मक्का की वह सदा, जो दिलों को जोड़ने में फ़ना हो गई

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    विजय शंकर सिंह-

मौलाना अबुल कलाम आजाद स्मृति दिवस

सबसे कठिन होता है धार्मिक कट्टरता और धर्मान्धता से उबल रहे समाज में, सेक्युलर सोच या सर्वधर्म समभाव के, सार्वभौम और सनातन मूल्यों को बचाये रखना, उन पर टिके रहना और उनके पक्ष में मुखरता से अपनी बात रखना। समाज जैसे जैसे धर्मांधता के पंक में धंसता जाता है, वह अपने हमअकीदा से भी यह उम्मीद करने लगता है कि वे भी उन्हीं की तरह कट्टरता की राह पर चल पड़ें और खुद को कट्टर धर्मांध कहने पर गर्व करें। तभी धार्मिक और आस्थावान लोगो में से ही कोई आगे आता है और अपनी आस्था के साथ-साथ एक बहुभाषी, बहुधार्मिक, बहसमाजी और विविधितापूर्ण समाज के लिए धर्मांधता के विरोध में चट्टान की तरह खड़ा हो जाता है। इतिहास धारा के विपरीत तैरने वालो को नहीं भूलता है। मौलाना अबुल कलाम आजाद भारत के इतिहास में ऐसे ही व्यक्ति थे। वे न नास्तिक थे, न निरीश्वरवादी। वे थे अपने धर्म में अपनी आत्मा की गहराई से आस्था रखने वाले, पर वे भारत के विचार, आइडिया ऑफ इंडिया के प्रबल पैरोकार थे। निजी धार्मिक आस्था और धर्मनिरपेक्षता में कोई बैर नहीं है और न ही कोई अंतर्विरोध है, यह मौलाना के व्यक्तित्व से सीखा जा सकता है। (Maulana Abul Kalam Azad)

मौलाना आजाद अपने धर्म के प्रति न केवल सजग थे, बल्कि वे एक प्रैक्टिसिंग मुस्लिम भी थे। पर जब देश के मुस्लिम समाज का बहुसंख्यक वर्ग, चौधरी रहमत अली के सुझाए आइडिया ऑफ पाकिस्तान, अल्लामा इकबाल के मुसलमानों के लिए एक अलग सांस्कृतिक परिवेश की धारणा और मुहम्मद अली जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद, जिसके अनुसार हिंदू और मुस्लिम दो अलग अलग कौम हैं, और वे साथ रह ही नहीं सकते हैं, के घातक सिद्धांत के मायावी जाल में लहालोट हो रहे थे, तब मौलाना आजाद, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ थे। महात्मा गांधी के सत्य, अहिंसा और सेक्युलर मूल्यों के साथ थे, पूरे जीवनकाल में जिन्नावादी दृष्टिकोण से अप्रभावित भी रहे। वे नेहरु, पटेल, आज़ाद की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति के एक मजबूत स्तंभ थे। (Maulana Abul Kalam Azad)

मौलाना आजाद, कांग्रेस कमेटी के न सिर्फ आजीवन सदस्य रहे बल्कि जब भारत के बंटवारे की बात चल रही थी तो वे कांग्रेस की तरफ से कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से एक प्रमुख वार्ताकार भी थे।

मौलाना आजाद अपने समाज की तरफ से भी अक्सर स्वाधीनता संग्राम के समय निंदित हुए। उनकी तरफ अंगुलियां उठीं और उनपर तंज कसे गए। एमए जिन्ना भारत विभाजन के दौरान कांग्रेस की तरफ से लगातार हो रही उनकी मौजदूगी पर न केवल असहज होते थे, बल्कि वे यह दिखाने की बराबर कोशिश भी करते रहते थे कि वे ही देश के मुसलमानों के एकमात्र रहनुमा हैं और उनकी पार्टी मुस्लिम लीग इस जमात की अकेली नुमाइंदा है। एमए जिन्ना मिजाज और परवरिश से नास्तिक थे, पर इस्लाम के नाम पर एक नए मुल्क के लिए वे बड़ी शिद्दत से लड़ रहे थे। और उन्होंने उस मक़सद को हासिल भी किया।

