दर्द के दरिया में नहाई वो बागी अदाकारा, ट्रेजेडी क्वीन महजबीं उर्फ मीना कुमारी

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रजनी जे

गुरुदेव रविन्द्र नाथ ठाकुर के खानदान की एक बाल विधवा का वो अंश पहले ईसाई और फिर मुस्लिम बन कर तीसरी पीढ़ी में इंसानी शक्ल में दर्द के दरिया की तरह था। इस दरिया में बगावती तूफान भी आया और फिर ये जैसे अपने आपको खुद पी गया। मुन्ना, महजबीं और फिर मीना कुमारी के नाम से जानी गई ये शख्शियत अपनी अधूरी जिंदगी में इतनी कहानियां छोड़ गई कि लिखते न बने।

चार साल की उम्र में तालीम से महरूम इस अनचाही बच्ची को पिता ने पैसे बनाने की मशीन के रूप में गढ़ना शुरू किया। उस जमाने में बाल विधवा बनी नानी और मुफलिसी से जूझी अपनी मां का दर्द भी जैसे उसकी रगों में बह रहा था। बचपन में बासी रोटी प्याज और हरी मिर्च खाकर मुम्बई की बेरहम दुनिया से लड़ती रही इस बच्ची ने संगदिल दुनिया को इतने करीब से देखा परखा कि वह सच में छोटे- छोटे पत्थरों को अपने साथ अपने बिस्तर में सुलाती थी। एक फिल्मकार को उसने बताया भी था कि ये पत्थर बहुत मासूम हैं । मेरी किसी बात का बुरा नहीं मानते।

अजीब सा लगता है मशहूर अदाकारा, कहानी और नज़्में लिखने वाली मीना कुमारी के जीवन का ये सच जानकर। आज ही के मनहूस दिन 1972 में दुनिया से रुखसत हुई महजबीं मात्र 40 साल में दुनिया का सारा दर्द टटोल गई। हमने उसे ट्रेजेडी क्वीन का नाम देकर विदा किया।

रविन्द्र नाथ टैगोर भाई सुकुमार ठाकुर की बेटी ने बाल विधवा की सजा कबूल करने से मना कर दिया। ईसाई बन कर मेरठ आई और कहानीकार प्यारे लाल से शादी कर ली। उनकी बेटी प्रभावती गायिका थी संगीतकार अली बख्श की बीबी बन कर इकबाल बानो हुई। दोनों मुम्बई गए। खुर्शीद और मधु के बाद तीसरी अनचाही बेटी महजबीं उर्फ मुन्ना चार साल की उम्र में फ़िल्म लेदर फेस में एक छोटा सा रोल पाकर 25 रुपये कमा कर लायी और पिता ने उसे कमाऊ बेटी बनाने का सपना बना लिया। प्रोड्यूसर विजय भट्ट ने ‘लेदरफेस’ (1939) में उनका नाम बेबी मीना कर दिया. फिर बड़ी होकर वे मीना कुमारी कहलाईं।

यह वही बेटी थी जो जब जन्मीं तो पिता दादर ने अनाथालय के आगे रखकर चले गए हालांकि उन्हें फिर वापस ले जाना पड़ा। माँ बाप दोनों काम करते मगर इतना ही कमा पाते कि हरी मिर्च और बसी रोटी का इंतज़ाम हो जाए। पिता थियेटर में हार्मोनियम भी बजाते थे।

आठ साल की उम्र में एक ही फूल और पूजा फ़िल्म में काम मिला । घर की गाड़ी खींचने वाली बच्ची को 9 साल में मुझे ले चल अपनी नगरिया गीत सुनाकर ख्याति मिली । अनिल विस्वास ने बच्चों का खेल में जब मीना कुमारी नायिका- गायिका बनाया वह 14 साल की हो चुकी थी। अगले साल पिया घर आ जा के सारे गाने गाए। फिर तो फिल्में मिलने लगी। जवान हो चली महजबीं को अच्छा बुरा हर किरदार मंजूर था। धार्मिक फिल्में की। इतने अजीब अनुभव हुए कि घर में मास्टर जी से हिंदी, उर्दू सीख चुकी महजबीं ने कागज को जुबान देना शुरू किया। नज़्में, शेर, कहानियां लिखने लगीं।
दुनिया के अनुभवों और घर के झगड़ों से तंग महजबीं अंदर से पत्थर की बनती जा रही थी। माँ की मौत के सदमे ने और तोड़ दिया।

