गुरु जी हम चलें
गुरु जी
चलिए हम खेतों में चलकर
मेहनतकशों से दोस्ती करें
मेहनत से काम करते बच्चों के साथ
मिल कर काम करें
और
धरती को अपने पसीने से सींचें
जैसे तेज बहाव के साथ
पानी की स्वच्छता बढ़ती है
वैसे ही काम के साथ
सचेतना भी बढ़ती है
रटते- रटते तो
हम पत्थर बन जाते हैं
काम से बढ़ती है समझ
और समझ से काम
आज से हमें
नहीं चाहिए रिक्त पाठ
और बिलकुल नहीं चाहिए
सिर्फ अंक देने वाली पढ़ाई
-चेराबंडा राजू
इस कविता के बाद, बच्चों का ऑनलाइन क्लास से क्या हाल हुआ है, इस पर अमिता शीरीं ने फेसबुक पोस्ट लिखी है, जो बाल मन के हालात को समझने के लिए जरूरी है।
-ऑनलाइन शिक्षा यानी बच्चों की खुशियों का क़त्ल-
9 साल के अबीर (अब्बू) से मैंने पूछ, अब्बू ऑनलाइन एजुकेशन पर मैं कुछ लिखना चाहती हूं, तू कुछ बताएगा अपना अनुभव?’ अब्बू ने अपना सिर तिरछा किया और कुछ सोचते हुए बोला, ‘मौसी ऑनलाइन पढ़ाई में सबसे बड़ी दिक्कत है कि हम दोस्त नहीं बना सकते। दूसरी दिक्कत है कि हम अपनी टीचर से सीधे बात नहीं कर सकते। तीसरी बात कि बहुत से बच्चों के पास फोन नहीं होता, वो क्लास अटैंड नहीं कर पाते’। फिर तुरंत बोला ‘मौसी मैं बिल्कुल बोर हो गया हूं।’ अब्बू का उदास चेहरा मुझे भीतर तक कचोट गया।
अब्बू मूलतः एक यारबाश बच्चा है और एक बेहतरीन खिलाड़ी है। कोरोना महामारी से पहले वह सारे दिन खेलता रहता था। वह भोपाल में जिस आनंद निकेतन ड्रेमोक्रेटिक स्कूल में पढ़ता था, वहां खेल को बहुत तवज्जो दी जाती थी, या कहें तो बच्चों की रुचियों को तवज्जो दी जाती थी।
वह ऐसा स्कूल था जहां बच्चों को कुछ भी रटने को नहीं कहा जाता। ABCD, क ख ग घ नहीं पढ़ाया जाता। गिनती और पहाड़ा नहीं रटाया जाता। फिर भी बच्चे 9-10 साल तक भाषा और गणित जादू की तरह सीख जाते।
होता यह था कि भाषा के रूप में बच्चों के पास ढेर सारी कविताएं, कहानियां होती थीं, जिन्हें बच्चे नाटक, चित्र, रंगों के माध्यम से समझते थे। 5-6 साल तक लिखने का कोई काम नहीं, सिर्फ़ मौखिक भाषा में काम होता। मौखिक भाषा में पारंगत होने के बाद जब बच्चे लिखित शब्दों को ज़रूरी समझने लगते, झट वे लिखना सीख जाते। वहां मौजूद टीचर इसमें उनकी मदद करते।
ऐसे ही गणित में बच्चे पेड़ के पास बैठकर पत्तियां गिनते या सड़क से गिट्टियां बटोरकर अपनी-अपनी ढेरी बनाते। जिसकी ढेरी जितनी बड़ी, उतनी उसके पास संख्या। बच्चे संख्या को रटते नहीं थे, उनकी समझ बनाते। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती, गणित का उत्साही टीचर अंकित उन्हें रचनात्मक तरीके से गणित के अमूर्तन में ले जाता।
कभी आप स्कूल में घुसते तो पाते कि छोटे बड़े सारे बच्चे हाथ में पेन कॉपी लेकर सारे स्कूल में कुछ ढूंढते हुए घूम रहे हैं। पता चला कि बच्चे गणित की क्लास में सर्किल यानी वृत्त ढूंढ रहे हैं। जिसे जहां दिखता उसे कॉपी में नोट कर लेता। जिसे लिखना नहीं आता वह याद कर लेता। फिर क्लास में शेयर करता।
विज्ञान और सामाजिक विज्ञान की कक्षा बच्चों के सवालों से आकार लेती। संगीत, नृत्य सब बच्चों की खुशी का सबब बनते। यहां बच्चे अपना पूरा दिन खुद प्लान करते। मसलन, आज उन्हें कौन-कौन से विषय कब पढ़ने हैं, ये बच्चे तय करते। आयु के हिसाब से बच्चे समूहों में बंटे थे। हर साल बच्चे अपने ग्रुप का नया नाम चुनते। क्लास नहीं थे स्कूल में। विषयवार थीमेटिक कक्षाएं थीं, जिसमे संबंधित फेसिलिटेटर्स रहते थे और बच्चे सारे दिन मूव करते थे।
कभी किसी का मन आज पढ़ने का नहीं कर रहा तो वह क्लास के बाहर जा सकता था। लाइब्रेरी में या पेड़ पर बैठकर किताब पढ़ सकती थी, चित्र बना सकता था, या कुछ खेल सकती थी। इस स्कूल में किसी तरह की परीक्षा और टेस्ट नहीं होता था, इसलिए बच्चे और उनके मां बाप सालभर चिंता से मुक्त रहते।
इस स्कूल में बच्चे बिना डरे, सवाल करते थे, देशी, विदेशी राजनीति पर चर्चा करते, टीचर की आलोचना करते, जो क्लास अच्छी नहीं लगती उसे बेबाक तरीके से बताते।
आनंद निकेतन डेमोक्रेटिक स्कूल भोपाल में था। यहां मैंने भी अपने जीवन के बेहतरीन 9 साल बिताए। यहां मैं सोशल साइंस और संगीत में बच्चों के साथ मज़े करती थी। बच्चों के लिए सोशल साइंस उतना ही रचनात्मक और मज़ेदार होता जितना संगीत।
ऐसे डेमोक्रेटिक स्कूल में पलने बढ़ने वाला अब्बू आज ऑनलाइन शिक्षा की शरण में होने को मजबूर है। दोस्तों और खेल से दूर करके बच्चों के साथ अपराध किया जा रहा है। वहीं कोराेना की आड़ में सरकार ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर देते हुए शिक्षा की अपनी समूची ज़िम्मेदारी से दूर भाग रही है।
अबीर का प्यारा आनंद निकेतन स्कूल भी कोरोना काल में बंद हो गया। जबकि बहस इस पर होनी चाहिए थी कि बच्चों के सारे स्कूलों को आनंद निकेतन डेमोक्रेटिक स्कूल की तरह होना चाहिए, जहां बच्चे खुश रह सकें।
मोबाइल स्क्रीन पर सिमट गई शिक्षा दरअसल बच्चों की खुशियों का क़त्ल कर रही है।