Climate Change : क्या मानवीय गतिविधियां पृथ्वी की जलवायु को बदल रही हैं ?

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द लीडर। आजकल ‘क्लाइमेट चेंज’ विषय चर्चा में है। और हर कोई क्लाइमेट चेंज को लेकर अपनी राय तो दे ही रहा है। लेकिन कई बड़ी रिसर्च कंपनियों ने इसकी रिपोर्ट भी निकाली है। क्लाइमेट चेंज एक काफी गंभीर विषय है। जो आगे की चेतावनियों से हमें अलर्ट कर रहा है। भारत में मॉनसून सीजन के देरी से जाने के पीछे भी क्लाइमेट चेंज का ही असर है। ये हम नहीं कह रहे बल्कि जो रिपोर्ट सामने आई है उसमें ये कहा गया है। लेकिन एक बात और है कि, मानव गतिविधियों के चलते भी क्लाइमेट चेंज हो रहा है। या यूं कहे कि, मानव गतिविधियां पृथ्वी की जलवायु को बदल रही हैं। आइए जानते हैं कि, क्लाइमेट चेंज से देश और दुनिया में किस तरह के बदलाव देखने को मिले है इसके साथ ही जो रिपोर्ट सामने आई है वो क्लाइमेट चेंज को लेकर क्या कहती है?


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आपदा से भारत को 6,535 अरब रुपये का नुकसान

विश्व मौसम संगठन की एक नई रिपोर्ट सामने आई है। जिसमें पिछले कुछ सालों के दौरान मौसम में आए बदलाव और सभी प्राकृतिक आपदाओं को सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखा गया है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले साल चक्रवात, बाढ़ और सूखा जैसे प्राकृतिक आपदाओं की वजह से भारत को 6,535 अरब रुपये का नुकसान हुआ है। चीन को सबसे अधिक 238 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है। नुकसान के मामले में भारत 87 बिलियन डॉलर के साथ दूसरे स्थान और जापान 83 बिलियन डॉलर के साथ तीसरे स्थान पर रहा है।

पिछले साल एशिया ने रिकॉर्ड गर्मी देखी

रिपोर्ट में बताया गया है कि, पिछले साल एशिया ने रिकॉर्ड गर्मी देखी है। एशिया का औसत तापमान 1981-2010 की तुलना में 1.39 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है। दक्षिण और पूर्व एशिया में मानसून के असामान्य रूप से सक्रिय रहने के कारण कई देशों में भयंकर नुकसान हुआ है। अम्फान जैसे तूफान की वजह से भारत में 24 लाख और बांग्लादेश में 25 लाख विस्थापित होने को मजबूर हुए। चक्रवात, मानसून की बारिश और बाढ़ ने दक्षिण एशिया और पूर्वी एशिया में घनी आबादी वाले क्षेत्रों को प्रभावित किया है। पिछले साल भारत, चीन, बांग्लादेश, जापान, पाकिस्तान, नेपाल और वियतनाम में लाखों लोगों का विस्थापन हुआ है।


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WMO ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया है कि, एशिया में और उसके आसपास समुद्र की सतह का तापमान वैश्विक औसत से तीन गुना अधिक बढ़ रहा है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि, खाद्य सुरक्षा और पोषण पर प्रगति भी धीमी हो गई है। पिछले साल दक्षिण पूर्व एशिया में 48.8 मिलियन, दक्षिण एशिया में 305.7 मिलियन और पश्चिम एशिया में 42.3 मिलियन लोगों के कुपोषित होने का अनुमान है।

मानवीय गतिविधियों के कारण हो रहा जलवायु परिवर्तन

पिछले कुछ सालों के दौरान मौसम में आए बदलाव और सभी प्राकृतिक आपदाओं को सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन से जोड़कर देखा गया है। हालांकि, ज्यादातर शोध बताते हैं कि, जलवायु परिवर्तन किसी प्राकृतिक नियति का हिस्सा नहीं, बल्कि मानवीय गतिविधियों का ही नतीजा है। जलवायु परिवर्तन संबंधी 88,125 अध्ययनों के एक सर्वेक्षण में अब एक बार फिर यह स्पष्ट हो गया है कि, 99.9 फीसद से अधिक अध्ययनों ने जलवायु परिवर्तन को मानव जनित माना है। यह सर्वेक्षण मूल रूप से कार्नेल विश्वविद्यालय ने किया है जबकि भारत में इसे पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले गैर सरकारी संगठन क्लाइमेट ट्रेंडस ने साझा किया है।

