पुण्यतिथि: फकीरों की तरह जिंदगी जीया मुगल बादशाह औरंगजेब

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विवाद में तो हर मुल्क के बादशाहों की बादशाहत रही है। मुगल बादशाह औरंगजेब भी उनमें शुमार है। अपने राजकाज में शरीयत को लागू करने, मंदिरों को तोड़ने, गीत-संगीत पर बंदिश से लेकर हिंदुओं पर जजिया कर थाेपने जैसी तमाम तोहमतों से औरंगजेब का चरित्र चित्रण होता है। इस बदनामी के बीच उसके हिस्से में दर्ज नेकनामी का चर्चा शायद ही होता हो। (Aurangzeb Life Like Fakirs)

पहली बात यह समझने की जरूरत है कि वह लाेकतंत्र का जमाना नहीं था, तो उस बादशाह से उम्मीद भी वैसी नहीं होना चाहिए। मध्ययुगीन बादशाहों में औरंगजेब भी एक था। इसी मध्ययुगीन व्यवस्था को तोड़कर ही आधुनिक युग ने जन्म लिया और लोकतंत्र का परचम लहराया।

शाहजहां और मुमताज़ महल की छठी औलाद अबुल मुज़फ़्फ़र मुहिउद्दीन मुहम्मद औरंगज़ेब आलमगीर 3 नवम्बर 1618 को पैदा हुआ। उसे मुगल सल्तनत की प्रजा ने शाही नाम औरंगज़ेब या आलमगीर दिया, जिसका मतलब विश्वविजेता होता है। उसका शासन 1658 से लेकर उसकी मौत होने तक चला।

यानी पर्याप्त वयस्क होने पर उसके हाथ में बादशाहत आई और फिर आखिरी सांस तक कोई उसे छू नहीं सका। उसने दक्षिण भारत में मुग़ल साम्राज्य को साढ़े बारह लाख वर्ग मील में फैलाया और 15 करोड़ लोगों पर हुकूमत की, जो तब दुनिया की लगभग एक चौथाई आबादी थी।

औरंगज़ेब के समय दक्षिण में मराठों का ज़ोर बहुत बढ़ गया था। उन्हें दबाने में शाही सेना को सफलता नहीं मिल रही थी। इसलिए सन 1683 में औरंगज़ेब खुद सेना लेकर दक्षिण गया। वह राजधानी से दूर अंतिम 25 वर्ष इसी अभियान में रहा। उसकी मौत अहमदनगर में 3 मार्च सन 1707 ईसवी में हो गई।

उसकी मौत के बाद ही मुगल सल्तनत के दिन ढलने शुरू हुए और फिर आधुनिक विश्व विजेता ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने सल्तनतकाल का अध्याय समाप्त कर दिया। (Aurangzeb Life Like Fakirs)

हिंदू विरोधी होने की छवि में कितना दम

मध्यकालीन भारत के मुस्लिम बादशाहों के बारे में एक बचकानी दलील दी जाती है कि उनमें से कोई भारतीय नहीं था। जबकि उस समय तक राष्ट्र की अवधारणा ने जन्म भी नहीं लिया था। उस दौर में जिसकी लाठी उसकी भैंस के अंदाज में राजाओं-बादशाहों का इलाकों पर कब्जा होता था, कब्जे की जगह ही साम्राज्य थे, जो घटते बढ़ते रहते थे।

ऐसे में औरंगजेब के हिंदुस्तानी होने पर शक कैसा! हां, वह मुगल खानदान में पैदा हुआ तो उसकी हैसियत भी ऊंची थी, जिसका मेल आम हिंदुस्तानी से नहीं हो सकता, वो हिंदू हो या मुसलमान। वह गुजरात के दाहोद में पैदा हुआ और शाही अंदाज में पला-बढ़ा। (Aurangzeb Life Like Fakirs)

