दुनिया के 57 देशों के 1.81 करोड़ मुसलमानों का रहनुमा ओआइएसी, 55 साल बाद भी इतना कमज़ोर क्यों है

द लीडर : दुनिया के 57 मुस्लिम देशों का ऑग्रेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (OIC) जो 1967 की इजरायल-अरब जंग के चार साल बाद 1971 में वजूद में आया था. आज 55 साल बाद वो कितना असरदार है. उसकी हैसियत का अंदाज़ा इसी एक हकीक़त से लगा सकते हैं कि जिस फिलिस्तीन की मदद और रक्षा को केंद्र में रखकर ये कोऑपरेशन बना. उसकी निगरानी में फिलिस्तीन को बंटवारे में मिली 48 प्रतिशत ज़मीन का 36 प्रतिशत हिस्सा इज़राइल क़ब्जा चुका है. (Organization Of Islamic Cooperation)

संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) की पंचायत में 1948 में फिलिस्तीन दो टुकड़ों में बंट गया था. 48 प्रतिशत ज़मीन फिलिस्तीन और 44 फीसद ज़मीन इज़राइल के हिस्से में आई. जबकि येरुशलम को 8 प्रतिशत लैंड मिली. लेकिन आज की तारीख़ में फिलिस्तीन के पास महज 12 प्रतिशत लैंड बची है. इज़राइल लगातार उसकी ज़मीन क़ब्जाता जा रहा है. और फिलिस्तीनियों पर उसका ज़ुल्म जग-जाहिर है.

लेकिन ओआईसी की ये हालात है क्यों? इसकी एक वजह मुस्लिम देशों के व्यक्तिगत हित, राजशाही सिस्टम और अंदरूनी फसाद है. तो दूसरी, सऊदी अरब का ओईआइसी पर दबदबा.


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ओआईसी का सेंट्रल दफ़्तर सऊदी के जद्​दाह में है. सऊदी दुनिया भर के मुसलमानों की अकीदत का भी केंद्र है. इसलिए क्योंकि मुसलमानों के सबसे पवित्र स्थल मक्का और मदीना-दोनों सऊदी के शहर हैं. 57 देशों की 1.81 करोड़ मुस्लिम आबादी का रहनुमा या संरक्षक कहलाने वाले आईओएसी से शायद ही किसी को कोई सुरक्षा का एहसास हो. (Organization Of Islamic Cooperation)

ओआईसी के सदस्य ही एक-दूसरे के ख़िलाफ जंग के मैदान में है. ताज़ा मिसाल यमन है. सऊदी के नेतृत्व में यमन पर बमबारी और हमले जारी हैं. सीरिया में जंग के खौफ, दर्द और भूख के सिवाय कुछ भी नज़र नहीं आता. पूरा देश मलबे के ढेर में बदल चुका है.

उधर येरुशलम के शेख जर्राह में इज़राइल अमूमन हर रोज़ ज़ुल्म की हदें लांघता रहता है. शेख़ जर्राह में आबाद मुसलमानों के घरों पर कब्ज़े कर रहा है. लेकिन ओआईसी ख़ामोश है. पिछले साल मई 2021 में फिलिस्तीन पर इज़राइल के हमले में 220 से ज़्यादा फिलिस्तीन मारे गए थे. तब भी ओआईसी घुड़की तक ही सीमित रहा था.

फिलिस्तीन में इज़राइली सैनिकों के सामने अपना झंडा लिए बैठीं फिलिस्तीनी महिलाएं.

वरिष्ठ पत्रकार रिज़वान अपने एक वीडियो में कहते हैं कि मजहबी आधार पर बने इस संगठन से ज़्यादा उम्मीद ठीक नहीं. वेस्टर्न वर्ल्ड के सामने इसकी मुंह खोलने की भी हिम्मत नहीं है. (Organization Of Islamic Cooperation)

ओआईसी की नाक़ामी में अरब वर्ल्ड की राजशाही और सऊदी अरब के पर्सनल हित बड़े कारण माने जाते हैं. सऊदी का शाही खानदान, जो शासक भी है-अपनी ही सुरक्षा और ऐशो-आराम की ज़िंदगी में व्यस्त रहता है. दूसरा-60 सालों से अमेरिका ने सऊदी में अपना एयरबेस और मिलिट्री स्टेशन बनाए रखा है. हर टेक्निल सपोर्ट के लिए सऊदी अमेरिका का मुंह ताकता है.


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सुरक्षा और विदेश नीति के एक्सपर्ट सुशांत का मानना है कि, ओआईसी की नाक़ामी की सबसे बड़ी वजह इसके मेंबर, हर देश के व्यक्तिगत हित हैं. ये इकोनॉमिक भी हैं और डिप्लोमैटिक भी. तुर्की को ही देख लीजिए. इजराइल के साथ उसके गहरे ट्रेड रिलेशन हैं. जब इस्लाम से जुड़ा कोई मसला पैदा होता है तो वह कभी अपने डिप्लोमैट को इज़रायल से वापस बुला लेता है तो कभी बयानबाजी करके खामोशी अख़्तियार कर लेता है. इसी तरह सऊदी अरब और अमेरिका के स्ट्रैटेजिक रिलेशन्स हैं. तुर्की और इजराइल के बीच 2018 में आपसी कारोबार 6.2 बिलियन डॉलर था.

फिलिस्तीन के गाजा पट्टी की हालत देखें. तो यहां 20 लाख की मुस्लिम आबादी है. जो इज़राइल के हमलों से बर्बाद हो चुकी है. बुनियादी ज़रूरतें तक नहीं है. जबकि फिलिस्तीन के ख़िलाफ इज़राइल की बर्बरता को लेकर पूरी दुनिया उसकी अालोचना करती है. (Organization Of Islamic Cooperation)

23 नवंबर 2020 को ‘टाइम्स ऑफ इजराइल’ ने अपनी एक रिपोर्ट में दावा किया था कि-इजराइल के तत्कालीन प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू बड़े सऊदी की सीक्रेट यात्रा की थी. उनके साथ खुफिया एजेंसी मोसाद के चीफ योसी कोहेन भी थे. जहां सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मुहम्मद बिन सलमान (MBS) से मुलाकात की.

इस वक़्त यूक्रेन और रूस के बीच जंग छिड़ी है. यूक्रेन जिस नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑग्रेनाइजेशन (NATO)का सदस्य बनने को बेकरार था. वो भी यूक्रेन की ममद की हिम्मत नहीं जुटा पाया. नाटो 30 देशों का एक संगठन है, जिसमें 28 यूरोपियन और 2 नॉर्थ अमेरिकन कंट्रीज शामिल हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद स्थापित नाटो का मुख्यालय बेल्जियम के बेलारूस में है. इस तरह 30 देशों के बीच ये एक सैन्य करार है. अगर कोई बाहरी देश नाटो के किसी देश पर हमला करता है तो नाटो की सेना अपने सदस्य देश की सुरक्षा के लिए लड़ेगी.

कुछ ऐसी ही हालत संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO)की है. इसका गठन भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में हुआ था. आज 193 देश इसके सदस्य हैं. लेकिन दुनिया में शांति-सुरक्षा, न्याय और मानवाधिकारों को लेकर इसकी कितनी वकत है. इसका अंदाजा भी यूक्रेन, फिलिस्तीन, सीरिया, यमन या दूसरे उन देशों की हालत से लगाया जा सकता है, जो जंग या हिंसा प्रभावित हैं. (Organization Of Islamic Cooperation)


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Ateeq Khan

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