घास, जो खुद को स्थापित कर लेती है कहीं भी। और विनम्र तो इतनी कि पैरों तले रौंदे जाने का भी बुरा नहीं मानती। वही घास, जो गाय के पेट में जाती है तो दूध बनकर हमारा पोषण करती है और घोड़े के पेट में जाती है तो मांसल शक्ति बनकर हमारा बोझा ढोती है।
आज घास धरती पर हर जगह मौजूद है। फिर चाहे हो ऊंचे पर्वत हों, या समतल उपजाऊ मैदान, या फिर सूखे गर्म रेगिस्तान। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था। आज चूंकि हमारे चारों ओर घास की बहुतायत है तो घास हमें बड़ी साधारण सी चीज लगती है।
असल में ये अपने में असाधारण गुणों को समेटे है, जिनको विकसित होने में बहुत समय लगा है। घास का धरती पर पदार्पण मात्र 6 करोड़ वर्ष पहले हुआ। ये समय सुनने में ज्यादा लगता है, लेकिन धरती के लम्बे इतिहास में ये घटना कल जैसी है।
सख्त तने वाले विशाल वृक्ष घास से लगभग 30 करोड़ साल पहले वजूद में आ चुके थे। घास के आने से पहले भूमि पर हर ओर इन विशाल वृक्षों का साम्राज्य था। ज्यादा से ज्यादा सूर्य का प्रकाश पाने की होड़ में विशाल वृक्ष विजेता बनकर उभरे थे। ये जहाँ होते वहां अपनी शाखाएं फैलाकर आकाश पर कब्ज़ा जमा लेते। इनके तले रौशनी की एक बूँद के लिए तरसकर मर जाना ही छोटे पौधों की नियति थी।
छोटे मुलायम तने वाले पौधों की न जाने कितनी प्रजातियां यूं ही रौशनी के लिए तरसकर खत्म हो गईं और जो बचीं वो किसी तरह हाशिए पर जिंदगी बसर कर रही थीं। इन हाशिए पर जी रहीं प्रजातियों में कहीं न कहीं एक प्रतिशोध धधक रहा था, जिसकी परिणिति घास के रूप में हुई।
घास दिखने में बड़ी मामूली थी, पर थी बड़ी जीवट वाली। और होती भी क्यों न? उसने दुनिया के हर रंग को देखा था, हर दर्द को जिया था। क्योंकि वो विकसित हुई थी उन जगहों पर, जो जगह विशाल वृक्षों ने तरस खाकर छोड़ दी थी। उसमें थे तपते मरुस्थल, ठंडे पर्वत, जो साल में 6 महीने बर्फ में दबे रहते थे, पोषक तत्वों से हीन रेतीली अनुपजाऊ भूमि की दुश्वारियों में पनपने का जज्बा।
इन जगहों पर पलने के कारण घास में कुछ कमाल के गुणों का विकास हुआ। जैसे यह तेजी से बढ़ सकती थी। कम पानी, कम पोषक तत्वों में गुजारा कर सकती थी। तेजी से फ़ैल सकती थी। इसको परागण के लिए कीटों की आवश्यकता नहीं थी। इसके छोटे हल्के परागकण हवा के साथ दूर दूर तक फ़ैल जाते थे।
इसको नष्ट करना मुश्किल था, क्योंकि ऊपर से नष्ट हो जाने के बावजूद भी भूमि में मौजूद तने में से कुछ समय बाद नए अंकुर फूट पड़ते थे। यहां तक कि जल जाने के बावजूद भी इसका भूमिगत तना सुरक्षित रहता था और पहली फुहार के साथ ही यह पुनः उठ खड़ी होती थी।
धीरे-धीरे घास ने वृक्षों द्वारा छोड़ी गई हर जमीन पर अपना कब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया। यहां तक कि वह उनके बिल्कुल नज़दीक पैरों तले तक पहुंच गई। विशाल वृक्षों को तो कोई अंदाजा ही नहीं था कि ये मामूली सा पौधा कैसे उनके आसपास मौत का जाल बुनता जा रहा है।
गर्मी का महिना था, घास के झुंड सूखकर पीले पड़ चुके थे कि अचानक आकाश से वज्रपात हुआ और देखते ही देखते घास के सूखे झुंडों ने आग पकड़ ली। आग के फैलने के लिए सूखी घास के रूप में बढ़िया ईंधन उपलब्ध था तो जल्द ही उसने विकराल रूप धारण कर लिया और घास के जरिये जंगल को चारों तरफ से घेर लिया।
और फिर जो आग भड़की तो धुआं छंटने तक कई कई किलोमीटर तक जंगल का सफाया हो चुका था। वे वृक्ष जिनको बढ़ने में सौ सौ वर्ष लगे थे वे मात्र कुछ घंटों में राख का ढेर बन चुके थे।