औरंगजेब के बारे में आमतौर पर यह प्रचार है कि वह हिंदू धर्म का विरोधी था, लेकिन यह आधा सच है। तथ्यों पर रोशनी डालें तो दूसरा पहलू भी नजर आता है। मुगल शासकों द्वारा हिंदू मंदिर तोड़े जाने का मुद्दा भारत में ब्रिटिशों से आजादी के काफी अरसे बाद 1980-90 के गर्माया। जबकि औरंगजेब के दौर के तथ्यों में ऐसी जानकारी अमूमन नहीं मिलती। मुगलकाल खत्म होने के बाद भी नहीं लिखा गया, जब कथित जालिम बादशाह से डर का भी खतरा नहीं था।

औरंगजेब ने जितने मंदिर तुड़वाए, उससे कहीं ज्यादा बनवाए थे। विश्वप्रसिद्ध इतिहासकार रिचर्ड ईटन के अनुसार, मुगलकाल में मंदिर आमतौर पर निशाना तभी बने, उनमें विद्रोहियों को शरण मिली या वहां की मदद से बादशाह के खिलाफ साजिश रची गई। मंदिर तोड़ने का कोई धार्मिक मकसद नहीं रहा।

औरंगजेब भी सल्तनत के इसी नियम पर चला। इतिहासकार ईटन के मुताबिक, ”उसके शासनकाल में लगभग 15 मंदिर तोड़े गए, जिसके कारण राजनीतिक रहे। औरंगजेब ने दक्षिण भारत में कभी मंदिरों को निशाना नहीं बनाया जबकि ज्यादातर सेना लंबे अरसे तक यहीं तैनात थी। मथुरा का केशव राय मंदिर इसलिए तोड़ा कि मथुरा के जाटों ने सल्तनत के खिलाफ विद्रोह किया था।” (Aurangzeb Life Like Fakirs)

दूसरा पहलू यह भी है कि औरंगजेब ने वफादार हिंदुओं को तोहफे में मंदिरों का संरक्षण भी किया। किंग्स कॉलेज लंदन की इतिहासकार कैथरीन बटलर के अनुसार, ”औरंगजेब ने जितने मंदिर तोड़े, उससे ज्यादा बनवाए। बनारस का जंगम बाड़ी मठ, चित्रकूट का बालाजी मंदिर, इलाहाबाद का सोमेश्वरनाथ महादेव मंदिर और गुवाहाटी का उमानंद मंदिर जाने-पहचाने नाम हैं, जिनको औरंगजेब ने संरक्षित किया। उनके रखरखाव के लिए सैकड़ों बीघा जमीन और खजाने से धनराशि दी।”

सेना से लेकर प्रशासन तक हिंदुओं का दबदबा

औरंगजेब के प्रशासन में दूसरे मुगल बादशाह से ज्यादा हिंदू नियुक्त थे। इससे पहले किसी मुगल बादशाह के शासन में हिंदूओं को प्रशासन संभालने का इतना मौका नहीं मिला, यहां तक कि अकबर जैसे सुलेह-ए-कुल नीति अपनाने वाले अकबर के राज में भी नहीं। तथ्य बताते हैं कि शाहजहां के शासनकाल में फौज से लेकर प्रशासन तक हिंदू अफसर 24 फीसद थे, औरंगजेब के समय में यह तादाद 33 फीसदी तक हो गई।

फौज के ऊंचे पदों पर बड़ी संख्या राजपूत थे। यही कारण है कि मराठा और सिखों के खिलाफ युद्ध में मुगल सेना की कमान अक्सर राजपूत सेनापति के हाथ में रही। इतिहासकार यदुनाथ सरकार के अनुसार, ”एक समय खुद शिवाजी भी औरंगजेब की सेना में मनसबदार थे। वे दक्षिण भारत में मुगल सल्तनत के प्रमुख बनाए जाने वाले थे लेकिन औरंगजेब ने नियुक्ति को मंजूरी नहीं दी।” (Aurangzeb Life Like Fakirs)

पूरे मुगलकाल में ब्रज भाषा और उसके साहित्य को हमेशा संरक्षण मिला और यह परंपरा औरंगजेब ने भी जारी रखी। कोलंबिया यूनिवर्सिटी की इतिहासकार एलिसन बुश के अनुसार, ”औरंगजेब के दरबार में ब्रज को प्रोत्साहन देने वाला माहौल था। बादशाह के बेटे आजम शाह की ब्रज कविता में खासी दिलचस्पी थी। ब्रज साहित्य के महाकवि देव को उसने संरक्षण दिया। इसी भाषा के बड़े कवि वृंद औरंगजेब के प्रशासन में रहे।”