होमी वाडिया की फ़िल्म अलादीन का चिराग के लिए 1000 रुपये की रकम मिली तो पहली कार खरीदी। तमाशा में पहली बार एक ढंग का रोल मिला औऱ इसी के सेट पर मिले कमाल अमरोही। इस मुलाकात ने उन्हें बहारों की तरफ मोड़ा।

फिर वो दौर आया जब बड़े बड़े सुपर स्टार मीना कुमारी के साथ काम करने पर फख्र महसूस करते थे।

जिसका लोहा मानते थे स्टार भी

अपने दौर की सबसे ज्यादा फीस लेने वाली कुछ एक्ट्रेस में मीना कुमारी आती हैं। 1940 के बाद के दौर में वे एक फिल्म के लिए 10,000 रुपए की मोटी फीस लेती थीं. बाद के वर्षों में वे बहुत बड़ी स्टार बन गईं और उनकी फीस समय के साथ और मोटी हो गई। उनकी ऊंची फीस के बावजूद अपनी फिल्में ऑफर करने और रोल सुनाने के लिए प्रोड्यूसर्स उनके घर के बाहर लाइन लगाते थे।

पंजाब से आये धर्मेंद्र को जब मीना कुमारी के साथ पहली फिल्म मिली तो उनके परिचितों ने बताया कि वह जिस फिल्म में होती हैं उसमें बाकी सब एक्टर्स का परफॉर्मेंस उनकी परछाई तले ढंक जाता है। एक शब्द बोले बगैर, चेहरे की एक छोटी सी अदा से दर्शकों पर जादू कर जाती हैं। धर्मेंद्र को उन्होंने पसंद किया और अंत तक पसंद करती रही। दिलीप कुमार जैसे जानदार एक्टर को भी मीना कुमारी के सामने स्थिर रहने में मुश्किल होती थी। मधुबाला ने भी एक बार कहा था कि मीना जैसी आवाज़ किसी दूजी एक्ट्रेस की नहीं है। राज कपूर तो उनके आगे अपने डायलॉग भूल जाते थे। सत्यजीत रे ने मीना कुमारी के बारे में कहा था, “निश्चित रूप से वे बहुत ऊंची योग्यता वाली अभिनेत्री हैं.”

अपने करीब 33 साल के करियर में उन्होंने 90 से ज्यादा फिल्मों में काम किया। इनमें उनका सबसे उम्दा काम ‘साहब बीवी और ग़ुलाम’ (1962) में है. ‘पाकीज़ा’ (1972) उनकी सबसे यादगार फिल्म है. इसके अलावा गुलज़ार के निर्देशन वाली ‘मेरे अपने’ (1971) में उनका किरदार बेजोड़ है। उनकी फिल्म ‘मझली दीदी’ (1967) ऑस्कर अवॉर्ड्स में गई थी। उनकी ‘दिल अपना और प्रीत पराई’ (1960), ‘शारदा’ (1958), ‘मिस मैरी’ (1957) जैसी कई फिल्में भी हैं।
बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘तमाशा’ में उनके को-स्टार थे अशोक कुमार और देव आनंद। ‘परिणीता’ (1953), ‘बंदिश’ (1955), ‘शतरंज’ (1956), ‘एक ही रास्ता’ (1956), ‘आरती’ (1962), ‘बहू बेगम’ (1967), ‘जवाब’ (1970) और ‘पाक़ीज़ा’ (1972) में भी दोनों ने साथ काम किया.

खूब प्यार किया बगावत भी की

मीना कुमारी ने समाज की परवाह किए बगैर कई पुरुषों से प्रेम किया। कमाल अमरोही के व्यक्तित्व और सोच से बहुत प्रभावित हुई। जब मीना का एक्सीडेंट हुआ तो दोनों बहुत करीब आ गए थे। प्रेम शुरू हुआ। एक-दूसरे को वे ख़त लिखा करते थे। एक दिन परिवार वालों के खिलाफ जाते हुए मीना ने छुपकर कमाल से शादी कर ली। बिना बताए ही कमाल के घर पहुंच गई थीं और वहीं रहने लगीं।

