दूसरी क़लम: लेखक की बनाई दुनिया से मुठभेड़

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      दिनेश श्रीनेत-

सुशोभित की नई किताब ‘दूसरी कलम’ को पढ़ते हुए मन में बहुत से सवाल स्वाभाविक तौर पर उठते हैं। विश्व साहित्य और खासतौर पर पश्चिम से हिंदी समाज के रिश्तों पर ध्यान भी चला जाता है। ऐसे में सोचता हूं कि इन आलेखों का पाठक कौन है? इन दिनों के संदर्भहीन और कुपढ़ विमर्श में बड़े सवालों के लिए जगह कहां है, जिसके लिए हम विश्व साहित्य की धरोहर के पास जाते हैं। इस लिहाज से ‘दूसरी कलम’ के लेखक से ज्यादा साहसी इसके प्रकाशक को समझा जाना चाहिए। जिन्होंने इस बात पर भरोसा किया कि हिंदी के पाठकों की दिलचस्पी जरूर रिल्के की चिट्ठियों, काफ़्का के दार्शनिक खोजों व बैचैनियों, फ़ॉकनर की रचनात्मक यात्रा, बोर्ख़ेस की जटिल पहेलियों और ‘नोबकफ़ की तितलियों’ में होगी। (Doosri Qalam)

दरअसल इस दुविधा के साथ किताब पर चर्चा आरंभ करने की एक पृष्ठभूमि है। विश्व साहित्य के प्रति हिंदी समाज का रुख कई तरह की जटिलताओं और पूर्वग्रह से भरा है। या तो नेम ड्रॉपिंग का चलन है या खारिज करने का। जैसे इन सबके पीछे हिंदी समाज में कोई हीनताबोध की ग्रंथि काम करती है।

जिनका साहित्यिक संस्कार दुनिया के दूसरे देशों के साहित्य को पढ़कर विकसित हुआ है, उनके बारे में आसानी से यह मान लिया जाता है कि या तो वे अपने समाज की समझ नहीं रखते या फिर उनका लेखन बाहर लिखे जा रहे साहित्य की नकल या उससे प्रभावित है। ऐसे बहुत कम रचनाकार हैं जिन्होंने विश्व साहित्य को गहराई से अपने विमर्श का केंद्र बनाया है।

इस संदर्भ में मुझे सबसे उल्लेखनीय काम लगता है श्रीकांत वर्मा का। उनकी किताब ‘बीसवीं शताब्दी के अंधेरे’ में अपने समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। बतौर भारतीय लेखक उन्होंने यूरोपीय देशों की अपनी यात्रा, समकालीन साहित्य और लेखकों से एक प्रश्नाकुल मुठभेड़ की थी, वह इसे एक जीवंत दस्तावेज में बदल देती है। (Doosri Qalam)

इस किताब में नोबेल पुरस्कार विजेता कवि आक्तोवियो पॉज का एक साक्षात्कार याद आता है जो श्रीकांत वर्मा ने लिया था, जहां तक याद आता है इसमें पॉज ने नीरद सी चौधरी को दक्षिणपंथ का वाल्तेयर कहा था, उन्होंने कहा, “मुझे भारत में वामपंथ के वाल्तेयर की प्रतीक्षा है।”

फिर निर्मल वर्मा, जो अपनी बहुत सी रचनाओं और यात्राओं में पश्चिम के इतिहास और समाज से वहां के साहित्य के माध्यम से संवाद करते हैं। मगर निर्मल का मन पश्चिम की साहित्य संस्कृति सभ्यता से निर्मित हुआ है। यही वजह है कि उनकी यात्रा पश्चिम से वापस अपनी जड़ों की तरफ दिखती है।

निर्मल ने चेक तथा यूरोपीय लेखकों के कई बहुत अच्छे साक्षात्कार लिए हैं। निर्मल के बाद अशोक बाजपेयी, उदय प्रकाश, उदयन बाजपेयी, रमेशचंद्र शाह का पश्चिमी साहित्य संस्कृति का गहरा अध्ययन है। सबकी अपनी खूबियां हैं। आधुनिक विश्व कविता पर अशोक बाजपेयी की टिप्पणियां हिंदी के लिए बहुत अहम हैं। (Doosri Qalam)

जनसत्ता में ‘कभी-कभार’ के लिए लिखते हुए उन्होंने जाने कितनी नई किताबों और रचनाकारों से हिंदी पाठकों का परिचय कराया। वहीं उदय प्रकाश एक खास पर्सवेक्टिव में दुनिया-जहान में हो रही हलचलों को पकड़ते हैं। कहीं दुनिया के किसी कोने में कोई बहुत नया प्रयोग हो रहा हो तो बहुत संभव है कि उदय प्रकाश के पास उस कम से कम आधे घंटे बात करने लायक जानकारी मौजूद होगी। रमेशचंद्र शाह के लेखों में जिस तरह क्लासिक अंगरेजी साहित्य का विश्लेषण मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।

दुनिया के उत्कृष्ट साहित्य के प्रति अनुराग जितेंद्र भाटिया और अशोक पांडे में भी खूब दिखता है। अशोक पांडे का तो मैं निजी तौर पर शुक्रिया अदा करना चाहूंगा कि अपने कॅरियर के आरंभिक दौर में जब मैं अमर उजाला की साहित्यिक पत्रिका ‘आखर’ देखता था, तो उनकी सुंदर लिखावट में भेजे तमाम आलेखों के जरिए ही फर्नान्दो पैसोआ, मैक्सिकन लेखक लौरा एस्क्विवेल का उपन्यास ‘जैसे चॉकलेट के लिए पानी’ और मार्केज़ की आत्मकथा से परिचित हुआ।

