दिनेश श्रीनेत
जितेंद्र श्रीवास्तव की यह कविता अपने में बहुत विशिष्ट है। इसे इस दौर की और शायद वैश्विक महामारी काल में लिखी हिंदी की यादगार कविताओं में गिना जाएगा। इसे आरंभ से अंत तक पढ़ना किसी तकलीफदेह सफर से गुजरने जैसा है जो अंत तक आते-आते हमें उम्मीद और आशा की तरफ ले जाता है।
यह अद्भुत कविता निजी अनुभूति, दुख-राग-विराग से उठती हुई देशकाल तक फैल जाती है। मैं पहले भी कह चुका हूँ कि बहुत से रचनाकारों की कहानियों में कविता होती है, जितेंद्र की कविताओं में जाने कितनी कहानियां छिपी रहती हैं। यह कविता अपने में एक पूरा उपन्यास समेटे हुए है।
हिंदी में लंबी कविताएं कम ही लिखी गई हैं, मगर हमारे जेहन में कई लंबी यादगार कविताओं की मौजूदगी है। मुक्तिबोध की लंबी कविताओं के अलावा निराला की ‘सरोज-स्मृति’ व ‘तुलसीदास’, अज्ञेय की ‘असाध्य वीणा’, धुमिल की ‘पटकथा’ और केदारनाथ सिंह की ‘बाघ’ जैसी कविताओं ने अपने तरीके से समय और इतिहास की पदचाप को किसी विशाल कैनवस पर बनी पेटिंग या नाट्य रचना की तरह देखा है। कविता सिर्फ आकार में लंबी हो तो वह सिर्फ शब्दों आडंबर बनकर रह जाएगी। उसके भीतर महाकाव्यात्मकता निहित होनी चाहिए।
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जितेंद्र की यह कविता मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य की एलिगरी है। इस कविता में जाने कितनी पंक्तियां हैं जो अविस्मरणीय बन गई हैं। जिन्हें बार-बार पढ़ने, कहने और उस भावबोध में होने का जी चाहेगा। आज हम जिस अंधेरे समय में जी रहे हैं, यह कविता उम्मीद जताती है कि रात कितनी भी लंबी या अंतहीन सी क्यों न लगे, सुबह की उम्मीद बरकरार रखनी होगी, जीने का हौसला अंततः वहीं से मिलेगा।
संयोग से इस कविता को पढ़ते हुए मुझे आज ही पुलिस मुख्यालय के बाहर चल रहे प्रदर्शन में शामिल कथाकार-पत्रकार अनिल यादव के इंटरव्यू का स्मरण हो आया, जिसमें उन्होंने कहा कि आंदोलनों के इस दमनचक्र में भविष्य के नेता तैयार हो रहे हैं और ज्यादातर भविष्य के नेता इस समय जेलों में हैं।
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अथ कोरोना कथा: कोई सीधी रेखा नहीं है जीवन
1.
यह कैसा भीषण एकांत है
जब दीवारें भी बच रही हैं स्पर्श से
वे लोग जो लुटाते हैं मुझ पर जान
सहमे हुए हैं
बेटियाँ झूल जाना चाहती हैं गले में
पर लाचार निहार रही हैं दूर से
सजल हैं उनके नेत्र
ओ मेरी जीवन रेखा मेरी साँसों की डोरी
ओ मेरी प्राण श्यामा
मैं जानता हूँ
तुम विकल हो बहुत विवश भी
मैं देख सकता हूँ
तुम्हारी पुतलियों के पार
बह रहे आँसू…
2.
जिस सीने के रेशे-रेशे में रहती हो तुम
उसी में छिपकर बैठा है शातिर कोरोना
किसी-किसी क्षण टूटता है जिंदगी में भरोसा
लड़खड़ाने लगता है मन
कि तुम आ जाती हो सामने
इन सबको परे धकेलते हुए
ओ मृगनयनी श्यामा
तुम्हारे सजल विश्वास भरे ये दो नयन
फिर से बाँध लेते हैं मन
आशा सी बँध जाती है
जीवन के पटरी पर लौटने की….
