फैज की नज्मों में आम इंसान की हूक और तकलीफ के साथ प्रतिरोध की धार से आज भी हौसला बढ़ता है। उनकी नज्म ”हम देंखेंगे” पर हिंदू कट्टरपंथी तत्वों की ओर से विवाद पिछले दिनों सुर्खियों में रहे। (Poet Faiz Ahmad Faiz )
इस विवाद पर नहीं, लेकिन इसी नज्म के उस शब्द को जानना बहुत रोचक है, जो आखिर में आता है।
उट्ठेगा अन अल हक का नारा
और राज करेगी खल्क ए खुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
यह अन अल हक का नारा मंसूर अल हल्लाज ने दिया था। वह कवि और तसव्वुफ़ (सूफ़ी) विचारकों में से एक थे जिसको सन 922 में अब्बासी ख़लीफ़ा अल मुक़्तदर के हुक्म पर पड़ताल करने के बाद फ़ांसी पर लटका दिया गया था। उनको ”अन अल हक़” (मैं सच हूँ) के नारे के लिए भी जाना जाता है, जो भारतीय अद्वैत सिद्धांत के ”अहं ब्रह्मास्मि” के बहुत क़रीब है।
फैज की नज्म भी इन पंक्तियों के चलते कट्टरपंथियों का निशाना बनीं। जिसमें यह भी कहा गया है, ”उट्ठेगा अन अल हक का नारा…और राज करेगी खल्क ए खुदा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो…”
हबीब जालिब की नज्म ”दीप जिसका महल्लात में ही जले में …मैं भी मंसूर हूं, कह दो अगियार से…” में मंसूर कोई और नहीं, वही हैं, जिन्होंने अन अल हक का नारा दिया था।
मंसूर अल हल्लाज का दार्शनिक तौर पर मानना था कि सबकुछ खुदा का बनाया है, मेरे अंदर भी खुदा है, जिसका अर्थ यह भी हुआ कि मैं भी खुदा ही हूं।
मंसूर अल हल्लाज का जन्म बैज़ा के निकट तूर (फारस) में हुआ। वह पारसी से मुसलमान बने। अरबी में हल्लाज का अर्थ रूई धुनने वाला होता है।
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उन्होंने कई यात्राएं कीं, जिसमें तीन बार मक्का भी गए। ख़ुरासान, फ़ारस और मध्य एशिया के अनेक भागों और भारत की भी यात्रा की। सूफ़ी मत के अनलहक (अहं ब्रह्मास्मि) का विचार देकर उन्होंने मत अद्वैत पर आधारित कर दिया।
वह हुलूल अथवा प्रियतम में तल्लीन हो जाने के समर्थक थे। सर्वत्र प्रेम के सिद्धांत में मस्त होकर इबलीस (शैतान) को भी ईश्वर का सच्चा भक्त मानते थे।
समकालीन आलिमों एवं राजनीतिज्ञों ने इस भाव का घोर विरोध कर 26 मार्च 922 ईo को बगदाद में आठ साल जेल में रखा। फिर भी विचार नहीं बदले तो फांसी दे दी गई।
मूल इस्लामी शिक्षाओं को चुनौती देने की ख़ातिर इनको इस्लाम का विरोधी मान लिया गया। आरोप लगाया गया कि वह खुद को ईश्वर का रूप समझते हैं, पैगंबर मुहम्मद का अपमान करते हैं और अपने शिष्यों को नूह, ईसा आदि नाम देते हैं।
यह भी कहा जाता है कि उन्हें तीन सौ कोड़े मारे गए, देखने वालों ने पत्थर बरसाए, हाथ में छेद किए और फिर हाथों-पैरों को काट दिया गया। इसके बाद जीभ काटने के बाद इनको जला दिया गया।
मंसूर के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने फ़ना (समाधि, निर्वाण या मोक्ष) के सिद्धांत की बात की और कहा कि फ़ना ही इंसान का मक़सद है। इसको बाद के सूफ़ी संतों ने भी अपनाया।
मंसूर की वाणी
अगर है शौक अल्लाह से मिलने का, तो हरदम नाम लौ लगाता जा।।
न रख रोजा, न मर भूखा, न मस्जिद जा, न कर सिजदा।
वजू का तोड़ दे कूजा, शराबे नाम जाम पीता जा।।
पकड़ कर इश्क की झाड़ू, साफ कर दिल के हूजरे को।
दूई की धूल रख सिर पर, मुसल्ले पर उड़ाता जा।।
धागा तोड़ दे तसबीह का, किताबें डाल पानी में।
मसाइक बनकर क्या करना, मजीखत को जलाता जा।।
कहै मन्सूर काजी से, निवाला कूफर का मत खा।
अनल हक्क नाम बर हक है, यही कलमा सुनाता जा।।