World Nature Conservation Day: मानवता के पास ज्यादा समय नहीं है, कल बहुत देर हो जाएगी

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         कबीर संजय-

इस दुनिया में लगभग सात अरब लोग रहते हैं। गोरे, काले, पीले, गेहुएं। ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, हिन्दू। लेकिन, हैरत की बात है कि इस पूरी दुनिया को सिर्फ दस लाख लोग संचालित करते हैं। इन सात अरब लोगों के जीवन का फैसला सिर्फ दस लाख लोगों के हाथ में है।

पृथ्वी पर हम अकेले नहीं हैं। हम इंसानों की सात अरब की आबादी के अलावा प्राणियों की लाखों प्रजातियां हैं और उन प्रजातियों के लाखों करोडों जीव इस पृथ्वी पर सदियों से आबाद हैं। वनस्पतियों की लाखों किस्में इस पृथ्वी को जीवनदान देती हैं। यह सबकुछ एक जीता जागता ईकोसिस्टम है। इस ईकोसिस्टम को बचाने के लिए एक समग्र सोच की जरूरत है।

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हैरत है कि सिर्फ दस लाख लोगों के मस्तिष्क इसको संचालित करते हैं। इस संचालन से वे खुद और उनसे जुड़े मुश्किल से दस करोड़ लोगों को फायदा होता है। आपको यह संख्या थोड़ी छोटी लग सकत है। लेकिन, जरा गौर से देखेंगे तो मुश्किल से 50 हजार लोगों के ब्रेन हैं जो पूरे भारत के भाग्य नियंता हैं।

इसमें तमाम कारपोरेट घराने, राजनीतिक घराने, बड़े नौकरशाह और प्रभावशाली लोग शामिल हैं। ये 50 हजार लोग फैसला करते हैं कि हमारे देश के 130 करोड़ से ज्यादा लोग क्या पढ़ाई करेंगे। किन सड़कों पर चलेंगे। उनका इलाज कैसे होगा। किन सड़कों पर वे चलेंगे। वे क्या खेती करेंगे। वे क्या रोजगार करेंगे या बिना रोजगार के मर जाएंगे।

जो नीतियां वे बनाते हैं उनमें बातें चाहे जितनी बड़ी-बड़ी हों लेकिन फायदा सिर्फ दो-चार करोड़ लोगों का ही होता है। जाहिर है कि जब सोच इतनी सीमित हो तो पृथ्वी को बचाने की चिंता उसमें शामिल नहीं हो सकती। वे इंसानों के भी उतने बड़े दुश्मन हैं जितने बड़े पृथ्वी के।

वे अपने मुनाफे के लिए धरती को खोदकर सारा कोयला, लोहा निकाल सकते हैं। चाहे इसके लिए उन्हें जंगल के जंगल उजाड़ने ही क्यों न पड़े। वे नदियों को सुखा सकते हैं, समुद्रों को प्रदूषित कर सकते हैं। हवा को खराब कर सकते हैं। उन्होंने अपने जीने के लिए एक अलग दुनिया बना रखी है।

यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसा फिल्म 2012 में दुनियाभर में आने वाली प्रलय की जानकारी पाकर पहले से ही कुछ बड़े जहाजों में दुनिया भर के कारपोरेट और प्रभुत्वशाली एकत्रित हो जाते हैं।

पहले वे धरती को इतना नष्ट करते हैं कि वह रहने लायक नहीं है। फिर वे हमें चांद और मंगल पर बसने के ख्वाब बेचते हैं। जरा सोचिए, पृथ्वी अगर रहने लायक नहीं बचती है और चांद और मंगल पर इनसानी बस्तियां बसती हैं तो वहां जाकर कौन रहने जा रहा है। जो लोग मामूली बीमारियों में भी अपने बच्चों का इलाज नहीं करा सकते, जो अपने गोद में ही अपने बच्चों की मौत देखने को विवश है, क्या चांद और मंगल की बस्तियों में उनके बसने की भी जगह होगी।

कुछ अतिशयोक्तियां हो सकती हैं। लेकिन, आज जरूरत इन अतिशयोक्तियां के बीच छिपी हुई सच्चाई को समझने की है।

कोई भी आदमी इस पृथ्वी को अकेले-अकेले नहीं बचा सकता है। इसके लिए व्यापक जागरुकता की जरूरत है। मानवता के पास समय ज्यादा नहीं है। जितनी जल्दी इस बात को समझ लिया जाए,उतना ही अच्छा है। विश्व के बड़े नेताओं में फिदेल कास्त्रो ने सबसे पहले इस बात को कहा था, ‘कल बहुत देर हो जाएगी’, ‘टुमॉरो विल बी टू लेट’।

(लेखक पर्यावरण को समर्पित प्रसिद्ध ब्लॉग जंगलकथा के एडमिन हैं)

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