‘दिलबर को वोट दीजिए, नब्ज़ शम्सुद्दीन को’, लखनऊ के एक चुनाव का रोचक किस्सा

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असग़र मेहंदी-

1917 में लखनऊ में पहली बार म्यूनिसिपैलिटी के चुनाव हुए। जिसमें सैयद नबीउल्लाह इसके चेयरमैन बने थे। (Interesting Election In Lucknow)

चौक के इलाक़े से कारपोरेटर के चुनाव के लिए लखनऊ की मशहूर तवायफ़, मौसीक़ी और गायकी की शान “दिलरुबा जान” ने पर्चा भरा तो उनके ख़िलाफ़ कोई खड़ा नहीं हो रहा था।

उन दिनों एक मशहूर तबीब थे, हकीम शम्सुद्दीन, चौक में उनका मतब था। वह बहुत सम्मानित और नेक नाम थे। सितम यह हुआ कि उनके दोस्तों ने उन्हें चुनाव में “दिलबर जान” के खिलाफ़ खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया।

चुनाव प्रचार ने जोर पकड़ लिया, दिलबर जान के चुनाव प्रचार में रौनक़ रहती, सर ए शाम चौक में पार्टियों का आयोजन होने लगा। अपने ज़माने की मशहूर तवायफ़ों और गायिकाओं ने इस मुहिम में हिस्सा लिया और दिलबर जान के प्रचार का जादू सर चढ़ने लगा। (Interesting Election In Lucknow)

कहते हैं कि जद्दन बाई (मशहूर अदाकारा नर्गिस की मां) ने भी एक रंगारंग महफ़िल सजाई थी। दिलबर जान के चुनाव प्रचार की सफलता के क़िस्से हकीम तक पहुंचते तो वह अपने दोस्तों पर और बिगड़ते कि उन्हें किस जंजाल में फंसा दिया।

हकीम साहब अपने दोस्तों से ग़ुस्से में कहते कि तुम लोगों ने मुझे मार डाला, मेरी हार तय है। लेकिन दोस्तों ने हार नहीं मानी’ और एक नारा दिया-

“है हिदायत चौक के हर वोटर ए शौक़ीन को

दिल दें दिलबर को और वोट शम्सुद्दीन को “

 

जवाब में दिलबर जान की तरफ़ से नारा आया-

“है हिदायत चौक के हर वोटर ए शौक़ीन को

दिलबर को वोट दीजिए, नब्ज़ शम्सुद्दीन को“

अब इसे हकीम साहब की ख़ुशक़िस्मती कहिए या लखनऊ के लोगों के शऊर और तहज़ीब की ग़ैरत का असर, हकीम साहब किसी तरह चुनाव जीत गए।

लखनऊ की तहज़ीब के मुताबिक़ दिलबर जान हकीम साहब को मुबारकबाद देने उनके दौलतकदे पर पहुंचीं। आदाब ओ तसलीम के बाद चुनाव के नतीजे और उसकी वजह पर बात निकल आई तो दिलबर जान ने कहा-

“हुज़ूर, जीत हार तो लगी रहती है, हमें कोई मलाल नहीं है, लेकिन मेरी हार और आपकी जीत ने एक बात साबित कर दी कि लखनऊ में मर्द कम और मरीज़ ज़्यादा हैं! (Interesting Election In Lucknow)

(लोकमाध्यम ब्लॉग के जरिए साभार)


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