वृक्षों से खाली हुई इस नई जमीन को जल्द ही घास ने अपने कब्जे में ले लिया। फिर तो सिलसिला चल निकला। किसी प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी कारण से जहां भी जंगल का विनाश होता वो इलाका तुरंत घास के कब्जे में आ जाता।
हिमयुग के दौरान हुए जंगलों के संहार का भी घास ने भरपूर फायदा उठाया। आज से 1.5 करोड़ साल पहले स्थिति एकदम बदल चुकी थी। किसी समय हाशिए पर जीने वाली घास अब न केवल एक तिहाई भूभाग पर काबिज थी, बल्कि उसकी हजारों प्रजातियां भी विकसित हो चुकी थीं।
घास द्वारा बदले गए इस भूदृश्य ने नई संभावनाओं को जन्म दिया, जिससे नए तरह के जीवों के विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ। मैदानों में कुलांचें भरते घास चरने वाले तमाम रूमीनेंट्स मेमल्स का विकास इसी दौरान हुआ। हमारे आदि पूर्वजों को भी वन क्षेत्र घटने और बिखरने के कारण पेड़ों से उतरकर भूमि पर आने के लिए मजबूर होना पड़ा।
भूमि पर आने के बाद दूर तक नजर रखने के लिए उन्हें द्विपादचारी गमन अपनाना पड़ा, जिसका लाभ ये हुआ कि उनके हाथ मुक्त हो गए, जिन्हें वे अन्य कामों के लिए इस्तेमाल कर सकते थे। उन्होंने पुरा पाषाणकाल के औजारों का इस्तेमाल सीखा।
चूंकि वे शारीरिक रूप से अन्य थलचरों जितने मजबूत नहीं थे, लिहाजा उन्होंने समूह में शिकार करना सीखा। समय के साथ धीरे-धीरे धरती अब बिल्कुल नए तरह के जीवों से आबाद हो गई थी, जिसका श्रेय सिर्फ और सिर्फ घास को जाता था।
लेकिन घास की यात्रा यहीं समाप्त नहीं होती। वो तो कुछ ऐसा करने के इरादे से आई थी जो आज तक किसी ने नहीं किया था। और उसने किया भी। उसने धरती के सबसे उन्नत कहे जाने वाले जीव को अपने मोहपाश में बांध लिया।
गेहूं ‘जो कि मध्य एशिया में पाई जाने वाली एक साधारण घास थी’ न जाने कैसे आज से 10 हजार साल पहले खाने की तलाश में यहां वहां भटकते हमारे खानाबदोश पूर्वजों में से किसी को उसका स्वाद भा गया। उन्होंने सोचा यहां वहां भटकने से बेहतर है, क्यों न इसे उगाकर इसका संचय कर लिया जाए। और इस तरह कृषि की नींव पड़ी।
जब कृषि शुरू हुई तो विभिन्न स्थानों पर पाई जाने वाली घास की कुछ अन्य प्रजातियों, जैसे धान, बाजरा, मक्का, गन्ना इत्यादि को भी उगाया जाने लगा। बताने की जरुरत ही नहीं कि आज हमारी निर्भरता इन पर किस कदर है।
घास की इंसानों से हुई इस दोस्ती का फायदा दोतरफ़ा हुआ। एक तो इंसानों को बिना दर-दर भटके पेट भरने के लिए एक आसान संचय योग्य स्वादिष्ट भोजन मिल गया तो दूसरी ओर घास को अपनी देखभाल और विस्तार के लिए अच्छा सेवक मिल गया। घास का ये सेवक उसके पूरे नाज़ नखरे उठाते हुए कड़ी धूप में भी अपने झुलसने की परवाह किए बिना उसकी सेवा में जुटा रहता।
उसे उसकी जरुरत की सभी चीजें, पानी से लेकर खाद, कीटनाशक, सब उपलब्ध कराता। इंसानों का साथ मिला तो घास की ये प्रजातियां, जो कभी दुनिया के किसी अनजान कोने में किसी तरह गुजर बसर कर रहीं थीं, प्राकृतिक सरहदों को पार कर न केवल पूरी दुनिया में पहुंच गईं, बल्कि बड़े पैमाने पर फैल गईं। जब भोजन सुलभ हुआ तो जनसंख्या बढ़ी। जब जनसंख्या बढ़ी तो और अधिक भोजन उगाने के लिए जंगलों का सफाया कर इनके लिए खेत तैयार किए गए।
घास का महत्व हमारे लिए केवल भोजन की दृष्टि से ही नहीं है, बल्कि हमारी सभ्यता, संस्कृति, कला, विज्ञान सब इसके ऋणी हैं। यदि घास ने हमारे पूर्वजों को खानाबदोशी से बाहर नहीं निकाला होता तो न सभ्यताएं बनतीं, न संस्कृतियां, न कला विकसित होती और न विज्ञान। तो आगे से जब कभी आप अपने लॉन में टहल रहे हों या किसी पार्क में बैठे हों, इस कमाल की वनस्पति के अहसानों को याद रखिएगा।
(पर्यावरण व वन्यजीवाें को समर्पित ब्लॉग ‘जंगल कथा’ से साभार)