3.
कल पूरी रात तड़पता रहा
न नींद थी न पूरी साँस
कुछ अधूरे सपने
उदास बैठे रहे सिरहाने
कई बार लगा
जैसे आ ही गई अब विदा की बेला
उस क्षण आंखों में चुचाप बैठी थीं बेटियाँ
वैसे भी वे रहती हैं वहीं
लगा जैसे
कितना कम चल पाया मैं उनके साथ
ठीक से खेल भी नहीं पाया
देख नहीं पाया उन्हें उड़ान भरते
सजल नैनों से बार-बार निहारा तुम्हारी ओर
मन ही मन जोड़ लिए हाथ
इस अधूरे साथ के लिए क्षमा करना प्रिय!
4.
मैं अकेला ही तो हूँ इस कमरे में
निपट अकेला
ताकता छत अपलक
फिर यह कौन है
जो छिप रहा है उधर कोने में
दरवाजे के पास
देखता हूँ गौर से
और रह जाता हूँ अवसन्न
यह कोई और नहीं
परछाईं है मेरी ही….
5.
रात के इस अंधेरे में
ऊब- डूब रहा है मन
बहुत उदास सी लग रही है
कमरे में पसरी नाईट बल्ब की गुलाबी रोशनी
सिरहाने की खिड़की से हटाता हूँ पर्दा
तन्हा सा खड़ा है लैम्पपोस्ट
नीम गाछ के नीचे
कोशिश करता हूँ देखने की
पर दिखता नहीं है चन्द्रमा
कहीं कहीं विरल से दिखते हैं तारे भर
साथी से छूट जाने की पीड़ा लिए
याद करता हूँ
इतनी उदास रातें
कभी नहीं आईं थीं जिंदगी में
कभी मेरी साँसों को भी
नहीं करना पड़ा था इस तरह संघर्ष
एक पल कमरे में दौड़ाता हूँ नज़र
किसी अगले क्षण ताकता हूँ खिड़की से बाहर
पता नहीं
मेरी रात की सुबह होगी भी या नहीं!
6.
जब भी हाथ बढ़ाता हूँ आक्सीमीटर की ओर
अजीब सी सिहरन होती है
तलुओं से लेकर माथे तक
पसीना चुहचुहा जाता है
कनपटी के नीचे
डॉक्टर की सख़्त हिदायत है
कि दिन भर में
कम से कम दो बार चेक करनी है आक्सीजन
जिसे होना चाहिए 95 या ऊपर
यदि ऐसा नहीं हुआ
तो बज उठेगी खतरे की घण्टी
तो होना ही पड़ेगा अस्पताल में भर्ती
जैसे ही ज़िक्र आता है अस्पताल का
उतर जाता है बेटियों का चेहरा
आँखें डबडबा जाती हैं पत्नी की
और भीतर ही भीतर
मैं भी गल जाता हूँ थोड़ा सा
पता नहीं, फिर लौटना होगा कि नहीं.…
7.
रात बीत चुकी है लगभग
सुनाई दे रही है ब्रह्ममुहूर्त की पदचाप
झर रही है शीतलता
तारों की देह से झर झर झर
बुझ रहा है भीतर पसरा जहर
यह मलय समीर है शायद
जो हल्के से छू कर गई है
अभी बिल्कुल अभी मेरी त्वचा को
एक ताजगी सी उभर आई है
मन- मष्तिष्क में
कोई उजली हँसी
खनखना गई है कानों में
संगीत घोलती हुई
लगता है
अब खिलने को है सुबह का फूल
प्रातःकमल
बस अब खिला कि तब खिला….
8
बहुत दिनों बाद
देख रहा हूँ पौ फटना
बहुत दिनों बाद
महसूस रहा हूँ
मन की धुंध का छँटना
सखि, छोटी नहीं,
बहुत बड़ी है यह घटना!
9.