बहरहाल, अब यह बात करें कि सुशोभित की किताब इस बहुत छोटी सी टूटी-बिखरी परंपरा में कहां जगह बनाती है? यहां कुछ लंबे आलेख हैं मगर बहुत सारे छोटे-छोटे नोट्स भी हैं। हर चर्चा के व्यापक संदर्भ हैं, जो पाठक से यह मांग करते हैं कि उसे विश्व साहित्य और आधुनिक दुनिया के इतिहास की एक बुनियादी समझ होनी चाहिए। इसके बिना न आलेख समझ में आएंगे और उनमें व्यक्त चिंताएं। (Doosri Qalam)

किताब की शुरुआत ‘रिल्के के ख़त’ से होती है। ‘दूसरी कलम’ का मिज़ाज भी कुछ कुछ चिट्ठियों जैसा है। यानी ‘थोड़े लिखे को ज्यादा समझना’। संकेतों से भरी हुई किताब जो किसी वृहत्तर संवाद की तरफ ले जाती हैं। सुंदर बात यह है कि ‘दूसरी कलम’ नेम ड्रॉपिंग का शिकार नहीं हुई है। करीब 13 लेखक ऐसे हैं जिन पर तबीयत से चर्चा हुई है। हर लेखक की बनाई हुई दुनिया से सुशोभित अपने निजी एकांत के साथ मुठभेड़ करते हैं।

यह मुठभेड़ कुछ सुंदर निष्पत्तियों की तरफ ले जाता है। दुनिया के लगातार छोटे होते जा रहे काफ़्का के रूपक पर सुशोभित लिखते हैं, “मैं सोचता हूँ दुनिया के लगातार छोटे हो जाने की घटना उस दिन शुरू हुई होगी, जिस दिन प्रमिथियस ने ईश्वर के रहस्यों को उजागर करने का अपराध किया था।

काफ़्का इस रहस्य को जानता है और उसने उस शिकंजे को देख लिया है, जो उसे जकड़ लेने वाला है।” या फिर दोस्तोएवस्की की चर्चा में, “सेल्फ के प्रति ज्यादा स्याह दृष्टिकोण काफ़्का से अधिक दोस्तोएवस्की के यहां है।” या मिलान कुंदेरा की ‘द बुक आफ लॉफ़्टर एंड फ़रगेटिंग’ को पढ़ते हुए फेल्लीनी की फिल्म ‘ला दोल्चे वीता’ की याद आना।

जब हम फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका या चेक साहित्य पढ़ते हैं और उसके बारे में लिखते हैं तो सबसे बड़ी बात उस अहम सूत्र की तलाश होती है, जिसकी वजह से अहम एक अलग भाषा और जमीन पर रची गई कहानी पर बात करना चाहते हैं। वह सूत्र कुछ शाश्वत प्रश्नों में होता है, जिसकी चर्चा ‘दूसरी कलम’ में फॉकनर, काफ़्का, दोस्तोएवस्की और कॉनराड के बहाने की गई है। तो कई बार हम इन रचनाकारों के माध्यम से अपने समय और इतिहास के सवालों से रू-ब-रू होते हैं। (Doosri Qalam)

सुशोभित जब इतालो कल्विनो, रोलां बार्थ, मार्केज़ पर चर्चा करते हैं तो कहने का उनका तरीका स्वतःस्फूर्त होता है। लिहाजा हर आलेख चाहे तो डेढ़ पन्ने का ही क्यों न हो, कुछ सवाल, कुछ प्रस्थान बिंदु, कुछ पुनर्विचार, विडंबनाएं या फिर कोई एक प्रस्थान बिंदु छोड़ जाता है। जहां से हम उस रचना की तरफ बढ़ सकते है या उसका पुनर्पाठ कर सकते हैं।

यह ऐसी आलोचनात्मक किताब से अलग है, जहां रचना, रचनाकार या उनसे जुड़े इतिहासबोध को किसी स्थापना में बांधने का प्रयास किया जाता है। यह दृष्टि ज्यादा खुली और मुक्त सी है। इससे सामान्य अभिरुचि के पाठकों को दिक्कत हो सकती है, जो किताब से विश्व साहित्य के बारे में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की उम्मीद में हों।

सुशोभित इन लेखों के माध्यम से एक खास तरह का भाव बोध एक माइंड सेट तैयार करते हैं और यही इसकी खूबी है। इसमें सिर्फ विमर्श नहीं है बल्कि एक कौतुक भी है। इन आलेखों को लिखने वाला पढ़ते वक्त उदास होता है, सोच में डूबता है और चकित भी होता है। (Doosri Qalam)

इसे पढ़ते हुए हम दुनिया में जो कुछ लिखा जा रहा है, उसके प्रति ज्यादा अनुरागी, ज्यादा सजग होते हैं। मैंने जैसा कि आरंभ में लिखा था, इसे लिखे जाने से ज्यादा साहस का काम इसे प्रकाशित करना है। इन दिनों जब सपाट विमर्श और तात्कालिक चर्चा हासिल करने वाले विषयों पर किताबें लाई जा रही हैं, दूसरे प्रकाशकों से अलग रुख पब्लिकेशंस के इस साहस को सराहा जाना चहिए।


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