मुलतान के सारे रंग बाबा फरीद के कलाम में मिल जाएंगे। पंजाबी के लिहाज से कि इस्लाम की बातचीत, तसव्वुफ व इल्मो-फज़ल की बातचीत मुलतानी जुबान में करते हैं, जिसे हम लहंदी जुबान भी बोलते हैं। मुलतानी जुबान का बहुत बड़ा दखल दिल्ली पर भी रहा। बड़ी जुबान थी यह। सिंध से आते हुए मुलतान एक बहुत बड़ा केंद्र था।
इंज़माम उल हक रोहतक के नजदीक से आए हैं। फैज अहमद फैज की नज़्म -हम देखेंगे.. को गाकर पाकिस्तान की सैन्य तानाशाही को चुनौती वाली इकबाल बानो रोहतक की हैं।
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बाबा फरीद ने मुलतान जाकर तैयार की खानकाह में दूसरी जुबानों के साथ-साथ पहली बार पंजाबी में या मुलतानी में शिक्षा देना शुरू की। मोहब्बत व लगाव को उन्होंने बड़ा मुकाम दिया। उनकी शायरी या कलाम जैसी सादा जुबान आपको पंजाबी में नहीं मिलेगी।
आज से वो करीब 750 साल पहले हुए। फिर भी बहुत कम शब्द हैं ऐसे जो समझ ना आएं। जब मन उदास हो या जब आप खुद से बात करना चाहते हों, या बहुत गहरी बात किसी राग में करने का मन करे तो उनके बोल पढ़कर सुकून महसूस हाेता है।
बाबा फरीद हवा में रहते हैं या फिज़ा में, लिखने बोलने वालों को कई पता ही नहीं चलता। उन्हें एहसास ही नहीं होता कि अपनी बात कह रहे हैं या उनके वाक्यांशों का प्रयोग कर रहे हैं। इस कदर उनके कलाम लोगों के अंदर रच-बस गए हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि मुलतानी जुबान में लोच बहुत है, छोटी-छोटी बात में लय है।
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बाबा फरीद कहते, जब हमें गाली देनी होती है तो पंजाबी बोलते हैं। नहीं तो लोग अपनी जुबान- जिसे सरायकी या लहंदी कहते हैं, इसमें तो गाली भी नहीं दे सकते। इसमें पता ही नहीं चलता कि किसी ने तल्खी में बात की है।
बाबा फरीद का एक श्लोक देखिए-
खालक खलक में, खलक बसै रब मांह।
मंदा किसनूं आखियै जब तिस बिन कोउ नांह।।
जब ये बात मान ली गई कि लोगों के साथ उनकी ही जुबान में बात होगी तो उसकी बुनियाद, मापदंड, ढांचा बाबा फरीद ने तय करके दे दिया कि इससे कम पर बात नहीं होगी। उससे पहले पंजाबी में छुट-पुट कलाम कुछ नाथों व सिद्धों से मिलता है। लेकिन वह मात्रा में बहुत कम और वैचारिक तौर पर उतना गठा हुआ नहीं है। तसव्वुफ व इस्लाम की बात छोड़ भी दें तो बाबा फरीद के कलाम में हमें पहली बार लोगों की बात हुई दिखती है।
बातचीत में हजरत मोहम्मद साहब का नाम भी नहीं आता। काबा, किबला, मक्का, मदीना किसी का भी नाम नहीं आता। आसपास की बात चलती रहती है। बाबा फरीद की गहराई और शिल्प से गठी छोटी-छोटी बातें हैं – लम्मी-लम्मी नदी बहै, केल करेंदे हंजू (हंस वहां खेल रहा है), नदी कंड्डे रूखड़ा, दुनि सुहावा बाग आदि। जैसे हम कहीं जा रहें हों तो वो कहें कि देखो कितने खूबसूरत वृक्ष खड़े हैं। उनके दो सौ साल बाद तक इस तरह का कोई कलाम पंजाबी का नहीं मिलता।
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पंजाबी उस समय बोलचाल की भाषा थी। साहित्य की, सोचने की व विचार की भाषा नहीं थी। इसको विचार, सोच व ख्याल की भाषा बनाया बाबा फरीद शकरगंज ने। इस खित्ते को यह उनका सबसे बड़ा योगदान है कि पंजाबी व इसके आसपास की भाषा के साहित्य की बुनियाद अब खड़ी हुई है।
गुरू नानक देव, शेख इब्राहिम से उनकी मुलाकात हुई। उन्होंने उन्हें रोक लिया कि पहले कुछ सुनाओ। बाबा नानक का गायकी में बड़ा मुकाम था। संगीत के बड़े जानकार थे। अपनी किस्म के विद्वान थे, लोगों के साथ जुड़े हुए। तो उन्होंने पूरी भावना से अपने कलाम को रखा।