इतिहास की विडंबना देखिए। जब भारत और पाक का बंटा हुआ नक्शा उनके सामने रखा गया तो जिन्ना बौखला गए थे और नाराजगी भरे स्वर में कहा कि, मैंने ऐसे कीड़े खाए हुए पाकिस्तान की कल्पना नहीं की थी। अंग्रेजी का जो शब्द उन्होंने प्रयोग किया था, वह था, ‘Truncated and moth eaten Pakistan’। उन्ही के शब्दों में, ‘कीड़ा खाया पाकिस्तान’, विभाजन के फार्मूले के अनुसार उन्हें स्वीकार करना पड़ा। देश विभाजन की भयानक त्रासदी के बाद वे 11 अगस्त 1947 को अपने ही द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के विपरीत खड़े नजर आते है, जब वे कहते हैं-

You are free, You are free to go to your temples, you are free to go to your Mosques in this state of Pakistan. You may belong to any religion or caste or creed- That has nothing to do with the business of the State.

(आप आजाद हैं। आप अपने मंदिरों में जाने के लिए आजाद हैं। आप अपनी मस्जिदों में जाने के लिए आजाद हैं, आप किसी भी धर्म, जाति या नस्ल के हो सकते हैं, राज्य को इससे कोई सरोकार नहीं है।)

(11 अगस्त 1947 एमए जिन्ना का भाषण। आइडिया ऑफ पाकिस्तान, स्टीफेन फिलिप कोहेन )

यहीं, यह सवाल उठता है, जिन्ना ने क्या अपने निहित, राजनीतिक उद्देश्य के लिए धर्मांधता का चोला ओढ़ा था, या गांधी के बढ़ते कद से उनका ईगो आहत हुआ था और वे मुस्लिम समाज की राजनीति की ओर बढ़ गए थे? या कीड़े खाए पाकिस्तान ने उसका हृदय परिवर्तन कर दिया था? अक्सर जिन्ना के पक्ष में उनके इस भाषण को उद्धरित किया जाता है, पर अपने कायदे आज़म के इस भाषण पर पाकिस्तान अमूमन कायदे से नहीं चला।

दूसरी तरफ, पर मौलाना आजाद का चरित्र यह प्रमाणित करता है कि अपनी धार्मिक आस्था के साथ मजबूती से जुड़े रहकर भी एक बहुलतावादी समाज के सर्वधर्म समभाव या सेक्युलर मूल्यों के साथ जुड़े रहा जा सकता है। यही खूबसूरत अंदाज़ मौलाना अबुल कलाम आजाद को देश के इतिहास में अलग मुकाम पर रखता है।

मौलाना आजाद के पिता मोहम्मद खैरुदीन एक बंगाली मौलाना थे, जो इस्लामी धर्मशास्त्र के बड़े विद्वान थे। उनकी माता अरब के मोहम्मद जाहरवागी की बेटी थीं, जो मदीना में एक मौलवी थे। मौलाना खैरूदीन आपने परिवार के साथ बंगाल में रहते थे, लेकिन 1857 के समय हुए विप्लव में उन्हें भारत छोड़कर अरब जाना पड़ गया।

मौलाना आजाद का जन्म मक्का में ही हुआ। जब वह दो साल के थे, तब 1890 में उनका परिवार वापस भारत आ गया और कलकत्ता में दोबारा बस गया। उर्दू अरबी तथा फारसी भाषाओं का ज्ञान उन्होंने बाल्यकाल में ही अर्जित कर लिया और इसी के सहारे से वे इस्लाम के धर्म ग्रंथों, इतिहास, अन्य शास्त्रों सहित कई विषयों के विद्वान हो गए थे। यूरोपीय दर्शन का भी गहन अध्ययन उन्होंने किया था। उनकी पहचान उच्च कोटि के विद्वान लेखक और श्रेष्ठ वक्ता के रूप में होने लगी थी। (Maulana Abul Kalam Azad)