कमाल और मीना का रिश्ता करीब एक दशक चला। कमाल बहुत रूढ़िवादी थे। उन्होंने कई बंदिशें लगा रखी थीं। जैसे उनके मेक-अप रूप में किसी मर्द का घुसना मना था। एक असिस्टेंट मीना कुमारी के साथ लगा रखा था ताकि वे हर पल नजर रख सके, लेकिन मीना ने हर नियम को तोड़ा। बताया जाता है कि उन्होंने एक बार स्टूडियो में गुलज़ार को बुलाया और सबके सामने अपना स्नेह प्रदर्शित किया। उसके बाद पति के घर से चली गईं और अपनी बहन के वहां रहने लगीं।कोई औपचारिक स्कूली पढ़ाई नहीं हुई थी, बावजूद इसके मीना कुमारी कई भाषाएं जानती थीं और बहुत सारी किताबें पढ़ती थीं। उन्हें शायरी और कविताएं लिखने का बहुत चाव था। कैफी आज़मी से भी उन्होंने सीखा। पोएट्री के लिए मीना कुमारी का यही पैशन था कि वे गुलज़ार के करीब आ गई थीं। तब उनकी शादी कमाल अमरोही से हो चुकी थी। जब मीना गुज़र गईं तो अपने पीछे अपनी लिखी बहुत सी पोएट्री और दूसरा कंटेंट गुलज़ार के पास छोड़ गईं।

उनका धर्मेंद्र से प्रेम बहुत चर्चित रहा। धर्मेंद्र पंजाब के एक गांव से आए सीधे-साधे युवक थे। उन्होंने धर्मेंद्र को ग्रूम किया। उन्हें एक्टिंग सिखाई। जिन फिल्मों में दोनों ने साथ किया उनके लिए वो एक-एक सीन खुद बोलकर और एक्ट करके धर्मेंद्र को बताती और सिखाती थीं। बारीकियां बताती थीं। खुद धर्मेंद्र उनसे प्यार करते थे। उनके और मीना के करीबी बताते हैं कि जब धर्मेंद्र मीना कुमारी के कमरे से बाहर निकलते थे तो रो रहे होते थे। वे उनकी मानसिक पीड़ा नहीं देख पाते थे। जब मीना कुमारी बहुत ज्यादा बीमार हो गईं तो आखिर तक जो चंद फिल्मी दोस्त उनसे मिलने आते थे उनमें धर्मेंद्र भी एक थे।

शराब ने जान ले ली

शराब ने मीना कुमारी को मार दिया. लेकिन ऐसा नहीं है कि वे पहले पीती थीं. इस लत के दो कारण बताए जाते हैं. एक तो ये कहा जाता है कि उन्हें नींद लेने में दिक्कत होने लगी थी तो उनके डॉक्टर सईद ने नींद की गोली की जगह ब्रांडी का एक पेग लेने की सलाह दी. दूसरी अटकल ये है कि डायरेक्टर अबरार अल्वी की फिल्म ‘साहब बीवी और ग़ुलाम’ (1963) की शूटिंग की दौरान ये हुआ. उन्होंने फिल्म में जमींदार की बंगाली पत्नी छोटी बहू का रोल किया था जो अपने अय्याश पति का प्यार पाने और ध्यान आकर्षित करने की नाकाम कोशिशों में लगी है. वो उसे खुश करने के लिए शराब पीने लगती है और बाद में दूसरे पुरुष के पास प्यार ढूंढ़ती है. इस फिल्म की शूटिंग के दौरान अपने रोल में डूबने के लिए मीना ब्रांडी के छोटे पेग पीने लगीं. लेकिन उन्हें इसकी लत लग गई. बाद में इसी ने उन्हें बीमार कर दिया और जान ले ली।

वो कटी उंगलियां

एक बार महाबलेश्वर से लौटते समय कार एक्सीडेंट में एक हाथ बुरी तरह घायल हो गया। दो अंगुलियां काटनी पड़ी. अपने पूरे करियर में उन्होंने किसी फिल्म में दर्शकों को पता नहीं लगने दिया कि उनकी दो अंगुलियां नहीं हैं. वे खुद को ऐसे कैरी करती थीं और इतनी खूबसूरती से मूव करती थीं कि वो हाथ सामने होते हुए भी सबकुछ परफेक्ट लगता था.

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