अमेरिका के हटने पर भारत के लिए नई परेशानी बन सकता है अफगानिस्तान

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अशोक पांडेय

जिन हालात में अमेरिका और नाटो की फौज अफ़ग़ानिस्तान से हट रही है उससे गृहयुद्ध से जूझ रहा यह देश भविष्य में भारत और पाकिस्तान के लिए एक नई समस्या बन सकता है। तुर्की में 24 अप्रैल से शुरू हो रहे शांति सम्मेलन के निष्कर्ष इस बात को तय करेंगे कि आगे क्या होगा। इस वार्ता में तालिबान के शामिल होने से  राह कुछ आसान हो सकती है लेकिन अब तक तालिबान जिद पर कायम है।
अमेरिका ने हालांकि 11 सितंबर की तिथि अंतिम सैनिक की वापसी के लिए तय की है लेकिन नाटो की फौज की वापसी मई में ही शुरू हो जाएगी। अमेरिका ने हाल में रूस पर आरोप लगाया है कि वह तालिबान को अमेरिकी सेना पर हमले के लिए उकसा रहा है। यह इस बात का संकेत भी हो सकता है कि यूक्रेन औऱ दक्षिण सागर की तरह अफ़ग़ानिस्तान भी बड़े संघर्ष का बिंदु बन सकता है। जिस तरह जो बिडेन ने दो दिन पहले अफ़ग़ानिस्तान के मामले में आगे की जिम्मेदारी भारत, पाकिस्तान के साथ रूस और टर्की पर डाली, उससे भी लगता है कि अमेरिका आगे किसी नए खेल की तस्वीर देख रहा है। यह तो साफ है कि अमेरिका प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष रूप से इस खेल को नियंत्रित करने की कोशिश करेगा। ऐसे में भारत और पाकिस्तान बीच में होंगे। पिछले हफ्ते रूस के विदेश मंत्री ने पाकिस्तान जाकर जो प्रस्ताव रखे हैं उनकी प्रगति पर भी अमेरिका की नज़र बनी रहेगी।

इन सब समीकरणों से इतर मध्यमार्गी और चरमपंथी इस्लामी सियासत भारत पाक को प्रभावित करेगी। तालिबान के शासन का सीधा अर्थ है चरमपंथियों का मजबूत होना। आतंकवाद की नर्सरी रहे पाकिस्तान में इसका सीधा और भारत पर परोक्ष प्रभाव पड़ेगा।
जो बिडेन के बाद उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) ने भी कहा कि वह अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला लेगा। बाइडेन ने कहा कि उनका प्रशासन क्षेत्र के अन्य देशों, विशेष रूप से पाकिस्तान, रूस, चीन, भारत और तुर्की से अफगानिस्तान की और अधिक सहायता करने का अनुरोध करेगा। साथ ही यह भी कहा, ‘हम आनन-फानन में वहां से सैनिकों को वापस नहीं बुलाने जा रहे हैं। हम इसे जिम्मेदारी के साथ, सोच विचार कर और सुरक्षित रूप से करेंगे। हम अपने सहयोगियों और साझेदारों के साथ पूरा समन्वय करते हुए इसे करेंगे, जिनके अब अफगानिस्तान में हमारी तुलना में कहीं अधिक सुरक्षा बल हैं।’
पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन में राष्ट्रपति की उपसलाहकार और 2017-2021 के लिए दक्षिण और मध्य एशिया मामलों में एनएससी की वरिष्ठ निदेशक रहीं लीज़ा कर्टिस कहती हैं कि अमेरिकी सैनिकों को अफगानिस्तान से वापस बुलाये जाने से और वहां तालिबान के फिर से सिर उठाने से खासकर भारत अत्यधिक चिंतित होगा।’ कर्टिस ने कहा, ‘1990 के दशक में अफगानिस्तान में जब तालिबान का नियंत्रण था तब उसने अफगानिस्तान से धन उगाही के लिए आतंकवादियों को पनाह दी, उन्हें प्रशिक्षित किया और आतंकवादी संगठनों में उनकी भर्ती की। लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद समेत आतंकी संगठनों के कई आतंकवादियों को भारत में 2001 में संसद पर हमले को अंजाम देने जैसी हकरतों के लिए प्रशिक्षित किया।’
अमेरिकी सरकार में 20 साल से अधिक सेवा दे चुकीं और विदेश नीति और राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों की विशेषज्ञ कर्टिस वर्तमान में सेंटर फॉर न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी (सीएनएएस) थिंक-टैंक में हिंद-प्रशांत सुरक्षा कार्यक्रम की सीनियर फेलो और निदेशक हैं।
दिसंबर 1999 में एक भारतीय विमान का अपहरण करने वाले आतंकवादियों और तालिबान के बीच करीबी सांठगांठ थी। अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत विरोधी आतंकवादी न करें यह सुनिश्चित करने के लिए क्षेत्रीय प्रयासों में अपनी भूमिका बढ़ा सकता है।’ अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत रह चुके और वर्तमान में हडसन इंस्टीट्यूट थिंक-टैंक में दक्षिण और मध्य एशिया मामलों के निदेशक हुसैन हक्कानी कहते है, ‘तालिबान के कब्जे वाले क्षेत्र के फिर से आतंकवादियों के लिए पनाहगाह बनने से भारत चिंतित होगा।’ उन्होंने कहा कि वास्तविक सवाल यह है कि क्या सैनिकों को वापस बुलाये जाने के बाद भी अमेरिका अफगानिस्तान सरकार को मदद जारी रखेगा ताकि वहां के लोग तालिबान का मुकाबला करने में सक्षम हों।

तालिबान ने अब तक शांति प्रक्रिया में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है और दोहा में हुई वार्ताओं में उसने अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की बात को ही दोहराया है। टर्की में होने वाली वार्ता से अभी वह पल्ला झाड़ रहा है। इस बीच बी बी सी के एक रिपोर्ट में कुछ तालिबान कमांडर्स की बातचीत छपी है। वे खुशी जाहिर कर रहे हैं उन्होंने अमेरिका को हर दिया है। यह जोश भी खतरे का संकेत है। वे यह भी कह रहे हैं जिहाद लड़ने वाले कभी थक नहीं सकते।

वाशिंगटन पोस्ट ने अपने संपादकीय में कहा है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने की बाइडेन की योजना क्षेत्र के लिए घातक हो सकती है।वाशिंगटन पोस्ट ने कहा, ‘राष्ट्रपति बाइडेन ने अफगानिस्तान से हटने का सबसे आसान तरीका चुना लेकिन इसके नतीजे खतरनाक हो सकते हैं।’ ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने कहा कि लंबे समय तक आतंकवादी संगठनों पर रोक लगा पाना मुश्किल हो सकता है। ऐसा ही कुछ विचार वाल स्ट्रीट जर्नल ने भी प्रकाशित किया है।

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