मुगलकाल में दरबार की आधिकारिक लेखन भाषा फारसी थी लेकिन औरंगजेब से पहले ही बादशाह से लेकर दरबारियों तक व्यवहारिक जबान हिंदी-उर्दू हो चुकी थी।

कुरान की हिदायतों को बनाया शासन की बुनियाद

जैसी प्राचीनकाल में सम्राट अशोक ने बौद्ध शिक्षा को राजकाज का आधार बनाया, उसी तरह औरंगज़ेब ने ‘क़ुरान’ की हिदायतों को अपने शासन की बुनियाद बनाया। ऐसा करने से कई कुप्रथाओं और टैक्स से आम लोगों को निजात मिली।

अपने शासन काल के 11 वर्ष में अकबर के दौर से जारी शौर्य प्रदर्शन के लिए अपनाया जाने वाला ‘झरोखा दर्शन’, 12वें वर्ष में अंधविश्वासी ‘तुलादान प्रथा’ पर प्रतिबंध लगा दिया। उसने शरीयत के खिलाफ वसूले जाने वाले लगभग 80 करों को समाप्त करवा दिया। इन्हीं में ‘आबवाब’ नाम से जाना जाने वाला ‘रायदारी’ यानी परिवहन कर और ‘पानडारी’ यानी चुंगी कर भी शामिल थे। (Aurangzeb Life Like Fakirs)

अकबर ने जजिया कर को समाप्त कर दिया था, लेकिन औरंगजेब के समय यह दोबारा लागू किया गया। जजिया आम करों से अलग था, जो गैर मुस्लिमों को चुकाना पड़ता था। इसके तीन स्तर थे और इसका निर्धारण संबंधित व्यक्ति की आमदनी से होता था। इस कर के कुछ अपवाद भी थे।

गरीब, बेरोजगार और शारीरिक रूप से अशक्त लोग इसके दायरे में नहीं आते थे। वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊपर आने वाले ब्राह्मण और सरकारी अधिकारी भी इससे बाहर थे।

मुसलमानों के ऊपर लगने वाला ऐसा ही धार्मिक कर जकात था, जो हर अमीर मुसलमान के लिए देना ज़रूरी था। मुसलमानों पर जुमेरात को कब्रिस्तानों में दीये मोमबत्ती जलाने पर भी बंदिश लगा दी।

इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए कि उस दौर में मराठों ने दक्षिण के एक बड़े हिस्से से मुगलों को बेदखल कर दिया था। उनकी कर व्यवस्था भी तकरीबन इसी तरह की थी। वे मुसलमानों से जकात वसूलते थे और हिंदू आबादी इस तरह की कर व्यवस्था से बाहर थी।

सती होने की कुप्रथा के बारे में कहा जाता है कि उस पर ब्रिटिश शासकों ने प्रतिबंध लगाया। यह सच है। दूसरा सच यह भी है कि औरंगजेब ने 1663 में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया था।

निजी इच्छा को नहीं बनाया सल्तनत की नीति

कैथरीन लिखती हैं, ”500 साल के पूरे मुगलकाल की तुलना में औरंगजेब के समय फारसी में संगीत पर सबसे ज्यादा टीका लिखी गईं। यह बात सही है कि अपने जीवन के अंतिम समय में औरंगजेब ज्यादा धार्मिक हो गया था और उसने गीत-संगीत से दूरी बना ली। लेकिन उसने निजी इच्छा को सल्तनत की आधिकारिक नीति नहीं बनाया।”

कैथरीन के अनुसार, बादशाह ने जिस दिन राजगद्दी संभाली थी, हर साल उस दिन उत्सव में खूब नाच-गाना चलता था। कुछ ध्रुपदों की रचना में औरंगजेब नाम है। कुछ तथ्य तो इस ओर भी इशारा करते हैं कि वह खुद संगीत का अच्छा जानकार था। मिरात-ए-आलम में बख्तावर खान ने लिखा है कि बादशाह को संगीत विशारदों जैसा ज्ञान था।

