जोश मलिहाबादी, जिन्हें एक नज्म की वजह से हैदराबाद रियासत से निकाल दिया गया

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-स्मृति दिवस-


जोश मलिहाबादी, जिनका वास्तविक नाम शब्बीर हसन खां था, बीसवीं शताब्दी के महान शायरों में एक थे। पांच दिसंबर 1898 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत और मौजूदा उत्तरप्रदेश के मलिहाबाद में जन्मे और 1948 तक भारत में रहे। फिर आखिरी सांस तक, 22 फरवरी 1982 तक पाकिस्तान में ही रहे। उन्होंने गज़लें और नज्में तखल्लुस जोश नाम से लिखीं और ताउम्र जन्मभूमि मलिहाबाद को उसमें जोड़े रखा। (Josh Malihabadi Nazm)

जोश सेंट पीटर्स कॉलेज आगरा में पढ़े और 1914 में वरिष्ठ कैंब्रिज परीक्षा पास की। साथ ही साथ अरबी और फारसी का अध्ययन भी करते रहे। छह महीने रविंद्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय शांतिनिकेतन में भी रहे। लेकिन 1916 में पिता बशीर अहमद खान का निधन होने से आगे पढ़ाई जारी नहीं रख सके।

1925 में जोश ने हैदराबाद रियासत के उस्मानिया विश्वविद्यालय में अनुवाद निगरानी की नौकरी की, लेकिन ज्यादा दिन हैदराबाद में नहीं रह पाए। इसकी वजह थी उनकी नज्म, जो उन्होंने रियासत के नवाब के खिलाफ लिख दी। लिहाजा उन्हें रियासत से निकाल दिया गया। (Josh Malihabadi Nazm)

इसके तुरंत बाद जोश ने पत्रिका कलीम (वार्ताकार) शुरू की, जिसमें उन्होंने खुले तौर पर भारत में ब्रिटिश राज से आजादी के पक्ष में लेख लिखे, इससे वे मशहूर हो गए और उन्हें शायर-ए-इंकलाब कहा जाने लगा। चर्चित होने के बाद उनके रिश्ते कांग्रेस, खासतौर पर जवाहर लाल नेहरु से मजबूत हुए। भारत में ब्रिटिश शासन के समाप्त होने के बाद जोश आज-कल प्रकाशन के संपादक बन गए। (Josh Malihabadi Nazm)

जवाहर लाल नेहरु के मनाने पर भी जोश 1948 में पकिस्तान चले गए। उनका सोचना था कि भारत एक हिंदू राष्ट्र है, जहां हिंदी भाषा को ज्यादा तवज्जो दी जाएगी न कि उर्दू को, लिहाजा उर्दू का भारत में कोई भविष्य नहीं है।

पकिस्तान जाने के बाद जोश ने मौलवी अब्दुल हक के साथ ‘अंजुमन-ए-तरक्की-ए-उर्दू’ के लिए काम किया। फैज़ अहमद फैज़ और सय्यद फखरुद्दीन बल्ले उनके करीबी रहे और दोनों सज्जाद हैदर खरोश (जोश के बेटे) और जोश के मित्र थे।

जोश उर्दू साहित्य में उर्दू पर अधिपत्य और उर्दू व्याकरण के सर्वोत्तम उपयोग के लिए जाने जाते हैं। उनका पहला शायरी संग्रह सन 1921 में प्रकाशित हुआ, जिसमें शोला-ओ-शबनम, जुनून-ओ-हिकमत, फ़िक्र-ओ-निशात, सुंबल-ओ-सलासल, हर्फ़-ओ-हिकायत, सरोद-ओ-खरोश और इरफ़ानियत-ए-जोश शामिल है। फिल्म डायरेक्टर डब्ल्यू जेड अहमद की राय पर शालीमार पिक्चर्स के लिए गीत भी लिखे, इस दौरान आप पुणे में रहे। यादों की बारात शीर्षक ने उन्होंने आत्मकथा लिखी है। (Josh Malihabadi Nazm)