उनका जन्म परंपरागत धार्मिक परिवार में हुआ था लेकिन वह खुद प्रगतिशील विचारधारा के थे। एक बार इस्लाम के कठमुल्लापन और प्रगतिशील बुद्धिवाद के द्वंद्व ने उनका रुझान नास्तिकता की ओर कर दिया था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उनका धार्मिक दृष्टिकोण नई ऊर्जा में तब्दील हो गया। यही ऊर्जा उनके सामाजिक, धार्मिक एवम् राजनीतिक विचारों का वाहक बनी। कट्टरपन उनके स्वभाव से दूर रहा और वे समन्वयवादी विचारधारा को लेकर भारतीय राजनीति में प्रतिष्ठित हुए।

उन्होंने प्रगतिशील विचार अपनाकर हिंदू मुस्लिम एकता के प्रचार से राष्ट्रीयता के निर्माण में योगदान देने की कोशिश की। 1923 में मौलाना आजाद कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। इतनी कम उम्र में पहली बार किसी नेता को यह पद मिला था। इसके बाद उन्होंनेे दिल्ली में एकता सम्मेलन किया और खिलाफत और स्वराजी के बीच मतभेद कम करने की कोशिश की।

1928 में मौलाना आजाद किसी बात पर मुस्लिम लीग के खिलाफ खड़े हो गए और उनका साथ मोतीलाल नेहरू ने दिया। 1930 में महात्मा गांधी के साथ नमक कानून तोड़ो आंदोलन में वे गिरफ्तार हुए और 1934 में जेल से रिहाई मिली।

1940 में मौलाना आजाद को रामगढ़ सेशन में इंडियन नेशनल कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। जहां उन्होंने द्विराष्ट्रवाद और धर्म के आधार पर देश के बंटवारे की मांग की आलोचना कर विरोध किया, भारत की सांप्रदायिक एकता की भी बात कही। वे 1946 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। (Maulana Abul Kalam Azad)

भारत की आजादी के बाद मौलाना ने भारत के नई संविधान सभा के लिए कांग्रेस की तरफ से चुनाव लड़ा। जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने मौलाना आजाद को उनकी पहली कैबिनेट में 1947 से 1955 तक शिक्षा मंत्री बनाया। 22 फरवरी 1958 को हृदयाघात के कारण मौलाना आजाद का निधन हो गया। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की शुरुआत मौलाना आजाद ने ही की है।

इतिहासकार डॉ ताराचंद उनका मूल्यांकन इन शब्दों में करते हैं,

‘मौलाना अबुल कलाम आजाद की विचारधारा वाली मुसलमानों की एक विशाल संख्या में विभाजन के समय भारत को ही अपना राष्ट्र माना, जबकि इस्लामी सांप्रदायिकता के नफरतजन्य तमाम आतंकपूर्ण आचरण के भय ने पाकितानी क्षेत्र में रह रही अधिकांश गैर मुस्लिम जनता को भारत आने के लिए विवश कर दिया।

भारतीय मुसलमानों को मौलाना आजाद की विचारधारा का सम्बल लेकर राजनीतिक राष्ट्रवाद के पैरों पर खड़े होना अधिक हितकारी एवम् सुरक्षात्मक उपाय लगा और उन्होंने भारत को ही अपना राष्ट्र तहेदिल से स्वीकार किया।’

( ताराचंद हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट इन इंडिया vol III P-267)

मौलाना आजाद का लेखन

1. तर्जुमा अल कुरआन

तर्जुमा अल कुरान एक धार्मिक किताब है। मौलाना एक हाफिज थे। कुरआन उन्हें हिफ़्ज़ थी। यह किताब कुरआन की टीका भी है और कुरआन का विद्वतापूर्ण अनुवाद भी। 253 पृष्ठों की इस पुस्तक में धार्मिक चर्चाएं की गई हैं। यह उनका अराजनीतिक लेखन है। सीमित पाठक संख्या और धार्मिक स्वरूप के कारण उनकी यह किताब इस्लाम में रूचि और विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय तो रही पर सामान्य पाठक समाज इससे प्रभावित नहीं हुआ।

