#IndianArmy: महाराणा प्रताप की तरह प्रण लेने वाले भारतीय सेना के बिग्रेडियर उस्मान

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– जन्मदिन –


सांप्रदायिकता के इस दौर में आज मामूली सी बातों पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं सामने आ रही है। राहत इंदौरी की शायरी ”सभी का खून शामिल है यहां की मिट्टी में…”का मजाक बनाने को तुकबंदियां रचने वाले लिंच करने वालों के प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। जबकि इन पंक्तियों को बार-बार इतिहास में सच साबित किया गया है।

इन पंक्तियों का सच जानने के लिए एक बार ब्रिगेडियर उस्मान को जरूर पढ़ा जाना चाहिए। जो चाहते तो पाकिस्तान के शायद पहले थलसेना अध्यक्ष हो सकते थे, लेकिन वे भारत की सेना पर जान न्योछावर कर गए। जिन्होंने न सिर्फ दुश्मन देश के मंसूबों को फेल कर दिया, बल्कि हिंदू-मुस्लिमों के बीच भरोसे की डोर को मजबूत कर चुनौतियों का सामना किया।

यह वही उस्मान थे, जिन्होंने महाराणा प्रताप जैसा प्रण लिया और तब तक चारपाई पर नहीं सोए, जब तक पाकिस्तान से वह हिस्सा नहीं छीन लिया, जो भारत के लिए रणनीतिक तौर पर अहम था। उनके जेहन में यह सवाल ही कभी नहीं आया कि वे एक हिंदू बहुल देश की रक्षा कर रहे हैं। भारत उनका भी, उनके पुरखों का और आने वाली नस्लों का भी देश था, जिसकी हिफाजत उनका फर्ज बना। उन जैसा जांबाज न होता तो भारतीय कश्मीर पर नाज शायद ही कर पाते।

उन्होंने कभी खुद को पीड़ित मानकर निराशा जाहिर नहीं की। इसी वजह से उनकी धार्मिक पहचान से ज्यादा उनकी पहचान देशभक्त फौजी की है। निष्ठा पर शक करने वालों के सामने ब्रिगेडियर उस्मान ने कभी कोई सफाई नहीं दी। बल्कि देशभक्ति की वह नजीर स्थापित कर दी, जो सेना में आज भी एक मानक है।

महज 36 साल की उम्र में इतिहास रचने वाले ब्रिगेडियर उस्मान को आमतौर पर ‘नौशेरा का शेर’ कहकर पहचान मिली है। जिनके पार्थिव शरीर को खुद प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रिसीव किया और शायद ही कोई ऐसा शख्स उस वक्त रहा होगा, जिसकी आंखें नम न हुई हों।

मोहम्मद उस्मान अविभाजित भारत में मऊ जिले के बीबीपुर गांव में 15 जुलाई 1912 को पैदा हुए। पिता मोहम्मद फारूक पुलिस अफसर थे। वो चाहते थे कि बेटा सिविल सर्विस में जाए, लेकिन उस्मान ने सेना को तरजीह दी। उस्मान ने रॉयल मिलिट्री अकादमी सैंडहर्स्ट के लिए अप्लाई किया और 1932 में इंग्लैड गए।

1 फरवरी 1934 को उस्मान सैंडहर्स्ट से पास हुए। इस कोर्स के लिए चुने गए 10 भारतीयों में से एक थे। बलोच रेजिमेंट की कमान के अलावा कई अहम जिम्मेदारियों को निभाया। सेकेंड लेफ्टिनेंट से कैप्टन और फिर मेजर बने। मोहम्मद मूसा और सैम मानेकशॉ उनके बैचमैट थे, जो आगे चलकर भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के चीफ बने।

कई सैन्य इतिहासकारों की राय है कि अगर ब्रिगेडियर उस्मान की समय से पहले मौत न हो गई होती तो वो शायद भारत के पहले मुस्लिम थल सेनाध्यक्ष होते। 

देश के बंटवारे का समय उस्मान पर दबाव बढ़ने लगा। पाकिस्तान बनाने वालों की नजर में वे थे। कुशल और बहादुर सैनिक अफसर, वो भी मुसलमान। उस्मान को ऑफर भेजा गया कि वे पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन जाएं, उन्हें आगे सेना अध्यक्ष बना दिया जाएगा। उस्मान ने एक झटके में ऑफर ठुकरा दिया। आखिरकार पाकिस्तान चली गई बलोच रेजिमेंट से उनका ट्रांसफर भारतीय सेना की डोगरा रेजिमेंट में हो गया।

