मैं जो हूं, जॉन एलिया हूं जनाब, इसका बेहद लिहाज कीजिएगा

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-जन्मदिन-


भारतीय उपमहाद्वीप में नामचीन शायरों की कमी नहीं है, एक से बढ़कर एक शायर रहे हैं, कुछ मौजूद भी हैं। लेकिन बरसों-बरस जिंदगी और शायरी को खास मकाम पर पहुंचाने वाले एक शायर जॉन एलिया ही हैं, जिनको बीते कुछ बरसों में ही लोगों ने इतना जाना। और जब जाना तो वे दिलों में उतरते चले गए, पूरी दुनिया में छा गए। दर्जनों पेज उनके नाम से सोशल मीडिया पर मौजूद हैं, जिन पर लाखों फॉलोवर हैं। आमतौर पर दुनिया से और खासतौर पर पाकिस्तान से मार्क्सवाद के खात्मे की दुहाई दी जा रही थी, उसी दुनिया में सबसे ज्यादा यह शायर सर्च किया जा रहा। उसके शेर समाज बदलने को बेकरार नौजवानों के दिलों में आग दहका रहे हैं। कई बार लगता है, जॉन की शायरी जैसे शायरों को पैदा कर रही है। शेर के जवाब में दर्जनों शेर बन रहे हैं। युवाओं के लिए तो जॉन एलिया की शायरी मानो फलसफा की तरह काम आ रही है। जैसे वे उनकी जबान बोल रहे हैं, जैसे जॉन यहीं कहीं आसपास हैं और उनसे बात कर रहे हैं। (John Elia Beloved Poet)

आज खास मौका है तो जॉन एलिया के बारे में भी जान लिया जाए कि यह शायर क्या था? कैसे दिलों पर राज कर रहा है!

उत्तरप्रदेश के अमरोहा में 14 दिसंबर 1931 को शिया मुस्लिम परिवार में जन्मे जॉन के पिता शफीक हसन एलिया कला और साहित्य क्षेत्र नामी-गिरामी शख्सियत थे। ज्योतिष के भी जानकार थे इसलिए विदेश के वैज्ञानिकों से भी उनका चिट्ठियों के जरिए राब्ता बना रहता था। पाकीज़ा जैसी फिल्म बनाने वाले मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही जॉन के चचेरे भाई थे। तर्कशीलता का माहौल मिला तो जॉन की दिलचस्पी ने भी आकार लेना शुरू किया। ख्यालात और शायरी की पौध आठ साल की उम्र में ही दिख गई, जब आठ साल की उम्र में उन्होंने शेर लिखा। जवान हाेने तक खासे संवेदनशील हो गए और अंग्रेजी हुकूमत से नफरत पैदा हो गई। भाषाओं से प्रेम था तो हिंदी, उर्दू के साथ फारसी, अंग्रेजी और हिब्रू पर भी पकड़ बना ली।

उन्होंने शायरी की ओर रुख किया, लेकिन एक खास अंदाज में। किसी शायर, कवि, लेखक की तरह उनके अंदर भी एक करंट था, जिसके दर्शन को आधार बनाकर उन्होंने सहज लेखन किया। उनकी शायरी की बिजली थी मार्क्सवाद। साहित्य में जिसकी बुनियाद कभी सज्जाद जहीर ने संगठन के रूप में रखी, जिसको निखारने में फैज अहमद फैज से लेकर हबीब जालिब, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, अली सरदार जाफरी आदि का नाम लिया जाता है। जिनकी शायरी में आम लोगों का दर्द शामिल था, उनके जज्बात शामिल थे, उनके ख्वाब, उनके संघर्ष, उनकी जिंदगी शामिल थी। जो शायरी हमेशा सत्ता से टकराती रहीं और आज भी टकराती हैं।

जॉन एलिया ने इसी दर्शन को अपने अल्फाजों में पिरोया। उनका शेर पढ़ने का अंदाज और जिंदगी की फकीरी का असर सबसे ज्यादा नौजवानों पर हुआ। (John Elia Beloved Poet)