2. अल हिलाल

यह उनकी दूसरी पुस्तक है। अल हिलाल पत्रिका में लिखे गए लेखों का यह संकलन है, जिसे अली अशरफ ने किया है, और उन्होंने इसका अनुवाद उर्दू से अंग्रेजी में करके इसे प्रकाशित किया है, जो 974 पृष्ठों की है। इस पुस्तक का प्रकाशन इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टॉरिकल रिसर्च ने किया है। वह समय स्वाधीनता संग्राम के प्रारंभ का काल था। इन लेखों में मौलाना के शुरुआती राजनीतिक विचारधारा का संकेत मिलता है। (Maulana Abul Kalam Azad)

3. गुब्बार ए खातिर

मौलाना द्वारा लिखी किताबों में गुबार ए खातिर एक अलग तरह की पुस्तक है। इस किताब में मौलाना आजाद द्वारा वर्ष 1942 से 1946 तक के लिखे गए उनके विभिन्न पत्रों का संकलन है और यही वह अवधि थी, जब वे महाराष्ट्र के अहमदनगर किले की जेल में बंद थे। यह गिरफ्तारी तब हुई, जब ये बंबई में कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने के लिए गए थे। 8 अगस्त 1942 को स्वालिया टैंक मैदान में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा की थी और करो या मरो का नारा दिया था। इसी सभा के बाद कांग्रेस के सभी पहली पंक्ति के नेता ब्रिटिश राज द्वारा बंदी बना लिए गए और उन्हें अहमदनगर किले की जेल में रखा गया। यह पत्र उसी अवधि के हैं।

इस पुस्तक में 24 पत्रों का संग्रह है, जो मौलाना आजाद ने अपने अभिन्न मित्र मौलाना हदीबुर्रहमान खान शेरवानी को लिखे थे। यह पत्र कभी भी भेजे नहीं जा सके थे। जब वे वर्ष 1946 में जेल से रिहा हुए तो उन्होंने इन पत्रों को अपने सचिव मोहम्मद अजमल खान को प्रकाशित करने के लिए दिया था। यह संकलन 1948 में गुब्बार ए खातिर के नाम से प्रकाशित हुआ। इसी का अंग्रेजी में अनुवाद सैलिस ऑफ माइंड के रूप में जीआर गोयल द्वारा किया गया है। मौलाना का यह आध्यात्मिक स्वरूप था जो उनके राजनीतिक स्वरूप से उन्हें अलग करता है। यह किताब उर्दू में लिखी गई थी और 1946 के संस्करण में इसकी 250 प्रतियां छापी गई थीं। (Maulana Abul Kalam Azad)

4. इंडिया विंस फ्रीडम

चौथी और मौलाना की सबसे चर्चित और लोकप्रिय पुस्तक है इंडिया फ्रीडम। भारत की आजादी और विभाजन पर लगभग हर शोधार्थी ने इस पुस्तक में दिए गए अनेक अंशों का उपयोग किया है। भारत विभाजन पर डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा लिखी गई पुस्तक गिल्टी मैन ऑफ इंडिया पार्टीशन (भारत विभाजन के दोषी) और लेखक द्वय लैरी कॉलिन्स और डोमिनिक ला पियरे द्वारा लिखी गई बेहद तथ्यपूर्ण पुस्तक फ्रीडम ऐट मिडनाइट (आधी रात आई आजादी) में मौलाना आजाद की इस किताब का एक प्राथमिक स्त्रोत के रूप में उपयोग किया गया है।

मौलाना ने यह किताब बेहद ईमानदारी से लिखी है। मौलाना 1923 में कांग्रेस अध्यक्ष होने के बाद गांधीजी के निकट तो रहे ही थे पर उन्हें जवाहरलाल नेहरू का भी करीबी समझा जाता था। लेकिन भारत विभाजन में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका की उन्होंने आलोचना भी की है। मौलाना मन और मस्तिष्क दोनों से ही सेक्यूलर मूल्यों के प्रति समर्पित थे और अंतिम दम तक यह चाहते थे कि देश ना बंटे, लेकिन मौलाना इतने सक्षम भी नहीं कि वह इस दुखद त्रासदी को अकेले रोक लेते।

(लेखक स्वतंत्र ब्लॉगर और रिटायर्ड आईपीएस हैं। यह उनके निजी विचार हैं)

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