म्यांमार में सैन्य तख्तापलट ने देश को आपातकाल में झोंक दिया। प्रमुख नेता आंग सान सू की समेत लगभग सभी वरिष्ठ राजनेता सेना की हिरासत में हैं। दुनिया के लिए इस घटना का क्या मतलब है, समझना जरूरी है। इसलिए भी कि इस देश का एक सिरा भारत से जुड़ता है, जबकि एक चीन से।
म्यांमार पांच देशों से घिरा हुआ है- उत्तर में चीन है, उत्तर और पश्चिम में भारत, पश्चिम में बांग्लादेश, पूर्व में लाओस और दक्षिण में थाईलैंड। इसका असर कहीं न कहीं सबसे पहले इन्हीं देशों में होने की संभावना है।
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भारत से शुरू करते हैं। ऐतिहासिक घटनाक्रमों में म्यांमार पड़ोसी ही नहीं, बल्कि एक गहरे जुड़ाव वाली जमीन रही है। भारत ने तख्तापलट पर चिंता जताई है।
दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र सैन्य शासन वाले पड़ोसी से नजदीकी रिश्ते रखेगा, ऐसी संभावना काफी कम है। लेकिन कूटनीति को नजरंदाज भी नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस देश का एक पड़ोसी चीन भी है, जिससे भारत के संबंध इन दिनों कड़वे हैं।
ऐसे में भारत को दुनिया द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को भी ध्यान में रखना होगा। पिछली बार अमेरिका ने प्रतिबंध लगाए थे, जिसके चलते म्यांमार चीन की बाहों में चला गया था। इस बार स्थिति और खराब हो सकती है, चीन पहले से ही मौके की तलाश में है। शायद यही वजह है कि चीन ने म्यांमार के जनरलों की आलोचना नहीं की है, और तख्तापलट को फेरबदल कहा है।
कुछ कूटनीति विशेषज्ञों का मानना है कि चीन ने इस तख्तापलट का समर्थन किया होगा। म्यांमार की सेना चीन के समर्थन के बिना इतनी कठोरता से आगे नहीं बढ़ सकती है। चीन के समर्थन से म्यांमार प्रतिबंधों की मार भी एक हद तक झेल सकता है। चीन की चुप्पी इस ओर इशारा भी कर रही है। लोकतंत्र को बहाल करने या आंग सान सू की को रिहा करने का कोई अपील चीन ने नहीं की है।
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म्यांमार भी चीन को जलमार्ग की सुविधा देता है। वर्तमान में चीन म्यांमार का दूसरा सबसे बड़ा निवेशक है। यह विदेशी पूंजी में 21.5 बिलियन डॉलर के साथ सिंगापुर से पीछे है। बीजिंग के पास म्यांमार के व्यापार का लगभग एक तिहाई हिस्सा है।
अब हम दक्षिण की ओर चलें। तख्तापलट की वजह से परिवहन असुविधा से एक दिन में थाईलैंड को लगभग 50 मिलियन बाहत का अनुमान है – यह एक मिलियन डॉलर से अधिक है। इस तरह का नुकसान सभी आसियान देशों को उठाना पड़ेगा।
जहां तक बांग्लादेश का सवाल है, तख्तापलट रोहिंग्या शरणार्थियों के संबंध में वार्ता लटक जाएगी। जब रोहिंग्या शरणार्थियों के म्यांमार में लौटने पर तब संशय था, जब वहां नागरिक सरकार थी। अब तो उनके देश पर उसी सेना का शासन है जिसने नरसंहार किया था।