कश्मीर फाइल्स: सोशल मीडिया पर वायरल दो फिल्म समीक्षाएं

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हाल ही में रिलीज हुई फिल्म कश्मीर फाइल्स अचानक तेजी से सोशल मीडिया के डोमेन में वायरल हो गई है। एक शहर में तो फिल्म प्रदर्शन न दिखने वाले सिनेमाघरों को बंद कराने की धमकी भी मिली है, जबकि सरकार ने इस फिल्म को टैक्स फ्री कर दिया है। फिल्म पर तमाम प्रतिक्रियाएं आ चुकी हैं, लेकिन दो समीक्षाएं सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही हैं, जिन्हें आप भी पढ़ें और असहमति के बिंदुओं पर टिप्पणी करें या फिर अपनी समीक्षा हमें लिख भेजें। (Kashmir Files Viral Reviews)

(दोनों ही समीक्षाएं फेसबुक पर लिखी गई हैं, जो लेखकों के निजी विचार हैं, लेखकों के नाम में उनके अकाउंट का हाइपर लिंक अटैच है, मूलरूप में आप उनकी वॉल पर जाकर भी पढ़ सकते हैं।)


वायरल समीक्षा-1

ऋषभ दुबे

बनारस के ऋषभ दुबे ने फेसबुक पर लिखा है, The Kashmir Files देखते हुए मुझे Mathieu Kassovitz की फ़िल्म La Haine का एक डायलॉग बार बार याद आता रहा – Hate Breeds Hate…(Kashmir Files Viral Reviews)

वे आगे लिखते हैं-

ख़ैर …

मैं हर कहानी को पर्दे पर उतारने का समर्थक हूं। यदि कहानी ब्रूटल है, तो उसे वैसा ही दिखाया जाना चाहिए। जब टैरंटीनो और गैस्पर नोए, फ़िक्शन में इतने क्रूर दृश्य दिखा सकते हैं तो रियल स्टोरीज़ पर आधारित फ़िल्मों में ऐसी सिनेमेटोग्राफ़ी से क्या गुरेज़ करना।

और वैसे भी, तमाम क्रूर कहानियां, पूरी नग्नता के साथ पहले भी सिनेमा के ज़रिए दुनिया को सुनाई और दिखाई जाती रही हैं।

रोमन पोलांसकी की दा पियानिस्ट ऐसी ही एक फ़िल्म है। .. जालियांवाला बाग़ हत्याकांड की क्रूरता को पूरी ऑथेंटिसिटी के साथ शूजीत सरकार की सरदार ऊधम में फ़िल्माया गया है। (Kashmir Files Viral Reviews)

मगर आख़िर ऐसा क्या है कि पोलांसकी की दा पियानिस्ट देखने के बाद आप जर्मनी के ग़ैर यहूदियों के प्रति हिंसा के भाव से नहीं भरते? और शूजीत सरकार की सरदार ऊधम देखने के बाद आपको हर अंग्रेज़ अपना दुश्मन नज़र नहीं आने लगता। पर कश्मीर फ़ाइल्स देखने के बाद मुसलमान आपको बर्बर और आतंकी नज़र आता है। ऐसा क्यों?

मुझे इस क्यों का जवाब अनुप्रास अलंकार से सुसज्जित इस पंक्ति में नज़र आता है – कहानी को कहने का ढंग…

अच्छे फ़िल्ममेकर्स अपनी बात कहने के ढंग पर ध्यान देते हैं। कहानी से पूरी ईमानदारी करते हुए, अपनी ज़िम्मेदारी नहीं भूलते।

चलिए मैं बात साफ़ करता हूं- जैसे लिंकन ने डेमोक्रेसी की एक यूनिवर्सल डेफ़िनिशन दी है – ऑफ़ दा पीपल, बाई दा पीपल एंड फ़ॉर दा पीपल। वैसी ही कोई परिभाषा विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्मों के लिए भी गढ़ी जा सकती है … मसलन, एक विशेष वर्ग द्वारा, एक विशेष वर्ग के लिए और एक विशेष वर्ग के ख़िलाफ़…

आप ख़ुद सोचिए कि पूरी 170 मिनट की फ़िल्म में किसी लिबरल मुस्लिम कैरेक्टर की आधे मिनट की भी स्क्रीन प्रेज़ेंस नहीं है। लिट्रली निल!