19 अक्टूबर को एनवायरनमेंट रिसर्च नामक जर्नल में यह शोध ‘ग्रेटर देन 99 पर्सेट कन्सेंसस आन ह्यूमन कौज्ड क्लाइमेट चेंज इन द पियर रिव्यूड साइंटिफिक लिटरेचर’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। साल 2013 में, 1991 और 2012 के बीच प्रकाशित अध्ययनों पर हुए इसी तरह के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि, 97 फीसद अध्ययनों ने इस विचार का समर्थन किया कि, मानव गतिविधियां पृथ्वी की जलवायु को बदल रही हैं। वर्तमान सर्वेक्षण 2012 से नवंबर 2020 तक प्रकाशित सर्वेक्षण से पता चलता है कि यह आंकड़ा 97 फीसद से बढ़कर 99.9 फीसद हो गया है।


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कार्नेल विश्वविद्यालय के एलायंस फार साइंस के विजिटिंग फेलो एवं इस सर्वेक्षण के प्रमुख लेखक मार्क लिनास का कहना है, अब कोई संदेह नहीं रहा कि, 99 फीसद से अधिक शोध किस ओर इशारा कर रहे हैं। अब मानवजनित जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता के बारे में किसी भी चर्चा का कोई औचित्य नहीं बचा है। उनका यह भी कहना है कि जलवायु परिवर्तन में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की भूमिका को स्वीकार करना बेहद महत्वपूर्ण है। सच की स्वीकार्यता से ही समाधान की दिशा में नए विकल्प खोजे जा सकेंगे।

जलवायु परिवर्तन प्रकृत प्रदत्त नहीं है…

सिविल इंजीनियरिंग विभाग, आइआइटी कानपुर के प्रमुख प्रो. एस एन त्रिपाठी भी इस सच से इन्कार नहीं करते। वो कहते हैं कि, देश-दुनिया के कमोबेश सभी पर्यावरण विज्ञानी इस तथ्य को स्वीकार कर चुके हैं कि, जलवायु परिवर्तन प्रकृत प्रदत्त नहीं है। उन्होंने कहा कि, पेट्रोल, डीजल, कोयला और अन्य प्रतिबंधित ईंधनों का इतना ज्यादा इस्तेमाल हुआ है कि, कार्बन डाइआक्साइड परत के रूप में वातावरण एवं आकाश की ओर जम गई है। वह अगले 50 साल तक भी खत्म नहीं होने वाली, इसीलिए उसका असर ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के रूप में बढ़ता जा रहा है। पिछले दिनों आई आइपीसीसी (इंटरगर्वमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज) की रिपोर्ट में भी इसकी तस्दीक की जा चुकी है।

प्रो. एसएन त्रिपाठी के मुताबिक, स्थिति में सुधार के लिए ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन रोकना तो जरूरी है ही, वन क्षेत्र बढ़ाने सहित तमाम ऐसे उपाय भी करने होंगे जिनसे वातावरण में मौजूद हानिकारक गैसों को अवशोषित किया जा सके। आरती खोंसला (क्लाइमेट ट्रेंडस की प्रमुख) का कहना है कि, सर्वेक्षण में शोधकर्ताओं ने 2012 और 2020 के बीच प्रकाशित हुई 88,125 जलवायु पत्रों के डेटासेट से 3,000 अध्ययनों के रैंडम नमूने की जांच की। इनमें से केवल चार पत्रों में ही मानवीय गतिविधियों के कारण जलवायु परितर्वन की बात पर संशय था।


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…तो यूं हुआ मॉनसून की तारीखों में बदलाव 

बता दें कि, दिल्‍ली, यूपी, उत्‍तराखंड समेत कई राज्‍यों में भारी बारिश के कारण खेती-किसानी को काफी नुकसान हुआ है. वहीं, हालिया वर्षों में मॉनसून की विदाई में देरी दर्ज की जा रही है. मौसम में इस तरह परिवर्तन होना खेती के लिए नुकसानदेह है. मॉनसून के आने और उसके जाने की तारीख में हुए बदलाव की वजह ढूंढने के लिए (1980-1999) और (2000-2019) के डाटा को खंगाला गया है, जिसमें कई बड़ी वजह सामने आई है.

