मुनीर नियाज़ी: दिल की धड़कन पकड़ने वाला शायर

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-स्मृति दिवस-


शायरी को समझने वाले ही नहीं, बहुत कम समझने वाले भी इस शायरी को सुनकर कहीं खो जाते हैं। एक हूक सी उठती है, आंखों में आंसू भर आते हैं, समझ में भी नहीं आता कि आखिर हुआ क्या है। कुछ तो है, जो दिल की धड़कन बढ़ गई। (Munir Niazi Heartbeat Poet)

हमेशा देर कर देता हूं मैं
ज़रूरी बात कहनी हो
कोई वादा निभाना हो
उसे आवाज़ देनी हो
उसे वापस बुलाना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं
मदद करनी हो उसकी
यार का धाढ़स बंधाना हो
बहुत देरीना रास्तों पर
किसी से मिलने जाना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं
बदलते मौसमों की सैर में
दिल को लगाना हो
किसी को याद रखना हो
किसी को भूल जाना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं
किसी को मौत से पहले
किसी ग़म से बचाना हो
हक़ीक़त और थी कुछ
उस को जा के ये बताना हो
हमेशा देर कर देता हूं मैं

ऐसी ही शायरी के सरताज रहे हैं मुनीर नियाज़ी। शायरी के अल्फाज़ ही नहीं, उनके निराले अंदाज़ को सुनने लोगों की भीड़ जुटी है एक ज़माने में। आंख बंद करके खो जाते थे श्रोता उनको सुनते वक़्त। (Munir Niazi Heartbeat Poet)

उर्दू और पंजाबी की शायरी में खास मुकाम रखने वाले मुनीर नियाज़ी का असली नाम मुनीर अहमद था। भारत में पंजाब के होशियारपुर में उनका जन्म 19 अप्रैल 1928 को हुआ। शुरुआती तालीम साहिवाल जिले में हासिल की और फिर उच्च शिक्षा के लिए दयाल सिंह कॉलेज, लाहौर में दाखिला लिया। (Munir Niazi Heartbeat Poet)

नियाज़ी साहब बंटवारे के बाद साहिवाल में बस गए थे और सन 1949 में ‘सात रंग’ नाम मासिक का प्रकाशन शुरु किया। बाद में आप फिल्म जगत से भी जुड़े और कई फिल्मों में गीत लिखे।

उनका लिखा मशहूर गीत ‘उस बेवफ़ा का शहर है’ फिल्म ‘शहीद ‘ के लिए नसीम बेगम ने 1962 में गाया। 11 उर्दू और 4 पंजाबी संकलन में ‘तेज हवा और फूल’, ‘पहली बात ही आखिरी थी’ और ‘एक दुआ जो मैं भूल गया था’ खासे मशहूर हैं। बताया जाता है कि मुनीर नियाज़ी उन पांच उर्दू शायरों में से एक हैं, जिनका कई यूरोपियन भाषाओं में काफी अनुवाद किया गया है। (Munir Niazi Heartbeat Poet)

मुनीर नियाज़ी को पाकिस्तान में मार्च 2005 में ‘सितारा-ए-इम्तियाज़’ से नवाज़ा गया।

26 दिसंबर 2006 को उन्होंने आख़िरी सांस ली, लेकिन उनकी शायरी की अनोखी छाप आज भी जिंदा है।


किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते ?

किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते ?

सवाल सारे गलत थे जवाब क्या देते?

खरब सदियों की बे-ख्वाबियां थीं आंखों में

अब इन बेअंत खलाओं में ख्वाब क्या देते ?

हवा की तरह मुसाफिर थे दिलबरों के दिल

उन्हें बस एक ही घर का अज़ाब क्या देते?

शराब दिल की तलब थी सहरा के पहरे में

हम इतनी तंगी में उसको शराब क्या देते?

मुनीर दश्त शुरू से सराब आसा था

उस आईने को तमन्ना की आब क्या देते?


बेचैन बहुत फिरना, घबराए हुए रहना

बेचैन बहुत फिरना, घबराए हुए रहना

एक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना

छलकाए हुए रखना ख़ुशबू-लब-ए-लाली की

इक बाग़ सा साथ अपने महकाए हुए रहना

इस हुस्न का शेवा है, जब इश्क़ नज़र आए

परदे में चले जाना, शर्माए हुए रहना

इक शाम सी कर रखना काजल के करिश्मे से

इक चांद सा आंखों में चमकाए हुए रहना

आदत ही बना ली है, तुमने तो मुनीर अपनी

जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना


एक पुरानी बात

जो भी घर से जाता है

ये कह कर ही जाता है

“देखो, मुझ को भूल न जाना

मैं फिर लौट के आऊंगा

दिल को अच्छे लगने वाले

लाखों तोहफे लाऊंगा

नए नए लोगों की बातें

आ कर तुम्हें सुनाऊंगा”

लेकिन आंखें थक जाती हैं

वो वापिस नहीं आता है

लोग बहुत हैं और वो अकेला

उन में गुम हो जाता है

 