अधरों को भा रहा है पानी
जिह्वा को नमक
नाकों को गमक
लौट रही है धीरे-धीरे
बूँद-बूँद रक्त की तरह
तन में जीवन की धमक…..
10.
एक रात और बीती
कुछ साँसें फिर जीतीं
टूटती है एक साँस जिस क्षण
लपककर थाम लेती है दूसरी उसे उसी विंदु पर
जैसे लौ से जुड़ जाती है
न दिखती दूसरी लौ…
11.
उतरते अक्टूबर की इस साँझ
तुम दरवाजे के पास से निहारती हो मुझेअपलक
जैसे पहले कभी न देखा हो इस तरह
बिजली सी उभरती है
फेफड़ों में कहीं
थिर जाती है खाँसी
बहुत दिन बीते
होठों ने महसूस नहीं किया तुम्हारे अधरों का भाप
लगता है जरूर किया होगा मैंने कोई पाप
मैं इस क्षण डूबना चाहता हूँ
तुम्हारे नैनों की नदी में
पर डूब नहीं सकता
अनुमति नहीं पास आने की
पर मैं महसूस कर रहा हूँ डूबना
अपने आधे-अधूरेपन के साथ….
12.
रात के दो बज चुके हैं
इस समय नींद का आवेग सबसे अधिक होता है
किंचित मधुर भी
नींद में गूँजता है कोई आदिम संगीत
होठों पर आ जाती है हँसी भी अनायास
पर जगा हूँ मैं
जबकि चाहता नहीं इस तरह जागना
कितनी तो बीत गई उम्र
न जाने क्या-क्या करते हुए!
भटका भी बहुत रातों में
बेतरतीब आवारा कभी-कभी भूखा भी
पर इस तरह एकटक ताकता कभी न मिला था चन्द्रमा
जैसे आज ताक रहा है खिड़की से किसी सनातन प्रेमी की तरह
वह न जाने क्या देख रहा है मुझमें
अब तक तो मैं ही निहारता था उसे
चकोर की तरह
वैसे वह अब भी है पहले जितना ही सुंदर उतना ही शीतल
इस समय टूट रहा है कुछ जुड़ रहा है कुछ
मेरी आँखों में उतर रहा है उसका जल…
13.
जब पहली बार देखा था तुम्हें
बस आँखें देखी थीं तुम्हारी
सपनों से भरी चपल बोलती हुई
कितनी दुबली तो थीं तुम
बिल्कुल आज की तरह ही
हवा के झोंके की तरह
पर मुझे बस सुनाई दी थी खनकती हँसी
तुम बदली ही नहीं कभी
मुझमें समाई तो प्राण बन गईं मेरी
मुझे वो हरा परिधान याद है अब तक
उसका टटका सा रंग
कभी छटका ही नहीं मेरे मन ओसारे से
लगभग सौ वर्ष पुराने
सेन्ट एंड्रूज कॉलेज के उस भव्य विशाल चर्च की छाया में
तुमसे अधिक पवित्र कुछ भी न था उस पल
अब भी नहीं होगा
मुझे यकीन है….
14.
यह सुबह 3 बजे से 5 बजे तक का समय
थोड़ा मुश्किल है इन दिनों
तेज खाँसी उभरती है
टूटती है साँस
पर मैंने एक नई तरकीब निकाल ली है
मैं सोचने लगता हूँ
अपने प्रेम के आरंभिक दिनों के बारे में
और होंठ मुस्कुराने लगते हैं मेरे
साँसों में समा जाती है वीणा की ध्वनि
कोई पवित्र संगीत निर्झर की तरह झरने लगता है
किसी अदेखे हिमखंड से
इससे अधिक पावन कोई बरखा
न मैंने देखी है आज तक
न की है महसूस
उन्ही पलों में
तुम लहराती हुई आती हो
और घुल जाती हो मेरी पुतलियों में
मैं भींगता चला जाता हूँ
जीवन की धूप में..…
15.