मुगल विद्वान फकीरुल्लाह ने राग दर्पण में औरंगजेब के पसंदीदा गायकों और वादकों के नाम दर्ज किए हैं। औरंगजेब को अपने बेटों में आजम शाह बहुत प्रिय था, जो औरंगजेब के समय में ही निपुण संगीतकार बन चुका था।

निजी जिंदगी में सादगी की मिसाल

मुगल बादशाह औरंगजेब निजी जिंदगी में सादगी की मिसाल था। यह बात न सिर्फ उसने जीते जी साबित की, बल्कि उसकी मौजूदा कब्र का आज तक कच्चा होना इसका जीता जागता सबूत है। वह नशा, अय्याशी, रुतबा दिखाने के प्रदर्शन जैसे दुर्गुणों से दूर रहा, जो एशिया के राजाओं में आम थे।

वह दरवेश की तरह जीता था। खाने-पीने, वेश-भूषा और जीवन की सुविधाओं में जरूरतभर का इस्तेमाल करता था। इतनी बड़ी सल्तनत का बादशाह होने जिम्मेदारी संभालने के साथ ही अपनी जरूरतों के लिए आमदनी को क़ुरान की नकल करता और टोपियां सीने का समय निकालता था।

मौत के बाद उसे फ़कीर बुरुहानुद्दीन की क़ब्र के अहाते में उसे दफनाया गया। बेशुमार दौलत वाले हिंदुस्तान की हुकूमत का बादशाह होने के बावजूद उसकी खुद की कब्र कैसी हो, इस पर उसने वसीयत की थी। वसीयत में लिखा था, ”कब्र कच्ची और सादा बनाई जाए।” यह कब्र औरंगाबाद जिले के खुलताबाद में मौजूद है।

औरंगजेब और शिवाजी के बीच तनाव पर बनी फिल्म ‘तान्हा जी: अ अनसंग वॉरियर’ पर वरिष्ठ पत्रकार त्रिभुवन की टिप्पणी वैचारिक मोतियाबिंद को दुरुस्त करने जैसी है। यह टिप्पणी उन्होंने 19 जनवरी 2020 को सोशल मीडिया पर लिखी, जो दरअसल फिल्म समीक्षा है।

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इस समीक्षा के ही एक हिस्से में वह लिखते हैं-

”अतीत इतिहास के पन्नों पर यथावत रहता है। फिल्म में भले काशी विश्वनाथ मंदिरों में मूर्ति भंजन की याद दिलाई गई हो, बार-बार भगवा लहराया गया हो, जय श्रीराम की चर्चा की हो, लेकिन क्या इतिहास का यह सच झुठलाया जा सकता है कि शिवाजी के लिए 700 पठान प्राणपण से लड़े थे? उनके शास्त्रागार का प्रमुख इब्राहीम खान था। शिवाजी के अंगरक्षक तक मुस्लिम रहे।

शिवाजी के बेटे शंभाजी के पुत्र यानी शिवाजी के पोते शाहू जी जिस समय औरंगजे़ब की जेल में रहे तो औरंगज़ेब की बेटी जीनत-उन-निसा बेगम ने उनका पुत्रवत ध्यान रखा और जमकर स्नेह लुटाया।

इतिहास की यह घटना एक अविश्वसनीय सच है कि औरंग़ज़ेब ने स्वयं अपने दो सरदारों सिंद्रखेड़ के जादव तथा कनखेड़ के सिंधिया की पुत्रियों से शाहू जी का विवाह अपनी उपस्थिति में दादा बनकर शाही शिविर में करवाया और शाहूजी को अकालकोप, इंद्रपुर और सूपा आदि की जागीरें दीं।

यही नहीं, शाहूजी को शादी के अवसर पर औरंगज़ेब ने शिवाजी की तलवार भवानी और बीजापुर के सेनापति अफ़ज़ल खां की तलवार भी भेंट की। भले यह कूटनीति के कारण औरंग़ज़ेब ने किया हो, लेकिन अगर यह कूटनीति भी थी तो यह कुटिल नहीं थी, बल्कि रश्क करने लायक दिलफ़रेब और सम्मोहक है।”


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