उत्तरप्रदेश में सियासी चौसर पर बिसात बिछाने के माहिर जीतने और हराने की जुगत में जुटे हैं। जाने कितने इसी बात से फूले नहीं समा रहे कि उनको टिकट मिल गया। तमाम ऐसे भी हैं, जिनको टिकट न मिलने पर लग रहा कि उनकी जिंदगी अंधेरे में डूब गई। ऐसे उम्मीदवारों और नाउम्मीदों के बीच ऐसा भी प्रत्याशी है, जिसको सिर्फ चुनाव लड़ना है और 100 बार हारने तक लड़ना है। जीता कभी नहीं, लेकिन हारने की मायूसी कभी दिल में नहीं आने दी। (Defeating Ambedkari 100 Times)
हारने के लिए चुनाव मैदान में उतरने वाले उम्मीदवार हैं उत्तर प्रदेश के आगरा में खेरागढ़ विधानसभा क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी हसनुराम अंबेडकरी। उन्होंने विधानसभा चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल किया है। प्रत्याशी बतौर यह उनका 94वां चुनाव है, जो 100 बार तक हारने की उम्मीद पर लड़ना है।
इस विधानसभा से नामांकन के पहले दिन 37 पर्चे बेचे गए, जिन्हें एक किन्नर, दो महिलाओं और 34 पुरुषों ने खरीदा। हसनुराम अंबेडकरी भी उनमें से एक हैं। इससे पहले वह 93 चुनाव हार चुके हैं, लेकिन उत्साह में कोई कमी नहीं है।
electionबताया जाता है कि 1985 में पहली बार चुनाव मैदान में उतरे थे। तब से कोई चुनाव उन्होंने छोड़ा नहीं। लोकसभा, विधानसभा से लेकर पंचायत चुनावों तक उम्मीदवार रहे हैं।
साल 2021 में हसनुराम अंबेडकरी जिला पंचायत चुनाव लड़े। इससे पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में आगरा और फतेहपुर सीकरी निर्वाचन क्षेत्रों से पर्चा भरा था। खास बात यह भी है कि 1998 में भारत के राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन कराने की कोशिश की, लेकिन उनका नामांकन मंजूर नहीं हुआ। (Defeating Ambedkari 100 Times)
कुल 93 चुनाव हारने का रिकॉर्ड तो है ही, लेकिन उन्हें वोट ही नहीं मिले ऐसा नहीं है। उन्होंने 1989 के लोकसभा चुनाव में फिरोजाबाद सीट से चुनाव लड़कर 36 हजार वोट हासिल किए।
इस बार के चुनाव में भी वे अपनी मेहनत से वोट हासिल करने को जुट गए हैं। अंबेडकरी ने पत्नी और समर्थकों के साथ घर-घर जाकर प्रचार करना शुरू कर दिया है। लोग उनको फिलहाल जुबानी समर्थन भी दे रहे हैं।
अंबेडकरी ने कहा, “मेरा एजेंडा हमेशा निष्पक्ष, भ्रष्टाचार मुक्त विकास और समाज में हाशिए के लोगों का कल्याण रहा है।”
हसनुराम अंबेडकरी कुछ समय बसपा के सदस्य भी रहे हैं। (Defeating Ambedkari 100 Times)
उन्होंने कहा, “मैं बामसेफ का एक समर्पित कार्यकर्ता था और यूपी में जड़ें मजबूत करने को बसपा के लिए खूब काम किया। 1985 में जब मैंने टिकट मांगा तो मेरा मजाक उड़ाया गया और कहा गया कि मेरी पत्नी भी मुझे वोट नहीं देगी। मैं बहुत निराश हो गया। तब से मैंने चुनाव लड़ने की ठान ली, तभी से मैं हर चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ रहा हूं।”
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