ये दिन बहार के

ये दिन बहार के अब के भी रास न आ सके

कि ग़ुंचे खिल तो सके खिल के मुस्कुरा न सके

मेरी तबाही दिल पर तो रहम खा न सकी

जो रोशनी में रहे रोशनी को पा न सके

न जाने आह! कि उन आंसुओं पे क्या गुज़री

जो दिल से आंख तक आए मिश्गां तक आ न सके

रहें ख़ुलूस-ए-मुहब्बत के हादसात जहां

मुझे तो क्या मेरे नक़्श-ए-क़दम मिटा न सके

करेंगे मर के बक़ा-ए-दवाम क्या हासिल

जो ज़िंदा रह के मुक़ाम-ए-हयात पा न सके

नया ज़माना बनाने चले थे दीवाने

नई ज़मीं, नया आसमां बना न सके


इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में

इबादत करते हैं जो लोग जन्नत की तमन्ना में

इबादत तो नहीं है इक तरह की वो तिजारत है

जो डर के नार-ए-दोज़ख़ से ख़ुदा का नाम लेते हैं

इबादत क्या वो ख़ाली बुज़दिलाना एक ख़िदमत है

मगर जब शुक्र-ए-ने’मत में जबीं झुकती है बंदे की

वो सच्ची बंदगी है इक शरीफ़ाना इत’अत है

कुचल दे हसरतों को बेनियाज़-ए-मुद्दा हो जा

ख़ुदी को झाड़ दे दामन से मर्द-ए-बाख़ुदा हो जा

उठा लेती हैं लहरें तहनशीं होता है जब कोई

उभरना है तो ग़र्क़-ए-बह्र-ए-फ़ना हो जा


हिन्दोस्तां के वास्ते

मज़हबी इख़लाक़ के जज़्बे को ठुकराता है जो

आदमी को आदमी का गोश्त खिलवाता है जो

फर्ज़ भी कर लूं कि हिंदू हिंद की रुसवाई है

लेकिन इसको क्या करूं फिर भी वो मेरा भाई है

बाज़ आया मैं तो ऐसे मज़हबी ताऊन से

भाइयों का हाथ तर हो भाइयों के ख़ून से

तेरे लब पर है इराक़ो-शामो-मिस्रो-रोमो-चीं

लेकिन अपने ही वतन के नाम से वाकिफ़ नहीं

सबसे पहले मर्द बन हिंदोस्तां के वास्ते

हिंद जाग उट्ठे तो फिर सारे जहां के वास्ते


आसारे – इंक़िलाब

क़सम इस दिल की, चस्का है जिसे सहबापरस्ती का

यह दिल पहचानता है जो मिज़ाज अशियाए-हस्ती का

क़सम इन तेज़ किरनों की कि हंगामे-कदहनौशी

सुना करते हैं जो रातों को बहर-ओ-बर की सरगोशी

क़सम उस रूह की, ख़ू है जिसे फ़ितरतपरस्ती की

गिना करती है रातों को जो ज़र्बे क़ल्बे-हस्ती की

क़सम उस ज़ौक़ की हावी है जो आसारे-क़ुदरत पर

ज़मीरे-कायनात आईना है जिसकी लताफ़त पर

क़सम उस हिस की जो पहचान के तेवर हवाओं के

सुनाती है ख़बर तूफ़ान की तूफ़ान से पहले

क़सम उस नूर की कश्ती जो इन आंखों की खेता है

जो नक़्शे-पा के अंदर अज़्मे-रहरव देख लेता है

क़सम उस फ़िक्र की, सौगंद उस तख़इले-मोहकम की

जो सुनती है सदाएं जुम्बिशे-मिज़ग़ाने-आलम की

क़सम उस रूह की जो अर्श को रिफ़अत सिखाती है

कि रातों को मिरे कानों में यह आवाज़ आती है

उठो वह सुबह का ग़ुर्फा खुला ज़ंजीरे-शब टूटी

वह देखो पौ फटी, ग़ुंचे खिले, पहली किरन फूटी

उठो, चौंको, बढ़ो मुंह हाथ धो, आंखों को मल डालो

हवाए – इंक़िलाब आने को है हिन्दोस्तां वालो


इबादत

नगरी मेरी कब तक युंही बरबाद रहेगी

दुनिया यही दुनिया है तो क्या याद रहेगी

आकाश पे निखरा हुआ सूरज का है मुखड़ा

और धरती पे उतरे हुए चेहरों का है दुखड़ा

दुनिया यही दुनिया है तो क्या याद रहेगी

नगरी मेरी कब तक युंही बरबाद रहेगी

कब होगा सवेरा? कोई ऐ काश बता दे

किस वक़्त तक, ऐ घूमते आकाश, बता दे

इंसान पर इंसान की बेदाद रहेगी

नगरी मेरी कब तक युंही बरबाद रहेगी

चहकार से चिड़ियों की चमन गूंज रहा है

झरनों के मधुर गीत से बन गूंज रहा है

पर मेरा तो फ़रियाद से मन गूंज रहा है

कब तक मेरे होंठो पे ये फ़रियाद रहेगी

नगरी मेरी कब तक युंही बरबाद रहेगी

इश्रत का उधर नूर, इधर ग़म का अंधेरा

साग़र का उधर दौर, इधर ख़श्क ज़बां है

आफ़त का ये मंज़र है, क़यामत का समां है

आवाज़ दो इंसाफ़ को इंसाफ़ कहां है

रागों की कहीं गूंज, कहीं नाला-ओ-फ़रियाद

नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद

नगरी मेरी कब तक युंही बरबाद रहेगी

हर शै में चमकते हैं उधर लाख सितारे

हर आंख से बहते हैं इधर खून के धारे

हंसते हैं चमकते हैं उधर राजदुलारे

रोते हैं बिलखते हैं इधर दर्द के मारे

इक भूख से आज़ाद तो सौ भूख से नाशाद

नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद

नगरी मेरी कब तक युंही बरबाद रहेगी

ऐ चांद उमीदों को मेरी शमअ़ दिखा दे

डूबे हुए खोये हुए सूरज का पता दे

रोते हुए जुग बीत गया अब तो हंसा दे

ऐ मेरे हिमालय मुझे ये बात बता दे

होगी मेरी नगरी भी कभी ख़ैर से आज़ाद

नगरी मेरी बरबाद है बरबाद है बरबाद

नगरी मेरी कब तक युंही बरबाद रहेगी

दुनिया यही दुनिया है तो क्या याद रहेगी


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