सुबह हो गई
कोई चिड़िया बोली है
हरसिंगार की डाल से
रोशनी का एक सूत
हँसते लजाते चला आया है कमरे में
छू कर देखता हूँ उसे
वह किसी बिल्कुल नए सपने की तरह नम है
भोर की मिट्टी ज्यों ….
16.
हर दुःख बीतता है
जैसे बीत जाती है कोई कठिन ऋतु
जैसे एक दिन उतर जाता है ज्वर
फिर सामान्य करते हुए देह को
धीरे-धीरे चली जाती है
देह में भर आई खरखराहट
कहीं उभरती है
किसी अदेखे छोर से एक मुस्कुराहट
मद्धिम पड़ जाता है दर्द का नगाड़ा
गुनगुना उठता है मन का हारमोनियम
उस अलस भोर में
अब तक न गाया गया कोई राग
खिड़की से धीरे-धीरे आती है दबे पाँव
किसी नवजात के तलुओं सी
मुलायम , पवित्र औरउम्मीदों से भरी फूलों की खुशबू
मैं देख पाता हूँ इस जीवन में पहली बार
काया कमनीय हवा की
जैसे प्रिया हो खड़ी मेरे काँधे पर रखे हुए हाथ
जैसे अमृत सा मिला है उसका साथ…
17.
आज कितने दिनों बाद
तुम सोई हो निश्चिन्त
इस समय रुई के फाहों से भी हल्की है तुम्हारी साँस
सोए सोए भी मुस्कुरा रही हैं तुम्हारी ये बड़री अँखियाँ
ज्वर मेरी देह से गया
और मन तुम्हारा हल्का हुआ
इस प्रमेय को कभी नहीं हल कर पायेगा कोई गणितज्ञ
अभी बहुत कुछ परे है
विज्ञान और गणित से
रुको, ओ मन ! जरा रुको
इस पल एक जरुरी प्रार्थना कर लूँ मैं अविलम्ब
कहीं ईर्ष्या न कर बैठे मेरा भाग्य मुझी से!
18.
आत्मा से गहरा नहीं कोई समुद्र
पारदर्शी तो बिल्कुल नहीं
वह आत्मा ही है
जो विषाक्त रसायन को बदल देती है
जीवद्रव्य में
हे मन!
यह भोर है कार्तिक की
विदा बेला नहीं
महसूस करो इसे
यह औषधि है पी लो इसे
देखो, स्वप्न झर रहे हैं नीड़ से!!
19.
मृत्यु की बातें सुनी थीं
देखा नहीं था उसे
पर एक रात
अपने सिरहाने बैठे देखा मैंने उसे
वह सहला रही थी मेरी बरौनियों को
बड़ी सर्द थीं उसकी उंगलियाँ
फिर किसी पल अचानक दहक उठी थीं वे
वहीं दूसरी ओर मैंने
जीवन को भी देखा उदास बैठे हुए
वह सहला रहा था मेरे तलुओं को
उस क्षण उसकी छुवन में चुभन सी थी
जैसे निकल रहा हो कोई काँटा गहरे फँसा हुआ
उन दोनों के बीच देह थी मेरी
निर्निमेष ताकती बेटियाँ थीं मेरी
और तेजोमय सिंदूर था
तुम्हारी माँग में किसी नक्षत्र की तरह दिपदिपाता हुआ
यह तस्वीर है उस पल की
पुतलियों के एलबम में सबसे ऊपर सबसे ताजी
इसमें कोई चित्रकारी नहीं है मेरी
मैं तो रंगहीन था उन क्षणों में
मेरा सारा रंग बोध बिला गया था मिट्टी के रंग में
धीरे-धीरे गुजरी वह रात
धीरे-धीरे खत्म हुई जीवन से मृत्यु की बात
धीरे-धीरे लौटी मेरी चेतना….
20.
