कोलंबो ने अप्रैल में कोविड पीड़ितों के दफनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय दलील दी गई कि कोविड मृतक के शरीर के वायरस शव को जला देने से वातावरण में नहीं पहुंचेंगे।
नियम की सख्ती से मजबूरन लोगों को धार्मिक रीति से दफन करने की जगह जलाने पड़े। श्रीलंका की आबादी का 10 प्रतिशत यानी लगभग 2 करोड़ 10 लाख मुसलमानों इस नियम पर नाराजगी जाहिर की थी।
नियम को लेकर तब शरीयत का हवाला देकर ऐतराज दर्ज भी कराया गया, लेकिन वैश्विक महामारी के शोर में उनकी आवाज का जोर नहीं चला। इसकी एक वजह यह भी रही कि श्रीलंका में मौजूदा सरकार के समर्थक बहुसंख्यक बौद्ध हैं, जिनकी परंपराओं में इस नियम से कोई दखल नहीं था।
बीते दिनों श्रीलंका के मुस्लिम समुदाय से जुड़े कुछ लोगों ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में शिकायत दर्ज कराई। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की यात्रा के बाद नीति को पिछले सप्ताह रद्द कर दिया गया। उन्होंने कोलंबो में मुसलमानों को धार्मिक रीति से दफनाने की परंपरा का सम्मान करने का आग्रह किया था।
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खान के कोलंबो दौरे से पहले फरवरी में 57 सदस्यीय इस्लामिक सहयोग संगठन ने जेनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में समान धार्मिक अधिकारों का हवाला देते हुए श्रीलंका की नीति की आलोचना की।
इसके बावजूद मंगलवार को फिर नई योजना सामने आ गई। श्रीलंकाई अधिकारियों ने देश के उत्तरी तट से 8.6 मील (13 किलोमीटर) दूर ईरानी टिवु के सुदूर छोटे से द्वीप पर वायरस पीड़ित मुस्लिम मृतकों को दफनाने का प्रस्ताव दिया, जिसने ऐतराज को आक्रोश में बदल दिया।
स्थानीय नेताओं के साथ-साथ मुस्लिम नेताओं की अगुवाई में बड़ी संख्या में लोग विरोध प्रदर्शनों के लिए सड़कों पर उतर आए।
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उन्होंने एक वर्ग किलोमीटर (0.4-वर्ग-मील) के द्वीप को महामारी के लिए “कब्रिस्तान” के रूप में इस्तेमाल की योजना के विरोध में बैनरों तख्तियों को लेकर प्रदर्शन किया।
बुधवार तक श्रीलंका में 483 मौतों के साथ अब तक 83 हजार से ज्यादा कोरोना वायरस संक्रमण के मामले दर्ज किए गए हैं।
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