देश बंटवारे ने सभी के मन में खटास पैदा कर दी थी। ऐसे में उस्मान को अपने ही सैनिक साथियाें का भरोसा हासिल करने की चुनौती पेश आई। फिर वो हुआ, जिसके बाद आज तक सेना इस मिसाल को अपना अभिमान समझती है। ब्रिगेडियर उस्मान की कब्र क्षतिग्रस्त होने पर सेना ने जो नाराजगी बीते समय जताई थी, वह इस अभिमान का छोटा सा हिस्सा था। सेना ने तब गुस्से में कहा, ‘हम अपने शहीदों की भी रक्षा करना जानते हैं’।

ब्रिगेडियर उस्मान पर सेना का अभियान यूं ही नहीं है। इसके पीछे एक इतिहास है। सब जानते हैं, आजादी के बाद देश बंटवारे के समय पाकिस्तान ने कश्मीर हथियाने की कोशिश की। कबाइलियों और पाकिस्तानी सैनिकों ने मिलकर नवंबर 1947 में राजौरी और उसके आसपास के इलाकों कब्जा कर लिया।

मीरपुर, झंगड़ और कोटली में 50 पैरा ब्रिगेड को पीछे हटना पड़ा। इस ब्रिगेड के ब्रिगेडियर परांजपे इस घटनाक्रम के समय जब बीमार हो गए तो ब्रिगेड की कमान मोहम्मद उस्मान के हाथ में आई। उन्होंने झंगड़ को भारतीय सेना के अधीन लाने की एक कोशिश की, लेकिन तब कामयाब नहीं हुए। कबाइलियों ने बड़ी तादाद में हमला कर झंगड़ को कब्जे में ले लिया।

बंटवारे से टूटे भरोसे की वजह से यह नाकामी ब्रिगेडियर उस्मान की निष्ठा पर सवाल बनने लगी। उस वक्त सेना में इस ओहदे पर एकमात्र मुसलमान ब्रिगेडियर उस्मान ही थे। तब यह खबर आम थी कि पाकिस्तान ने उन्हें अपना सेनाध्यक्ष बनाने का ऑफर दिया है, जिसके मनमाने नतीजे निकालकर अफवाहें चलने लगीं।

इन बातों को नजरअंदाज कर ब्रिगेडियर उस्मान ने अपने लक्ष्य पर रणनीति केंद्रित कर दी। उन्होंने कसम खाई कि जब तब झंगड़ को जीत नहीं लेते, पलंग पर नहीं, जमीन पर सोएंगे। ब्रिगेड में यह चलन शुरू कराया कि जब भी आपस में मिलें ‘जय हिंद’ बोले। संवाद की भाषा के रूप में हिंदी का इस्तेमाल करने का आदेश दिया।

इन फैसलों में कुछ ऐसा छुपा था, जो इतिहास बनने वाला था। इसके बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा से बढ़कर फिर हमला बोला और झंगड़ पर भारतीय झंडा गाड़ दिया। सबसे आगे रहकर नेतृत्व दिया इसलिए उन्हें ‘नौशेरा का शेर’ कहा जाने लगा। उस्मान के इस साहस से पाकिस्तान बौखला गया और उसने उन्हें मारने वाले को 50 हजार रुपए इनाम देने का ऐलान कर दिया।

जनवरी 1948 में ही पश्चिमी कमान का चार्ज लेने के बाद लेफ़्टिनेंट जनरल करियप्पा ने नौशेरा का दौरा किया। अर्जुन सुब्रमण्यम अपनी किताब ‘इंडियाज वार्स’ में लिखते हैं, वापस लौटने से पहले करियप्पा ब्रिगेडियर उस्मान की तरफ़ मुड़े और उन्होंने उनसे कहा कि मैं आपसे एक तोहफा चाहता हूं, मैं चाहता हूं कि आप नौशेरा के पास के सबसे ऊंचे इलाके कोट पर कब्जा करें, क्योंकि दुश्मन वहां से नौशेरा पर हमला करने की योजना बना रहा है। उस्मान ने करियप्पा से वादा किया कि वो उनकी फरमाइश को कुछ ही दिनों में पूरा कर देंगे।

कोट पर हमला 1 फरवरी, 1948 की सुबह 6 बजे किया गया और 7 बजे तक ये लगने लगा कि कोट पर भारतीय सैनिकों का क़ब्ज़ा हो जाएगा। बाद में पता चला कि बटालियन ने गांव के घरों की अच्छी तरह से तलाशी नहीं ली थी और वो कुछ कबाइलियों को पहचान नहीं पाए, जो सो रहे थे।