धीरे-धीरे सहज हो रही हैं साँसें
धीरे-धीरे मन पसार रहा है पाँखें
धीरे-धीरे
मन ने धीर धरा है कुछ
धीरे-धीरे भावों ने शब्दों से कहा है कुछ
धीरे-धीरे नरम धूप लौटी है
मन के सिरहाने
धीरे-धीरे सूखने लगे हैं
मन की त्वचा पर उभर आए दाने
धीरे-धीरे लौटी है हँसी
बेटियों के अधर पर
धीरे-धीरे घर गुनगुना उठा है प्रिया संग
21.
नींद उचट गई है
रोज ही उचट जाती है आधी रात के बाद
दवाओं का असर
अभी इस रूप में बाकी है
गला सूखता है बार-बार
छाती में उभर आता है भारीपन
बदलने लगता है साँसों का सुर
मैं शयन कक्ष से निकलकर
बैठ जाता हूँ अध्ययन कक्ष में
निहारता हूँ किताबों को
बुदबुदाता हूँ प्रार्थनाएं
पढ़ता हूँ शमशेर की कविताएँ
रात कटती है धीरे-धीरे
उसमें नहीं होती नवजात की चपलता
घण्टों बाद पुतलियों के कानों में
बज उठता है सुबह का संगीत
थिर जाती है थकन
धीरे-धीरे जीवन में कम होने लगता है गद्य का दबाव।
22.
यह सोचना कि यह समय
सिर्फ निराशा का समय है
निराशा को मान लेना है समय से भारी
जबकि हम सब जानते हैं कि
‘वक्त की हर शै गुलाम’
मैंने भी महसूस किया इस अवधि में
कुछ ऐसे लोगों का औदात्य
जिनकी उम्र खप रही है दाल-रोटी के जुगाड़ में
मेरे लाख मना करने के बाद भी
वे बढ़कर आये आगे
और थाम लिया मेरा दुःख
यह जीवन ऋणी है अब उनका सदा सदा के लिए….
23.
लोग करते हैं फोन
पूछते हैं हालचाल
करते हैं बातें मदद की
पर भीतर ही भीतर सोचते रहते हैं
कि कहीं सचमुच ही न माँग ले मदद यह आदमी
फोन पर चल रहे संवाद से
कई बार चकित होता है फोन भी
शायद सोचता होगा
दुनिया के मेले झमेले के बारे में
यहाँ जो है वह कभी नहीं दिखता
और जो दिखता है
वह सत्याभास भी नहीं होता
सचमुच कोरोना आईना है
मध्यवर्गीय उच्चवर्गीय जीवन की विडम्बनाओं का….
24.
अकेले का विलाप
अंततः रह जाता है अकेले का
समूह का शोर
अंततः रह जाता है शोर
जो खड़े नहीं हो सकते किसी के साथ पाँच मिनट
सहानुभूति और क्रांति का मानसरोवर बने फिर रहे हैं
कोरोना व्यवसाय बन गया है कुछ लोगों के लिए
शब्दों का जादूगरी का मसखरी का
साधो, कठिन है डगर
बहुतेरे हैं अगर मगर
फिर भी राह तो निकालनी होगी
अकेलेपन और शोर के बीच से
कोई न कोई
अधिक साफ..पारदर्शी.. तरल
जिसमे न हो स्वार्थ का गरल
हो जो अधिक मनुष्यतर….
25.
रातें लम्बी हो सकती हैं
बहुत बहुत बहुत लंबी
हो सकती हैं हिमालय से भारी
किसी हिमनद से अधिक ठंडी
हाड़ का संगीत बजाती हुई
फेफड़ों का रोम रोम कंपाती हुई
सम्भव है
किसी रात में हो अदेखे ज्वालामुखी से अधिक ताप
जब मुँह से निकल रहा हो लगातार भाप
जब जीवन मे दिख रहा हो शाप
तब भी न घबराएं आप
हर रात की कोख में एक सुबह जरूर होती है
अंततः रातें बीत जाती हैं….
(प्रस्तुतिकर्ता वरिष्ठ पत्रकार हैं, उनकी फेसबुक वॉल से साभार)