पहली प्राइवेट ट्रेन मुनाफा न दे पाने से आखिरकार बंद हो गई। इस ट्रेन के मुसाफिरों की खिदमत में रहे सैकड़ों कर्मचारियों की रोजी-रोटी खतरे में आ गई है। जिस ठेकेदार ने उन्हें नौकरी पर रखा, उसने हाथ खड़े कर दिए, यहां तक कि उनके वेतन देने में भी आनाकानी हो रही है। इसका मतलब ये नहीं है कि रेलवे के निजीकरण की प्रक्रिया रोक दी गई है या फिलहाल कोई विचार नहीं हो रहा है। सरकार अपने इरादे पर न सिर्फ कायम है, बल्कि बाधाओं को हटाने की योजनाओं पर तेजी से काम कर रही है।
भारतीय रेल के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुनाफा कम होने से ट्रेनों का संचालन बंद कर दिया गया हो। अगर कभी कोई ट्रेन बंद की गई तो विकल्प के तौर पर नई ट्रेनों को, बदले हुए रूट से या फिर किसी भी तरह यात्रियों का सफर पूरा कराने का बंदोबस्त किया ही गया। ऐसा भी कभी नहीं किया गया कि किसी एक स्टेशन, ट्रेन या रूट से आमदनी घटने पर कर्मचारियों को नौकरियों से निकाल दिया गया हो, बोनस-भत्ते या सुविधाएं घटा दी गई हों।
ये तजुर्बा निजीकरण के पहले रिहर्सल तेजस के संचालन से मिल गया। वह ट्रेन, जिसकी तारीफों के पुल बांधे गए, उसकी खुशबू से लेकर परिचारिकाओं की यूनिफॉर्म तक पर सुर्खियां बनीं। जिस ट्रेन से सफल संचालन के लिए दोगुने किराए को जायज ठहराया गया, जिसकी छवि चमकाने को रेलवे की अपनी ट्रेनों को जहां-तहां खड़ा कर लेट कराया गया।
इसके बावजूद ट्रेन के मालिकों को ये घाटे का सौदा लगा और झटके से इसको बंद करने का ऐलान हो गया। चंद पलों में सैकड़ों युवा कर्मचारी, जिनको एयरलाइंस जैसे कर्मचारी होने के ख्वाब दिखाए गए, सड़क पर पटक दिया गया, वो भी खाली हाथ। इनमें से तमाम ने सोर्स-सिफारिश, कठिन इंटरव्यू, रोजमर्रा के जोखिम और अपमान का सामना किया, लेकिन अब वे हैरान और परेशान होकर इंसाफ की गुहार लगा रहे हैं।
हालांकि, इससे भी बड़ी हैरानी सरकार के फैसले पर होना चाहिए। मौजूदा प्रधानमंत्री अपने सांसद क्षेत्र बनारस में कह चुके हों कि रेलवे के निजीकरण की अफवाह फैलाई जा रही है, उन्हीं की सरकार प्राइवेट ट्रेनों का ऐलान कर रही है, टेंडर निकालकर निजी कंपनियों को न्यौता दे चुकी है। नीति आयोग निजीकरण की हास्यास्पद तरीके से परिभाषा बदल चुका है…”निजीकरण नहीं होगा, कुछ साल प्राइवेट कंपनियों से ट्रेन संचालन कराया जाएगा”।
‘तेजस’ के बेहतरीन और खुशबूदार शौचालय हों या देश में स्वच्छता मिशन की अलख। तथ्य ये है कि किसी भी तरह के शौचालय के बगैर भारत की ट्रेनें 55 साल दौड़ीं। इसका एहसास भले तेजस जैसी ट्रेनें चलाने वालों या उनको मौका देने वालों को न हो, लेकिन जिंदगी में रेल ने क्या किया, कैसे जिंदगी बदली, इसके किस्से बेहिसाब हैं।
ये महज रेल नहीं, बल्कि देश है। कई देशों से बड़ा देश। अपनी आबादी, संस्कृति और इतिहास के हिसाब से भी। इसका एक हिस्सा बिकना भी देश का हिस्सा बिकने जैसा है। रेल ही है, जिसने भारत में पहले उद्योग का दर्जा हासिल किया, जिसने किसानों को जमीन का बंधुआ होने से बचाकर मुक्त श्रमिक बनाया, जिसने देश को एक कोने से दूसरे कोने से जोड़ा, जिसने जाति, धर्म के बंधनों को तोडऩे में मदद की, जिसने देश को गुलामी की जंजीरें तोडऩे में ऐतिहासिक भागीदारी की, जिसने लाखों परिवारों को व्यवस्थित जिंदगी जीने का मौका दिया, जिसने कितनी ही सत्ताओं, सरकारों के आने-जाने की परवाह किए बगैर अपना सफर जारी रखा। रेलकर्मी सैनिकों की तरह मोर्चा संभाले रहे।
शायद यही वजह थी कि पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा, रेलवे हमारा सबसे बड़ा राष्ट्रीय उपक्रम है और रहेगा। ये उपक्रम देश के लाखों लोगों के आराम और सुविधा का ख्याल बहुत आत्मीयता से रखता है। इसके साथ कर्मचारियों की बहुत बड़ी संख्या जुड़ी है, जिसके कल्याण की हमेशा फिक्र होना चाहिए। राष्ट्रीय स्वामित्व वाली रेलवे महज महत्वपूर्ण संपत्ति नहीं है, बल्कि महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है।
इसी मंशा का नतीजा था कि रेलवे ने कभी गंगा के एक घाट से दूसरे घाट के स्टेशन को पहुंचाने को स्टीमर चलाया। काठगोदाम से नैनीताल के बीच तांगा चलवाया या फिर ट्रेन की बोगी में भी पुस्तकालय खुलवा दिया। तीन दशक पुरानी यादों को जहन में टटोला जाए तो बहुत सी यादगार मिल जाएंगी।