बिछड़ गए तो फिर भी मिलेंगे हम दोनों एक बार

बिछड़ गए तो फिर भी मिलेंगे हम दोनों एक बार

या इस बसती दुनिया में या इसकी हदों से पार

लेकिन गम है तो बस इतना जब हम वहां मिलेंगे

एक दूसरे को हम कैसे तब पहचान सकेंगे

यही सोचते अपनी जगह पर चुप चुप खड़े रहेंगे

इससे पहले भी हम दोनों कहीं ज़रूर मिले थे

यह पहचान के नए शिगूफे पहले कहां खिले थे

या इस बसती दुनिया में या इसकी हदों से पार

बिछड़ गए हैं मिल कर दोनों पहले भी एक बार


डर के किसी से छुप जाता है जैसे सांप खजाने में

डर के किसी से छुप जाता है जैसे सांप खजाने में

जर के जोर से ज़िंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में

जैसे रस्म अदा करते हों शहरों की आबादी में

सुबह को घर से दूर निकलकर शाम को वापिस आने में

नीले रंग में डूबी आंखें खुली पड़ी थीं सब्जे पर

अक्स पड़ा था आसमान का शायद इस पैमाने में

दिल कुछ और भी सर्द हुआ है शाम-ए-शहर की रौनक में

कितनी जिया बे-सूद गई है शीशे के लफ्ज़ जलाने में

मैं तो ‘मुनीर’ आईने में खुद को तक कर हैरान हुआ

ये चेहरा कुछ और तरह था पहले किसी ज़माने में


ज़िंदा रहे तो क्या है जो मर जाएं हम तो क्या

ज़िंदा रहे तो क्या है जो मर जाएं हम तो क्या

दुनिया में खामोशी से गुज़र जाएं हम तो क्या

हस्ती ही अपनी क्या है ज़माने के सामने

एक ख़्वाब हैं जहां में बिखर जाएं हम तो क्या

अब कौन मुंतजिर है हमारे लिए वहां

शाम आ गई है लौट के घर जाएं हम तो क्या

दिल की खलिश तो साथ रहेगी तमाम उम्र

दरिया-ए-गम के पार उतर जाएं हम तो क्या


गम का वो जोर अब अंदर नहीं रहा

गम का वो जोर अब अंदर नहीं रहा

इस उम्र में मैं इतना संवर नहीं रहा

इस घर में जो कशिश थी गई उन दिनों के साथ

इस घर का साया अब मेरे सर पर नहीं रहा

मुझ में ही कुछ कमी थी कि बेहतर मैं उन से था

मैं शहर में किसी के बराबर नहीं रहा

रहबर को उन के हाल की हो किस तरह खबर

लोगों के दरमियां वो आकर नहीं रहा

वापस न जा वहां कि तेरे शहर में ‘मुनीर’

जो जिस जगह पे था वो वहां नहीं रहा


मेरी दुआएं

मेरी दुआएं बहोत पेचीदा हैं!

शाम का वक़्त है

दुआओं की मंजूरी का वक़्त है

मैं कैसी दुआओं को याद करूं

मेरी दुआएं पेचीदा बहोत हैं!

मेरे दिल में बहोत बे-असर दुआएं हैं

बहोत दुआओं के बजाये मेरे दिल में

एक दुआ होती तो कितना अच्छा था.


कैसे-कैसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हैं

कैसे-कैसे लोग हमारे जी को जलाने आ जाते हैं,

अपने-अपने ग़म के फ़साने हमें सुनाने आ जाते हैं।

मेरे लिए ये ग़ैर हैं और मैं इनके लिए बेगाना हूं

फिर एक रस्म-ए-जहां है जिसे निभाने आ जाते हैं।

इनसे अलग मैं रह नहीं सकता इस बेदर्द ज़माने में

मेरी ये मजबूरी मुझको याद दिलाने आ जाते हैं।

सबकी सुनकर चुप रहते हैं, दिल की बात नहीं कहते

आते-आते जीने के भी लाख बहाने आ जाते हैं।


हमजुबां मेरे थे, इनके दिल मगर अच्छे न थे

हमजुबां मेरे थे, इनके दिल मगर अच्छे न थे

मंजिलें अच्छी थीं, मेरे हमसफ़र अच्छे न थे

जो खबर पहुंचनी यहां तक असल सूरत में न थी

थी खबर अच्छी, मगर एहल-ए-खबर अच्छे न थे

बस्तियों की ज़िंदगी में बेजारी का ज़ुल्म था

लोग अच्छे थे, वहां के एहल-ए-ज़र अच्छे न थे

हमको खुबान में नजर आती थी कितनी खूबियां

जिस क़दर अच्छे लगे थे, इस क़दर अच्छे न थे

इसलिए आई नहीं घर में मोहब्बत की हवा

इस मोहब्बत की हवा के मुंतजिर अच्छे न थे

इक ख्याल-ए-हाम की मुर्शद था इन का ऐ ‘मुनीर’

यानी अपने शहर में एहल-ए-नज़र अच्छे न थे


तुझसे बिछड़ कर क्या हूं मैं, अब बाहर आकर देख

तुझसे बिछड़ कर क्या हूं मैं, अब बाहर आकर देख

हिम्मत है तो मेरी हालत पर आंख मिलाकर देख

शाम है गहरी, तेज़ हवा है, सर पे खड़ी है रात

रास्ता गए मुसाफिर का अब दिया जलाकर देख

दरवाज़े के पास आ आकर वापिस मुड़ती चाप

कौन है इस सुनसान गली में, पास बुलाकर देख

शायद कोई देखने वाला हो जाए खैरान

कमरे की दीवारों पर कोई नक्श बना कर देख

तू भी मुनीर अब भरे जहान में मिलकर रहना सीख

बाहर से तो देख लिया, अब अंदर जाकर देख


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