उस्ताद अल्ला रक्खा कुरैशी (29 अप्रैल 1919 – 3 फरवरी 2000)
3 फरवरी 2000 को दुनिया से रुख़सत होने तक उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ान खुद को उस बुलंदी तक पहुंचा चुके थे जहां पहुंच पाने का सपना हर कलाकार, संगीतकार देखता है. आजादी से पहले के भारत में जन्मे अल्ला रक्खा कुरैशी का शुमार न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया के दिग्गज संगीतकारों में था. उनके जोड़ का तबला वादक तब पूरी दुनिया में नहीं था, आज भी नहीं है. वे हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के बुलंद सितारों में गिने जाते थे. (Ustad Alla Rakha Khan)
11 बरस की उम्र में पंजाब में एक नाटक कम्पनी का नाटक देखने के बाद अल्ला रक्खा कुरैशी तबले के मोहपाश में ऐसे बंधे कि इसी हुनर पर हाथ आजमाने का फैसला किया. इसे नियति ही कहा जाना चाहिए कि नाटक के तमाम अभिनेता, संगीतकारों की भीड़ में उस बच्चे को तबले ने ही आकर्षित किया.
तबले से अपनी वफ़ा निभाने के लिए अल्ला रक्खा ने कई पापड़ बेले. किस्म-किस्म की छोटी-मोटी नौकरियां कीं और फिर 1940 में आल इण्डिया रेडियो में काम किया. तब वे आकाशवाणी के लिए सोलो बजाने वाले पहले आर्टिस्ट भी बने.
इस समय तक तबलावादकों को सिर्फ संगतकार माना जाता था, किसी उस्ताद गायक, संगीतकार का साथ देने वाला. तबलची का खुद का वजूद नहीं हुआ करता था. अल्ला रक्खा कुरैशी ने उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ां तक का सफर तो तय किया ही इस मुकाम तक पहुंचते हुए वे उस्ताद कहे जाने लगे. उस दौर में सिर्फ शास्त्रीय गायन करने वालों को ही उस्ताद और पंडित आदि संबोधित किया जाता था. ये संबोधन प्रायः उपाधि का दर्जा रखते थे. तबले को सहलाते हुए अपनी उंगलियां नचाकर जादू पैदा करने वाले अल्ला रक्खा तबलची से उस्ताद तक का सफ़र तय करने वाले पहले संगतकार बने.
अपने संगीत के सफ़र में उस्ताद अल्ला रक्खा ने बड़े गुलाम अली ख़ां, अलाउद्दीन ख़ां, विलायत ख़ां, , अली अकबर ख़ां, वसंत राय और रविशंकर जैसे तब के दिग्गज उस्तादों के साथ जुगलबंदी की. पंडित रविशंकर के साथ साठ के दशक में उनकी अमेरिका में की गयी जुगलबंदी ने पूरी दुनिया में नाम कमाया. इन जुगलबंदियों ने अल्ला रक्खा ख़ां और तबले दोनों को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दी. न सिर्फ हिप्पी संगीतप्रेमी बल्कि तब के प्रख्यात रॉक बैंड बीटल्स के रॉक स्टार भी उस्ताद के दीवाने हो गए. तब रविशंकर और उस्ताद अल्ला रक्खा ने रॉक एंड रोल के बादशाह माने जाने वाले बीटल्स के साथ कंसर्ट भी किया. बीटल्स के ड्रम्स को मुकाबला देते ख़ां की तालों के बाद उन्हें पश्चिम के संगीतकारों ने ‘संगीत के आइंस्टीन, मोजार्ट और पिकासो’ का कॉकटेल बताया.
एक पिता और उस्ताद के रूप में भी वे अद्भुत बैलेंस बैठा पाए और संगीत की दुनिया को ज़ाकिर हुसैन के तौर पर अपना वारिस सौंपा. उनकी तालीम का ही नतीजा था कि जाकिर हुसैन कुल जमा 16 साल की उम्र में उस्ताद कहलाये जाने लगे.
1977 में तबले के इस जादूगर को पद्मश्री और 1982 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया लेकिन कोई भी पुरस्कार उस बुलंदी का पैमाना नहीं हो सकता जहां उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ां बैठे थे.
एक दिन पहले अपनी बेटी रज़िया की मौत से टूट चुके उस्ताद को 3 फरवरी 2000 को दिल का दौरा पड़ा. इस वक़्त तक वे संगीत के उस शिखर पर विराजमान थे जहां पहुंचने का ख्वाब हर संगीतकार देखता है. (Ustad Alla Rakha Khan)
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