर उन्होंने विजय प्राप्त की। उसी साल उनकी बीवी महाबानु और प्रिय, पुत्र हैदरी की मृत्यु हो गई।

अकबर के शासन का वह अन्तिम वर्ष था, जब अकबर के पुत्र दानियाल का 1604 ई. में देहांत हुआ। दानियाल रहीम का दामाद था। दामाद का वियोग रहीम को 46 वर्ष की उमर तक पहुंचते ही सहना पड़ा। रहीम 50 साल के हो चुके थे, जबकि जहांगीर गद्दी पर बैठा।

अभी भी रहीम दक्षिण के सेनापति थे। 53 वर्ष की उमर (1608 ई.) में बूढ़े सेनापति को अहमदनगर में पहली हार खानी पड़ी। 56 वर्ष (1612 ई.) में उन्हें कन्नौज-कालपी की जागीर मिली। सोचा, बाकी जीवन शांति से बीतेगा। अगले ही साल उनकी पोती- शाहनवाज की बेटी का ब्याह शाहजहां से हुआ। जहांगीर के उत्तराधिकारी से पोती का ब्याह होना बड़ी प्रसन्नता की बात थी।

अगले साल रहीम का सबसे बड़ा बेटा एरज मर गया, उससे अगले साल दूसरा लड़का रहमान मदाद भी चल बसा। रहीम अपने पुत्रों की मृत्यु देखने के लिए दीर्घजीवी थे। जहांगीर, अपने बाप-दादों की तरह ही, चाहता था कि उसकी सल्तनत काबुल-कन्धार से और आगे बढ़े। इसलिए बीच में फिर से कन्धार का हाथ से निकल जाना उसे पसन्द नहीं आया। जहांगीर ने 1621 ई. में चाहा कि बूढ़ा सेनापति शाहजहां को लेकर फिर से कंधार को जीते। यदि वह उधर गए होते, तो शायद उनके जीवन के अंतिम वर्ष दूसरी तरह के होते। इसी बीच शाहजहां और उसके भाई शहरियार का झगड़ा हो गया। शहरियार नूरजहां के पहले पति की पुत्री से ब्याहा दामाद था, और शाहजहां सोतेला बेटा। जहांगीर शाहजहां को चाहता था, लेकिन नूरजहां के सामने जबान भी नहीं हिला सकता था।

धौलपुर की जागीर नूरजहां ने शहरियार को दिलवायी थी। वही जागीर गलती से शाहजहां को मिल गई। दोनों के अनुयायियों में खून-खराबे की नौबत आ गई। शाहजहां रहीम का पोता दामाद था, इसलिए इस बात को लेकर जहांगीर के साथ बूढ़े अतालीक का मनमुटाव हो गया।

इस मनमुटाव ने भीषण दुश्मनी का रूप ले लिया। जहांगीर ने रहीम के पुत्र दाराब का सिर काट कर भेंट के तौर पर यह कहलवाते भिजवाया कि- बादशाह ने आपके लिए खरबूजा इनायत किया है। 70 वर्ष के बूढ़े बाप ने रूमाल को हटाया, तो वहां अपने बेटे का सिर देखा।

किसी व्यक्ति पर जो अंतिम दर्जे की मुसीबत और जुल्म हो सकता है, रहीम ने उसे देख लिया। बादशाह चाहे कितना ही पश्चाताप करे, उससे क्या होता? रहीम ने इसी की कोशिश की थी कि बाप-बेटे में बिगाड़ न हो, और नतीजा उलटा हुआ। बेटे शाहजहां को कैद में भी रहना पड़ा, और जहांगीर ने तो उसका सर्वस्व हरण करके दाराब की वैसी मृत्यु का दृश्य दिखलाया। अब रहीम के अधिक दिन नहीं रह गए थे। उसी साल बादशाह ने रहीम के दिल के घाव को भरने की कोशिश की। फिर से उन्हें “खानखाना” की उपाधि दी, जागीर और पद भी पहले की तरह कर दिया। लेकिन, उससे क्या होता था?

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फरवरी 1627 ई. में रहीम ने दिल्ली में अपना शरीर छोड़ा।

हुमायूं के मकबरे के निकट उनका भी आलीशान मकबरा बना, जिसमें लाल पत्थर में संगमरमर की पच्चीकारियां थीं। 18वीं सदी के मध्य में सफदरजंग ने उसके संगमरमर को निकाल कर अपने नाम की इमारत में लगवाया। दिल्ली, रहीम को भूल गयी। एक बार तो जान पड़ा कि उनका मकबरा उनके नाम की तरह एक दिन नामशेष हो जाएगा। इतिहास ने रहीम को एक बड़े सेनापति, बड़े राजनीतिज्ञ और बड़े दानी के तौर पर ही याद किया है। वह ये तीनों थे, इसमें शक नहीं।

किंतु आज, या आगे भी, रहीम इनके कारण हमारे हृदयों में आसीन नहीं रहेंगे, बल्कि हिंदी के एक महान कवि के तौर पर ही अमर रहेंगे। दिल्ली के खुसरो ने फारसी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में स्थान प्राप्त किया, गालिब ने उर्दू के महान कवि का पद पाया। इन दोनों की कब्र सौ-डेढ़-सौ गज के ही अंतर पर हैं। गालिब की कब्र से सौ-डेढ़-सौ गज से ज्यादा दूर रहीम की समाधि नहीं है, इसे संयोग ही समझिए। खुसरो की कब्र उतनी ही बड़ी है, जितने में वह सोए हैं। गालिब की भी अभी दो साल पहले तक गुमनाम सैकड़ों कब्रों के बीच में एक कब्र थी, जिसे अब संगमरमर की छोटी-सी मढ़ी का रूप दे दिया गया है।

रहीम की कब्र अपनी आकृति और विशालता में हुमायूं के मकबरे की तरह है। वह सदियों से उपेक्षित रही, और लोगों ने उसे गिरने-पड़ने के लिए छोड़ दिया। दिल्ली बढ़ते-बढ़ते अब रहीम की समाधि के चारों ओर पहुंच गई। सौभाग्य से समाधि अपने आस-पास की दस-पंद्रह एकड़ भूमि के साथ अक्षुण्ण बनी रही।

रहीम हिंदी ही के नहीं, बल्कि फारसी के भी कवि थे, और सबसे बढ़ कर यह कि उन्होंने सैकड़ों फारसी कवियों को आश्रय दिया था। “मानित रहीमी”-एक हजार पृष्ठों से बड़ा ग्रंथ बंगाल एशियाटिक सोसायटी द्वारा प्रकाशित हुआ है। इसमें रहीम के कृपापात्र सैकड़ों फारसी कवियों को कृतियों को संग्रहीत किया गया है।

रहीम की हिन्दी कृतियां: 1-दोहावली, 2-बरवे नायिका-भेद 3-श्रृंगार सोरठा, 4-मदनाष्टक, 5-रास-पंचाध्यायी, 6-दम्पति-विलास।

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