खंगाला गया 40 साल का डाटा

IMD के सीनियर साइंटिस्ट डी आर पाटिल ने बताया कि, पिछले 40 साल के रेनफॉल डाटा इन्वेस्टीगेशन से सामने आया है कि इसके पीछे क्लाइमेट चेंज और ग्लोबल वॉर्मिंग एक बड़ी वजह है. मॉनसून का आना केरल में 01 जून के करीब होता है, जून के महीने में उत्तर की तरफ भी जल्दी मॉनसून कवर हो रहा है. मॉनसून जुलाई-अगस्त में एक्टिव होने के बाद सितंबर में चला जाता था. वहीं, मॉनसून की वापसी पहले 1 सितंबर से शुरू हो जाती थी, जो 17 सितंबर के करीब विदा होता है. लेकिन अब इसमें देरी देखी जा रही है. इस बार की बात करें तो मॉनसून की विदाई 6 अक्टूबर को कही गई और अब 26 अक्टूबर तक देश से दक्षिण-पश्चिम मॉनसून के पूरी तरह विदा होने के संकेत मिले हैं. वहीं, जिस तरह हाल में कई राज्‍यों में अचानक बारिश हुई, इस बारे में डी. आर. पाटिल ने कहा कि किसी भी सीजन में अचानक बारिश का होना क्लाइमेट वेरिएबिलिटी कहलाता है. यह एक वेरिएशन है. उन्‍होंने कहा केरल और उत्तराखंड में भारी बारिश की स्टडी होनी चाहिए.


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खेती को भी हो रहा नुकसान

कृषि अर्थशास्त्री डॉक्टर वीरपाल सिंह ने बताया कि मॉनसून के देरी और और जल्‍द जाने से खेती- किसानी को बहुत ज्यादा नुकसान है. अपवाद के रूप में अगर धान की कुछ वैरायटी को छोड़ दें तो, भारत में फसलों के तैयार होने का समय 15 सितंबर से 30 सितंबर तक का होता है. अधिकतम नवंबर तक धान की फसल तैयार हो जाती है. धान की करीब सभी फसलें 95 से 125 दिन के बीच पक जाती हैं. इस समय जो भी बारिश हो रही है, उससे किसानों को बहुत नुकसान हुआ है. यही वजह है कि मंडियों में जो धान जा रहा है, उसमें 25 से 30% नमी बढ़ी है. जिससे चावल कुटवाने पर टूट जाता है. सरसों की फसल 15 सितंबर के करीब लगानी चाहिए लेकिन जिस तरह बारिश हुई है, उसके कारण वह नहीं लग सकी है. इससे किसानों को सीधा नुकसान पहुंच रहा है.

उत्तराखंड और केरल सहित पूरे भारत में हाल के दिनों में विनाशकारी मौसम की घटनाएं देखने को मिलीं। एक अमेरिकी खुफिया आकलन ने भारत और पाकिस्तान की पहचान उन 11 देशों में की है, जो जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले पर्यावरणीय और सामाजिक संकटों के लिए तैयार होने और प्रतिक्रिया करने की उनकी क्षमता के मामले में अत्यधिक कमजोर हैं। जलवायु पर अब तक का पहला यूएस नेशनल इंटेलिजेंस एस्टीमेट (एनआईई) यह भी कहता है कि, भारत और चीन वैश्विक तापमान वृद्धि के प्रक्षेपवक्र को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। यहां तक ​​​​कि यह चेतावनी भी देता है कि, ग्लोबल वार्मिंग से भू-राजनीतिक तनाव बढ़ेगा और 2040 तक की अवधि में अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जोखिम होगा।


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11 देशों की पहचान “चिंता के चुनिंदा देशों” के रूप में की गई

रिपोर्ट में कहा गया है कि, चीन और भारत क्रमशः पहले और चौथे सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक हैं। दोनों अपने कुल और प्रति व्यक्ति उत्सर्जन में वृद्धि कर रहे हैं। वहीं, संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। रिपोर्ट में भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित 11 देशों की पहचान “चिंता के चुनिंदा देशों” के रूप में की गई है। चेतावनी दी गई है कि उन्हें गर्म तापमान, अधिक चरम मौसम और समुद्र के पैटर्न में व्यवधान का सामना करना पड़ सकता है। भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में खुफिया आकलन कहता है कि, मौसम की परिवर्तनशीलता पहले से मौजूद है या नई जल असुरक्षा को बढ़ावा देती है। इससे भूजल घाटियों पर सीमा पार तनाव शायद बढ़ जाएगा।

हालांकि रिपोर्ट में कहा गया है कि, पाकिस्तान अपनी अधिकांश सिंचाई के लिए भारत में उत्पन्न होने वाली भारी ग्लेशियर-आधारित नदियों से नीचे की सतह के पानी पर निर्भर रहता है। नदी के निर्वहन पर भारत से लगातार डेटा की आवश्यकता होती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि, हम मानते हैं कि सीमा पार प्रवास शायद बढ़ेगा क्योंकि जलवायु प्रभाव ने आंतरिक रूप से विस्थापित आबादी पर पहले से ही खराब शासन, हिंसक संघर्ष और पर्यावरणीय गिरावट के तहत अतिरिक्त तनाव डाला है। बढ़ते प्रवास से सूखा, साथ में तूफान के साथ अधिक तीव्र चक्रवात शामिल होने की संभावना है।


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