टिप्पणी/ दिनेश जुयाल
उत्तराखंड के कई पुराने मंत्री मानते हैं कि वे कद में, अनुभव में, उम्र में या वजन के हिसाब से नए सीएम से बहुत बड़े हैं। ये बात पक्की है कि नए मुख्यमंत्री ने अपनी कैबिनेट के रथ में इन्हें बैठाया तो रथ डोलेगा, झोंका भी खा सकता है। इस मुख्यमंत्री उत्पादक प्रदेश में कुछ सीएम की कुर्सी के छोटे से स्पर्श मात्र को हमेशा से आतुर हैं तो कुछ को लगता है रथ की रफ्तार और दिशा तो वही तय करेंगे।
मुख्यमंत्री रह चुके त्रिवेंद्र को मंत्री बनना कितना असहज लगेगा! ये क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ गाते हुए विरोधियों और विपक्षियों के हमले उन्हें परेशान करेंगे। उनके लिए एक स्वयंसेवक की तरह दिल्ली का तीर्थ शायद पहले से तय हो।
महाराज की अब कितनी फजीहत होगी? सर्वोच्च कुर्सी पर विराजने योग्य दिव्य व्यक्ति के लिए भी अब तो मंत्री का पद कतई अयोग्य है। ये दोनों तो सहज तीर्थ जाने को तैयार होंगें। हरिद्वार के विधायक, कुम्भ के नियंत्रक मुख्यमंत्री की आवाज और तीसरे नेत्र की तरह काम करने वाले, उनके हर पुण्य में भागीदार मदन कौशिक शिव रात्रि के शाही स्नान के दिन अपना धर्मक्षेत्र छोड़ दिल्ली में थे। इससे लगता है तीरथ के रथ में वह सहज नहीं होंगे, अपनी रुचि के स्थान पर नहीं होंगे। तीरथ तो कुम्भ के पीछे ही पड़ गए जबकि यह उनका क्षेत्र है। यह खुद में तीर्थ क्षेत्र है।
हरक भाई का विस्तारित कुनबा आम आदमी पार्टी की जड़ें जमा रहा है और उनका भी वहां बहुत दिनों से इंतज़ार हो रहा है। उनका विभाग खूब चर्चाओं में रहा है। क्या श्रीनगर के पुराने हरक भाई का लिहाज कर पाएंगे? राजनीति से उन्होंने इतने सालों में जो वैभव अर्जित किया उसकी हनक समझ पाएंगे?
एक खास वर्ग के अलावा बाकी को पसंद न करने वाले पांडेय जी को रथ में बनाये रहने के लिए किसका लिहाज होगा? कांग्रेसी गोत्र के बहुमत को खत्म करने के लिए भी कुछ को तो तीर्थ भेजना ही पड़ेगा। उनकी हाल के दिनों की भूमिका दिल्ली को पता है। सूची वहीं फाइनल हो रही है। वैसे भी चुनावी वर्ष में जम्प मारने का रिवाज है। फिलहाल 11 का आंकड़ा लेकर घूम रहे लोग अगर नये रथ में जगह न पा कर रूठ भी गए तो खतरा तो नहीं। वैसे पहले से ही 11 कम होते तो ये नौबत न आती।
और भी बहुतों के किस्से हैं। कुछ फाइलों में दबे होंगे। ये लंबे किस्से रहने देते हैं वरना बात यू पी के किसी पप्पू तक पहुंच जाएगी। शुक्र है कुछ लोग दिल्ली में रहते हैं। वो इस बार संकट में जो भी योगदान कर सकते थे कर गए। सुना एक को दिल्ली तीर्थ से मौन मंत्र मिल गया है।
अब छह साल का सपना है तो कुछ तो रथ सजाने में मेहनत करनी पड़ेगी। यूं रथ सजाने से हांकने तक में प्रदेश के मुख्यमंत्रियों की विवशता इस प्रदेश ने 21 साल देख ली है। एक तरफ दिल्ली के दायित्व और इधर संभावित मुख्यमंत्रियों की मिजाजपुर्सी के चक्कर में तीरथ के गुरु खंडूड़ी जी तक को अपना विजन रद्दी में डालना पड़ा था।
सब तो दिल्ली को करना है। मौका भी है, दस्तूर भी है , सबकी पोलपट्टी भी है। कांटो के ताज के साथ रथ तो बैठने लायक चाहिए ही।