मुकेश असीम
भारतीय समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन के बारे में विचार प्रक्रिया की बुनियाद रखने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले का स्त्री मुक्ति व जाति उन्मूलन, दो परस्पर गुंथे हुए सवाल, के संघर्ष में बेहद अहम योगदान है. लगभग 170 वर्ष पहले फुले दंपत्ति ने पुरातनपंथियों के भारी विरोध का सामना करते हुए बालिकाओं के लिए पहला विद्यालय खोला. विधवा विवाह का समर्थन, विधवाओं के बाल कटने से रोकने के लिए नाइयों की हड़ताल, बाल विवाह का निषेध, विधवाओं के बच्चों का पालन-पोषण जैसे अनेक कदमों से जोतीराव-सावित्रीबाई का स्त्री समानता, स्त्री स्वतन्त्रता का दृष्टिकोण उद्घाटित होता है.
सामाजिक परिर्वतन के लिए फुले ने सत्ता की बाट नहीं जोही. उपलब्ध साधनों से उन्होंने अपने संघर्ष की शुरुआत की. अपने वक्त के समाज की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करते हुए फुले ने शेटजी (व्यापारी) व भटजी (पुजारी) दोनों को दुश्मन के रूप में चिह्नित किया. 1870-80 के दशक में उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन व भारतीय ब्राह्मणवादियों के गठजोड़ को भी सामने रखा और कहा कि अंग्रेजी सत्ता में अधिकांश अधिकारी ब्राह्मण हैं और जो अधिकारी अंग्रेज हैं, उनकी हड्डी भी ब्राह्मणवादी ही है.
उन्होंने सबके लिए सार्वजनिक समान शिक्षा व्यवस्था की जरूरत पर बल दिया और इसके विरुद्ध नीति अपनाने पर औपनिवेशिक शासन का विरोध किया. हालांकि आज उनका नाम लेने, मूर्ति बनाने वाले दल इस सवाल को उठाना तो दूर, अपने शासन में सार्वजनिक शिक्षा के थोड़े-बहुत ढांचे की बर्बादी कर, शिक्षा के निजीकरण में भी कांग्रेस-बीजेपी से कतई पीछे नहीं.
1880 के दशक में कांग्रेस के गठन के वक्त भी उन्होंने यह सवाल खड़ा किया कि क्या इसमें शोषित-वंचित जनता के सवालों पर चर्चा होगी? उनकी नजर में यह भारत के पुराने व नवीन अभिजात वर्ग का आयोजन था, जो समाज के न्यायपूर्ण परिवर्तन के लिए नहीं, बल्कि आभिजात्य विशेषाधिकारों की हिफाजत के लिए एकत्र हो रहे थे.
आज जब फासीवादी, जातिप्रथा व पितृसत्ता के आधार पर व साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से दलितों, स्त्रियों व अल्पसंख्यकों पर हमले तीव्र कर रहे हैं, तब फुले को याद करने का विशेष औचित्य है. ब्राह्मणवाद व पूंजीवाद विरोधी संघर्ष को तेज करना ही उनको सच्ची तरह से याद करना होगा.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)