आसिम मोहम्मद खान, उर्दू में यूपीएससी की परीक्षा देकर 588 रैंक पाने वाले इकलौते शख्स

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Asim Khan Urdu UPSC
आसिम खान

सैय्यद कैफी हसन


-महाराष्ट्र के आसिम मोहम्मद ख़ान ऐसे वाहिद UPSC-2020 के aspirant हैं जिन्होंने उर्दू में इस इम्तहान को पास किया है और 558 जैसी आला तरीन रैंक हासिल की है. मौक़ा ख़ुशी का है लेकिन ग़ौर करने पर मौक़ा रंज सा भी लगता है. आख़िर कहां चूक हो रही है कि उर्दू जैसी अज़ीम ज़ुबान जिसके मुख़्तलिफ़ गढ़-अलीगढ़, लखनऊ और हैदराबाद जैसे नाम शामिल हैं और जो इसी मुल्क़ की सभ्यता से उपजी है. उससे सिर्फ़ एक ही aspirant क्यों कामयाब हुआ? (Asim Khan Urdu UPSC)

नज़र करें तो मालूम ये होगा कि ऐसे तो उर्दू में इसको निकालने वाले कम ही हैं. लेकिन उर्दू as a choice लेते ही बहुत कम हैं. इसकी चंद वजूहात जो मेरे ज़हन में हैं, जिन्हें मैं बयान करना चाहता हूँ. मंदरजा ज़ेल हैं:-

1. पहली वजह जो सबके ज़हन में होगी वो है उर्दू ज़ुबान का इनहतात. उर्दू ज़ुबान का बेरहमी से क़त्ल किया जाना और उसके ज़वाल पे सबका तमाशायी होकर बस देखते रह जाना. उर्दू ज़बान से वाबस्तगी की कमी और इस पर ज़वाल का आ जान.

2. दूसरी सबसे वाज़ेह वजह यही है कि इस ज़ुबान के ज़वाल को देखते हुए और इसकी वजह से UPSC aspirant की नज़र इसपे जाती ही नहीं है. और जो उर्दू अदब के इदारों से फ़ारिग़ भी होते हैं. वो किसी दूसरी ज़ुबान में ही तैयारी करना पसंद करते हैं.

3. तीसरी बड़ी वजह है जो इस ज़ुबान के कम चुनाव से उपजती है. वो ये कि पब्लिशर्स और तैयारी कराने वालों का ध्यान इस पर जाता ही नहीं. जिसकी वजह से उर्दू ज़ुबान में बहुत महदूद या कुछ शोबों के मटीरीयल वजूद ही में नहीं आए और न आते हैं. उर्दू ज़ुबान के मटीरीयल की कमी हम तीसरी वजह समझ सकते हैं. दूसरी और तीसरी वजहें एक दूसरे से जुड़ी हैं.


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4. ला-इल्मी या इसे बे-ख़बरी कह लें कि, न जाने कितने लोग मदारिस से लगाए बड़े इदारों में हैं, जो ये तक नहीं जानते कि UPSC या दीगर मसाबिकती इमतहानात उर्दू में भी मुनअक़द कराए जाते हैं. बल्कि हक़ीक़त तो ये है कि जो उर्दू छोड़कर दूसरी ज़बान का चुनाव करते हैं. वो अगरउर्दू को पसंद फ़रमाएं तो वो बाक़ियों से मुसाबिकत में काफ़ी आगे रहेंगे. (Asim Khan Urdu UPSC)

5. पांचवी जो एक बड़ी कमी लगी वो ये है कि उर्दू ज़ुबान से वाबस्तगी रखने वाले, जिसमें मदारिस के तुलबा ख़ासतौर से हैं, उन की रह-रवी न करना. उनकी राहबरी इस रुख़ नहीं करना. उनको बेहतर माहौल का न दिया जाना और न ही उनकी किसी तरीक़े से इस राह पर हौसला आफ़ज़ायी करना.

ये बहुत सी वजूहात में से चंद वजूहात पे मैंने रौशनी डालनी चाही है. और मुझे मालूम नहीं भी तो यक़ीन है कि, इन सभी वजूहात पे मुल्क़ में कहीं न कहीं ख़ासा काम चल रहा है. लेकिन असबाब की कमी कह लीजिए या कुछ और लेकिन अभी भी 80% लोग इन वजूहात में उलझे हुए हैं.

और सिर्फ़ ये उन चन्द कामगरों की ज़िम्मेदारी नहीं है बल्कि हमारी क्या ज़िम्मेदारी है. और ख़ास तौर से अलीगढ़ की इसमें क्या ज़िम्मेदारी है. इसको बख़ूबी समझने और अमल में लाने की ज़रूरत है. उर्दू अदब का एक गढ़ होने की वजह से अलीगढ़ की ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है.

ख़ैर मेरे ज़हन में जो वजूहात सरायत कर पायीं वो मैंने छोटे अल्फ़ाज़ से बयान करने की कोशिश की है. लेकिन मेरी इतनी हैसियत नहीं है कि मैं इसका हल भी बयान करूं. जिसके लिए तमाम बड़े भाइयों और हज़रात के लिए कॉमेंट बॉक्स में ख़ैर-मक़दम है. इस पर नज़र-ए-सानी करें. और अपने अल्फ़ाज़ से चमन और उर्दू ज़बान को तसकीन ही नहीं बल्कि ख़राब-ए-ग़म का इलाज-ए-ग़म भी बयान करें. (Asim Khan Urdu UPSC)

व्यथा तो ये है कि उर्दू ज़ुबान के फ़रोग़ के लिए पोस्ट हिंदी रस्म-उल-ख़त में लिखनी पड़ रही है ताकि लोग समझ सकें.

 

(लेखक सैय्यद कैफी हसन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लॉ छात्र हैं.)

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