क्या यह अस्मिताओं के संघर्ष का समय है? क्या है इसकी वजह

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दिनेश श्रीनेत

लंबे समय से ऐसे तमाम लोग, समुदाय, जातियां, प्रजातियां, देश, विचार एक ऐसा उभार लेकर सामने आ रहे हैं, जिसमें प्रश्नाकुलता है और खुद को गलत समझे जाने का रोष भी है। जब समाज के ये हिस्से अपनी अस्मिता के साथ संवाद करने आगे आते हैं तो सबसे बड़ा डिस्कोर्स का मुद्दा उभरता है कि इतिहास ने उनकी आवाज़ को फिल्टर किया है, उसे सीमित और उनकी संभावनाओं को संकुचित कर दिया है।

यह डिस्कोर्स, यह विमर्श हम कई तरह से देख सकते हैं। यह सारी दुनिया में जेंडर पर होने वाले विमर्श में दिखता है, यह नस्लवाद से जुड़ी बहसों में दिखता है, यह एलजीबीटीक्यू के मुख्यधारा में शामिल होने में नजर आता है, यहां तक कि यह बहुत सारे देशों के राष्ट्रवादी उभार में भी दिख रहा है। इसने समाज में एक सतत संघर्ष को जन्म दिया है।

ऐसा लगता है, जैसे आने वाले समय में यह संघर्ष और गहरा होगा। इसके पीछे दो बड़ी वजहें नज़र आती हैं। पहला, ग्लोबलाइजेशन- मुक्त व्यापार की परिकल्पना ने देशों की सरहदें तोड़ीं और बहुराष्ट्रीय कारोबारी कंपनियों का विकास हुआ। इसने एक मल्टीनेशनल कल्चर भी विकसित किया।

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एक ऐसी संस्कृति जो अपनी भौगोलिक परिधि से परे एक समानांतर दुनिया का निर्माण कर रही है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई भारत में है या पाकिस्तान में, यूके में है या अमेरिका में- वे सभी ‘गेम आफ थ्रोन्स’ की सिग्नेचर ट्यून को सुनकर एक समान रोमांचित हो सकते हैं। वे सभी एक ब्रांड के कपड़े पहन सकते हैं, उनकी खाने और सोने की आदतें एक जैसी हो सकती हैं।

दूसरा फर्क आया रातों-रात सूचना महामार्ग खड़ा हो जाने से। एल्विन टॉफ्लर ‘फ्यूचर शॉक’ और ‘द थर्ड वेव’ जैसी किताबों के माध्यम से तकनीकी के समाज पर पड़ने वाले असर की व्याख्या बहुत पहले ही कर चुके थे। वहीं सैमुअल फिलिप्स हंटिंगटन ने 1993 में ही अपनी किताब ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशन्स’ में कह दिया कि भविष्य के युद्ध देशों के बीच नहीं, बल्कि संस्कृतियों के बीच लड़े जाएंगे।

उनकी विवादास्पद स्थापनाएं भी रही हैं जिनमें नई विश्व व्यवस्था के प्रति संदेह और भय दिखता है। तभी वे यह साबित करने का प्रयास करते हैं कि इस्लामी चरमपंथ विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा बन जाएगा और ‘हू आर वी? द चैलेंजेस टू अमेरिकाज नेशनल आइडेंटिटी’ में इस बात पर चिंता जताते हैं कि प्रवासियों की समस्या की अनदेखी से अमेरिका का भविष्य में दो अलग गुटों में बँट सकता है। अमेरिका में बीते छह-सात वर्षों के राजनीतिक परिदृश्य में उनके इस राजनीतिक भय की छायाएं देखी जा सकती हैं।

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भारत के हिंदु राष्ट्रवादी उभार को भी इसी रूप में देखा जाना चाहिए। दुर्भाग्य से अभी हम इसे एक सांस्कृतिक संकट के रूप में न देखकर कुछ राजनीतिक दलों की योजनाबद्ध रणनीति के रूप में देख रहे हैं। इस विचलन से कभी हमें सही जवाब नहीं मिल पाएगा।

इस तरह से सांस्कृतिक अस्मिता के संघर्ष के दो रूप हैं। हर अस्मिता किसी अन्य के समानांतर खड़ी होने से ही अपने वजूद का निर्माण करती है। जेंडर के सवाल इसलिए हैं कि उसके सामने ‘अन्य’ के रूप में पुरुष सत्ता खड़ी है। नस्लवादी विचारधाराएं इसलिए पनप नही हैं क्योंकि वहां अन्य में उनकी उस पहचान के विलय होने का भ है, जिसके आधार पर अभी तक उनकी सामाजिक-राजनीतिक संरचना खड़ी है।

विलय हो जाने का भय इतना गहरा है कि उन्हें काल्पनिक अन्य खड़े करने पड़ते हैं और उन्हें अपनी अस्मिता का शत्रु साबित करना पड़ता है। अमेरिका के लिए अन्य लैटिन और इसलामी प्रवासी हैं तो भारत के लिए पाकिस्तान और इसी सरज़मीं की अन्य संस्कृतियां। हटिंगटन जैसे लेखक इस तर्क को पुख़्ता करने और उन पर आम राय बनाने का काम करते हैं। यह किताबों से चलकर अब मीडिया और सोशल मीडिया तक पहुँच गया है।

पहले जिस सोशल मीडिया का रूप व्यक्ति केंद्रित था अब वह भीड़ संचालित हो गया है, जिसकी परिणति हम ट्रेंडिंग टॉपिक्स में देख सकते हैं। ‘ट्रेंडिंग’ एक फैशनेबल शब्द है मगर उसे हम बिना हिचक भेड़चाल भी कह सकते हैं। यह संघर्ष आने वाले वर्षों मे और गहराएगा और इस समस्या का हल राजनीति में नहीं बल्कि सांस्कृतिक आंदोलन में मौजूद है।

समाज के विभिन्न हिस्सों को अपनी अस्मिता के प्रति सचेत और मुखर होने का मौका मिला है यह अच्छी बात है मगर उसे अन्य के साथ अपने रिश्तों का ख्याल रखना होगा। संघर्ष वहां गहरा रहा है जहां पर अन्य के अस्तित्व को नकारते हुए अपने वज़ूद को स्थापित किया जा रहा है।

दरअसल समाज के प्रत्येक हिस्से की अस्मिता अन्य पर ही टिकी हुई है इसलिए असली लड़ाई सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के खिलाफ होनी चाहिए। मुखर होना, आवाज़ देना- सही दिशा हो सकती है मगर ज़रा से भटकाव के चलते वर्चस्ववादी होने की तरफ बढ़ जाता है।

तो ‘क्लैश’ दरअसल ‘सिविलाइजेशंस’ के बीच नहीं है बल्कि एकाधिकार और सबके साथ सह-अस्तित्व की भावना के बीच है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, यह उनके निजी विचार हैं)

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