अतीक खान
– 25 जून. वो तारीख, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए धब्बा है. अब से 46 साल पहले 1975 में, देश की जनता द्वारा हासिल किए लोकतांत्रिक अधिकार, एक झटके में छीन लिए गए थे. याद कीजिए वो इमरजेंसी. तब जनता के हाथ में सोशल मीडिया जैसा कोई हथियार नहीं था. जिस पर वो भड़ास निकालती. ये नहीं था, इसीलिए शायद तब की तानाशाह सरकार ने, लोगों के मुंह में कपड़ा ठूंसने की कोशिश की. ताकि उनके लबों से आजादी के बोल न फूटने पाएं.
सरकार मजबूर थी. हताश और खिसायायी हुई. इसलिए क्योंकि उस दौर के युवाओं ने उसका तानाशाही सिंहासन हिलालकर रख दिया. एक नारा गूंजता था-सिंहासन खाली करो कि जनता आती है…उसी दौर के नौजवानों में से कई चेहरे आज देश की सत्ता की धुरी हैं. भले ही कोई मुख्यमंत्री है, कोई पूर्व मुख्यमंत्री या फिर दूसरे किसी बड़े संंवैधानिक पद पर आसीन. पहचान लीजिए इन चेहरों को.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी, शरद यादव, ऐसे ही कई और तमाम चेहरे. जिन्होंने देश की सियासत को लोकतंत्र के सांचे में अपने-अपने तरीके से ढाला.
लेकिन इनमें से एक चेहरा वह भी है, जिसने दबे-कुचले वर्गों के लिए आवाज उठाने में कभी कोई कसर बाकी नहीं रखी. और न ही लोकतंत्र के बचाव के लिए तानाशाही तंत्र के सामने कभी घुटने टेके. वो चेहरा हैं लालू प्रसाद यादव. जो संपूर्ण क्रांति से लेकर आज तक उसी तेवर से जनपक्ष के साथ डटकर खड़े हुए हैं.
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1970 के दशक में लालू प्रसाद यादव पटना यूनिवर्सिटी में एलएलबी के छात्र हुआ करते थे. पढ़ाई के साथ छात्र राजनीति में सक्रिय हुए. 1973 में पटना यूनिवर्सिटी स्टूडेंट्स यूनियन (पुसू) के चुनाव में महासचिव के पद पर दावेदारी ठोक दी. चुनाव जीत गए. 1974 में वे छात्रसंघ अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए.
ये वो वक्त था, जब बिहार में भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के बगावती स्वर गूंजायमान थे. जिसे बिहार आंदोलन, संपूर्ण क्रांति या फिर जेपी (जय प्रकाश नारायण) आंदोलन के नाम से भी जाना-याद किया जाता है.
देश के तमाम दूसरे आंदोलनों की तरह उस आंदोलन में भी छात्रों की अहम भूमिका थी. 1974 में बिहार के विभिन्न छात्र संगठनों ने पटना यूनिवर्सिटी में एक सम्मेलन बुलाया और लालू प्रसाद यादव को सर्वसम्मति से बिहार छात्र संघर्ष समिति का अध्यक्ष चुन लिया.
लालू के नेतृत्व में छात्र संघर्ष समिति, जनाक्रोश को सरकार के खिलाफ लामबंद करने में जुट गई. देखते ही देखते जेपी की अगुवाई में ये आंदोलन बिहार से निकलकर पूरे देश में फैल गया. और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सत्ता का सिंहासन ढोलने लगा.
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जेपी आंदोलन में बिहार नीतीश कुमार और बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम सुशील कुमार मोदी भी शामिल थे. शरद यादव 1974 में एमपी से सांसद बन चुके थे. लेकिन जेपी के न्यौते पर वह भी आंदोलन का हिस्सा बने. हालांकि उस वक्त तक लालू यादव एक कद्दावर छात्र नेता के रूप में लोकप्रिय हो चुके थे.
25 जून को देश में इमरजेंसी का ऐलान हो गया. कई नेता, छात्रनेता हिरासत में लिए गए. जिन्हें लंबे समय तक जेलों में रहना पड़ा. इमरजेंसी के बाद 1977 में जब लोकसभा चुनाव हुए. तो लालू यादव जनता पार्टी के टिकट पर छपरा से लोकसभा चुनाव हुए लड़े. महज 29 साल की उम्र में वह सांसद बनकर संसद पहुंचे थे. यहीं से लालू यादव की मुख्यधारा की राजनीति में एंट्री होती है.
जब लालू ने रोक दी थी आडवाणी की रथयात्रा रोकने
1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे. उस वक्त भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने एक रथयात्रा निकाली. बिहार के समस्तीपुर जिले में लालू ने आडवाणी की यात्रा रुकवा दी थी. हालांकि 1997 में चारा घोटाले में उनका नाम आया. इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ गया. 7 जुलाई 1997 को राष्ट्रीय जनता दल-आरजेडी की स्थापना हुई. और लालू को सर्वसम्मति से इसका अध्यक्ष चुना गया.
लेकिन लालू यादव के दामन पर चारा घोटाले का जो आरोप लगा गया, वो हमेशा परछाईं की तरह उनके इर्दगिर्द मंडराता रहा. जिसमें उन्हें सजा हो गई. लालू यादव इसी मामले की सजा काट रहे थे, जिसमें वह जमानत पर बाहर हैं. उनके पास समझौते के मौके थे. बचाव के भी, लेकिन उन्होंने कानून का सम्मान किया. और न्याय का रास्ता चुना.
यही उसूल उनकी राजनीति में झलकते हैं. जिसमें लालू यादव सामाजिक न्याय, समानता, एकता-अखंडता की बुनियाद पर अपनी राजनीति को आगे बढ़ाते दिखते हैं. ये अलग बात है कि आज राजनीति का जो चाल, चरित्र और चेहरा बन चुका है. उसमें लालू प्रसाद यादव जैसे लोगों की जरूरत महसूस होती है.
एनडीए के साथ नहीं घुले-मिले लालू
साल 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू ने नीतीश कुमार के साथ मिलकर चुनाव लड़ा. जीते और सरकार बनाई. उस वक्त मोदी लहर थी. 2014 के चुनाव में भाजपा ने प्रचंड बहुमत के साथ केंद्र में सरकार बनाई थी. बाद में लालू-नीतीश का साथ छूट गया. और नीतीश कुमार ने अपने पुराने सहयोगी भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली. लेकिन लालू प्रसाद यादव एनडीए के साथ कभी घुले-मिले नहीं. बल्कि हमेशा टकराते रहे.