नतीजतन, आधे घंटे के अंदर कबाइलियों ने जवाबी हमला करके कोट पर दोबारा कब्जा कर लिया। उस्मान ने इसका पहले से ही अंदाज़ा लगाते हुए दो कंपनियां रिजर्व में रखी थीं। उनको तुरंत आगे बढ़ाया गया और 10 बजे कोट पर दोबारा कब्जा कर लिया गया। इस युद्ध में कबाइलियों के 156 लोग मरे जबकि 2/2 पंजाब के सिर्फ 7 लोग मारे गए।

6 फरवरी, 1948 को कश्मीर युद्ध की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी गई। सुबह 6 बजे उस्मान कलाल पर हमला करने वाले थे, तभी उन्हें पता चला कि कबाइली उसी दिन नौशेरा पर हमला करने वाले हैं। इस हमले में कबाइलियों की तरफ से 11000 लड़ाके उतरे। इस भयानक युद्ध में आखिरकार नौशेरा फतेह कर लिया गया। ब्रिगेडियर उस्मान रातोंरात देश के हीरो बन गए। जीत का सेहरा उनके सिर बंधा तो वे नाराज भी हुए कि इस जीत का श्रेय सैनिकों को मिलना चाहिए जिन्होंने इतनी बहादुरी से लड़कर देश के लिए अपनी जान दी।

18 मार्च को झंगड़ भारतीय सेना के नियंत्रण में आ गया था। जनरल वीके सिंह ब्रिगेडियर उस्मान की जीवनी में लिखते हैं, ‘जब झंगड़ पर कब्जा हुआ तो ब्रिगेडियर उस्मान के लिए एक पलंग मंगवाई गई, लेकिन ब्रिगेड मुख्यालय पर कोई पलंग उपलब्ध नहीं थी, इसलिए नज़दीक के एक गांव से एक पलंग उधार ली गई और ब्रिगेडियर उस्मान उस रात उस पर सोए’।

झंगड़ फतेह के बाद अग्रिम चौकी का मुआयना करने निकले ब्रिगेडियर उस्मान दुश्मन की गोलीबारी की जद में आ गए और वहीं शहीद हो गए। 25 पाउंड का एक गोला पास की चट्टान पर गिरा और उसके उड़ते हुए टुकड़े ब्रिगेडियर उस्मान के शरीर में धंस गए और उनकी उसी जगह पर मौत हो गई। झंगड़ में उसी चट्टान पर उनका स्मारक बना है, जहां गिरे तोप के एक गोले ने उनकी जान ले ली थी।

ब्रिगेडियर उस्मान ने 3 जुलाई 1948 को आखिरी सांस ली। राजकीय सम्मान के साथ उनका दिल्ली में अंतिम संस्कार हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, पूरी कैबिनेट और भारत में ब्रिटिश सरकार के आखिरी गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटेन भी शामिल हुए। उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

ब्रिगेडियर उस्मान की क्षतिग्रस्त कब्र को सेना ने ठीक कराया

ब्रिगेडियर उस्मान सिर्फ दिलेर नहीं थे, उनके दिल में आम लोगों के लिए करुणा थी, प्यार था, हमदर्दी थी। सेना से जुड़े लोग बताते हैं, झंगड़ के भारतीय सेना के हाथ से निकल जाने के बाद बहुत से आम नागरिकों ने नौशेरा में शरण ली थी। उस समय वहां खाने की कमी थी। लिहाजा उस्मान ने अपने सैनिकों को मंगलवार को व्रत रखने का आदेश दिया, जिससे उस दिन का बचा हुआ राशन आम लोगों को दिया जा सके। ब्रिगेडियर उस्मान ने ताउम्र शराब नहीं पी। डोगरों के साथ काम करते हुए वो शाकाहारी भी हो गए थे। पूरी उम्र अविवाहित रहे और वेतन का बहुत बड़ा हिस्सा गरीब बच्चों की मदद को देते रहे।

उनके जीवनीकार जनरल वीके सिंह किस्सा सुनाते हैं, नौशेरा पर हमले के दौरान उन्हें बताया गया कि कुछ कबाइली एक मस्जिद के पीछे छिपे हुए हैं और भारतीय सैनिक पूजास्थल पर फायरिंग करने से झिझक रहे हैं। उस्मान ने कहा कि अगर मस्जिद का इस्तेमाल दुश्मन को शरण देने के लिए किया जाता है तो वो पवित्र नहीं है। उन्होंने उस मस्जिद को ध्वस्त करने के आदेश दे दिए।


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