मुस्लिम औरतों से लेकर, मस्जिद के इमाम तक सब विलन क़रार दिए गए हैं, मगर उस कम्युनिटी से एक शख़्स को भी वाइट शेड में दिखाने की कोशिश नहीं की। आप कहेंगे कि जब कोई वाइट शेड में था ही नहीं तो दिखा कैसे देते। मैं कहूंगा कि बकवास बंद करिए। (Kashmir Files Viral Reviews)

क्यूंकि उसी exodus के वक़्त, कश्मीर के मुस्लिम पॉलिटिकल फ़िगर्स से लेकर इस्लामिक धर्मगुरुओं की हत्या इस आरोप का जवाब है कि लोग उन पीड़ित कश्मीरी पंडितों के लिए बोले थे, आतंकवाद के ख़िलाफ़ खड़े हुए थे।

मगर उन्हें स्क्रीन पर दिखा कर शायद आपका नैरेटिव माइल्ड हो जाता। और वही तो नहीं होने देना था …. क्यूंकि ख़ून जितना खौले उतना बेहतर, गाली जितनी भद्दी निकले उतनी अच्छी .. नारा जितना तेज़ गूंजे उतना बढ़िया … वोट जितना पड़ें ….. है ना?

फ़िल्म बढ़ती जाती है और एक के बाद एक प्रॉपगैंडा सामने आता जाता है :

सेल्यूलर अस्ल में सिकुलर हैं, यानी बीमार हैं

संघवाद से आज़ादी, मनुवाद से आज़ादी … जैसे नारे लगाना देश से ग़द्दारी करना है।

कश्मीर में औरतों और लोगों के साथ जो भी ग़लत होता है वो वहां के मिलिटेंट्स, फ़ौज की वर्दी पहनकर करते हैं ताकि फ़ौज को निशाना बनाया जा सके।

मुसलमान आपका कितना भी ख़ास क्यों ना हो, मगर वक़्त आने पर वो अपना मज़हब ही चुनेगा।; … वग़ैरह वग़ैरह।

मगर इस सब के बावजूद मैं आपसे कहूंगा कि इस फ़िल्म को थिएटर में जाकर देखिए। ताकि आप फ़िल्म के साथ साथ फ़िल्म का असर भी देख सकें। (Kashmir Files Viral Reviews)

ताकि आप अपनी रो के पीछे बैठे लोगों से कांग्रेस को मां बहन की गालियां देते सुन पाएं और ख़ुद ये बताने में डर महसूस करें कि तब केंद्र में कांग्रेस नहीं जनता दल की सरकार थी। ताकि आप बेमतलब में जय श्री राम के नारे से हॉल गूंजता देखें। ताकि निर्देशक द्वारा एक तस्वीर को एक झूठे और बेहूदे ढंग से पेश होते हुए देखें और बगल वाले शख़्स से उस तस्वीर में मौजूद औरत के लिए रखैल …जैसे जुमले सुन सकें।

ताकि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद बाहर निकलती औरतों को ये कहते पाएं कि ;कुछ बातें ऐसी होती हैं जो खुल के बोल भी नहीं सकते, और मर्दों को ये बड़बड़ाते सुनें कि; हिंदुओं का एक होना बहुत ज़रूरी है वरना ये साले हमें भी काट देंगे।

फ़िल्म इन्हीं लोगों के लिए बनाई गई है। और जो लोग न्यूट्रल हैं, उन्हें इन जैसा बनाने के लिए।

वायरल समीक्षा-2

प्रेम सिंह सियाग

प्रेम सिंह सियाग लिखते हैं, कश्मीर फाइल्स के नाम पर बनी फिल्म आजकल चर्चाओं में है। मेरे आज तक यह समझ नहीं आया कि कोई बिना संघर्ष के कैसे अपनी विरासत छोड़कर भाग सकता है! किसानों की जमीनों पर आंच आई तो 13 महीने तक सब कुछ त्यागकर दिल्ली के बॉर्डर पर पड़े रहे। कश्मीर घाटी में आज भी जाट-गुर्जर खेती कर रहे है। पीड़ित होने का रोना-धोना आज तक दिल्ली जंतर-मंतर आकर नहीं किया है। (Kashmir Files Viral Reviews)

1967 के बाद से देश के बारह राज्यों में आदिवासियों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है और कारण इतना ही बताया जाता है कि विकास के रास्ते में रोड़ा बनने वाले नक्सली लोगों को निपटाया जा रहा है!

आदिवासियों का नरसंहार कभी चर्चा का विषय नहीं बनता है। उनके विस्थापन का दर्द, पुनर्वास की योजनाओं पर कोई विमर्श नहीं होता। सुविधा के लिए बता दूं कि 1989 तक कश्मीरी पंडित बहुत खुश थे और हर क्षेत्र में महाजन बने हुए थे। अचानक दिल्ली में बीजेपी समर्थित सरकार आती है और राज्य सरकार को बर्खास्त करके जगमोहन को राज्यपाल बना दिया जाता है।

कश्मीरी पंडितों पर जुल्म हुए और दिल्ली की तरफ प्रस्थान किया गया! उसके बाद बीजेपी ने कश्मीरी पंडितों का मुद्दा मुसलमानों को विलन साबित करने के लिए राष्ट्रीय मुद्दा बना लिया!

कांग्रेस सरकार ने जमकर इस मुद्दे को निपटाने के लिए सालाना खरबों के पैकेज दिए और जितने भी कश्मीरी पंडित पलायन करके आये उनको एलीट क्लास में स्थापित कर दिया। साल में एक बार जंतर-मंतर पर आते, बीजेपी के सहयोग से ब्लैकमेल करते और हफ्ता वसूली लेकर निकल लेते थे। (Kashmir Files Viral Reviews)

8 साल से केंद्र में बीजेपी की प्रचंड बहुमत की सरकार है व कश्मीर से धारा 370 हटा चुके हैं लेकिन कश्मीरी पंडित वापिस कश्मीर में स्थापित नहीं हो पा रहे है! धरने-प्रदर्शन से निकलकर हफ्ता वसूली की गैंग फिल्में बनाकर पूरे देश को इमोशनल ब्लैकमेल करके वसूली का नया तरीका ईजाद कर चुकी है!

आदिवासी रोज अपनी विरासत को बचाने के लिए चूहों की तरह मारे जा रहे हैं लेकिन कभी संज्ञान नहीं लिया जाता। आज किसान कौमों को विभिन्न तरीकों से मारा जा रहा है लेकिन कोई चर्चा नहीं होती।

1995 के बाद से आज तक तकरीबन 15 लाख किसान व्यवस्था की दरिंदगी से तंग आकर आत्महत्या कर चुके हैं लेकिन पिछले 25 सालों में एक भी बार जंतर-मंतर पर कोई धरना नहीं हुआ, राष्ट्रीय मीडिया में विमर्श का विषय नहीं बना और केंद्र सरकार की तरफ से चवन्नी भी राहत पैकेज के रूप में नहीं मिली। (Kashmir Files Viral Reviews)

भागलपुर, पूर्णिया, गोदरा के दंगों से भी पलायन हुआ व देश के सैंकड़ों नागरिक मारे गए। मुजफरनगर फाइल्स या हरियाणा जाट आरक्षण पर हरियाणा फाइल्स भी बननी चाहिए!

हर नागरिक की मौत का संज्ञान लिया जाना चाहिए। एक नागरिक की जान अडानी-अंबानी की संपदा से 100 गुना कीमती है। हफ्ता-वसूली की यह मंडी अब खत्म होनी चाहिए। भावुक अत्याचारों का धंधा कब तक चलाया जाएगा?

किसान कौम के बच्चे बंदूक लेकर इनके घरों की सुरक्षा के लिए खड़े हो तब ये लोग बंगलों में जाएंगे! क्यों देश इनका नहीं है क्या? ये नागरिक के बजाय राष्ट्रीय दामाद क्यों बनना चाहते है? (Kashmir Files Viral Reviews)

भारत सरकार संसाधन दे रही है आर्मी तैनात है तो डर किससे है? जिससे खतरा है उनके खिलाफ लड़ो! जाट-गुज्जर कश्मीर घाटी में आज भी रह-रहे हैं उन्होंने कभी असुरक्षा को लेकर रोना-धोना नहीं किया है।


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