बेहतरीन संग्रह में ‘शायद’ 1991 में प्रकाशित हुई। फिर ‘यानी’ 2003 में, ‘गुमान’ 2004 में, ‘लेकिन’ 2006 में और ‘गोया’ 2008 में प्रकाशित हुईं। शायद के अलावा बाकी प्रमुख संग्रह प्रकाशित होने से पहले जॉन 8 नवंबर 2002 को दुनिया से रुखसत हो गए।

यही वजह है कि उनकी बड़ी पहचान तब बनी, जब वे खुद नहीं रहे। “यानी” के बाद जॉन एलिया को समझने और पसंद करने लगे। जीते जी उन्होंने बहुत कुछ ऐसा कहा, जिसको अब खोज-बीनकर निकाला जा रहा है, या बाद में निकाला गया, जिससे उनके बारे में जाना जा सकता है।

देश के बंटवारे के बाद तमाम बेहतरीन शायरों ने पाकिस्तान का रुख किया। आजादी के कुछ समय बाद जोश मलीहाबादी चले गए थे। दस साल की भारत की आजादी देखने के बाद जॉन एलिया भी पाकिस्तान के कराची में बस गए। लेकिन, जाते वक्त जेहन भी साथ ले गए। वह जेहन जो बागी था, जो आम लोगों की तकलीफ लिए था, जिसमें भविष्य की तस्वीर थी। जो दोनों देशों को शायद खास तरीके से एक करने की उम्मीद लिए था।

यह सज्जाद जहीर के उलट था। सज्जाद जहीर भी पाकिस्तान गए थे, क्रांतिकारी विचारों के प्रसार के लिए और वापस भारत आ गए। इसी दौर में जॉन एलिया वहां पहुंचे, उसी क्रांति की मशाल थामकर। जैसे दोनों ने जिम्मेदारी की अदला-बदली कर ली हो और अब उस काम के लिए जॉन ज्यादा मुफीद होने वाले हों।

पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस पर संबाेधन में जॉन ने ‘सरज़मीन-ए-ख़्वाब-ओ-ख़्याल’ शायरी को पढ़ा। जिसका एक शेर है-

खुश बदन! पहरन हो सुर्ख तेरा
दिलबरा! बांकपन हो सुर्ख तेरा

इस लंबी सी शायरी में जॉन उम्मीद करते हैं कि पाकिस्तान एक कम्युनिस्ट क्रांति का गवाह बनेगा, जो एक समतावादी समाज को जन्म देगा। (John Elia Beloved Poet)

जॉन ने कराची में बसकर अपनी काबिलियत और हुनर की बदौलत दबदबा बना लिया। क्षमताओं की वजह से उन्होंने धार्मिक शिक्षा बोर्ड का भी कामकाज संभाला और कई अहम पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी किया। जनरल जियाउल हक की इस्लामीकरण के नाम पर तानाशाही करने वाली हुकूमत में पत्रकारों और लेखकों पर दबाव बना तो वे खुलकर सामने आ गए और पूरी सत्ता को ललकार दिया। उन्होंने अपनी शायरी के जरिए लेखकों से अत्याचार के खिलाफ बोलने का आह्वान किया।

उस दौर में पाकिस्तान के वामपंथी झुकाव वाले लेखकों और पत्रकारों ने निडर होकर तानाशाही का मुकाबला किया। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की ‘हम देखेंगे’ प्रतिरोध का गीत बन गया। हबीब जालिब की दीप जिसका महल्लात ही में जले ने जैसे तानाशाही के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।

उसी दौर में जॉन ने लिखा-

ऐ शहर! तेरे अहल-ए-कलम बे-जमीर हैं

हम जो अजीम लोग हैं, हम बे-जमीर हैं

जॉन ने जानबूझकर ‘हम’ शब्द लिखकर उन लोगों को कुरेदा जो सत्ता के सुर में सुर मिलाने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने इस तरह लेखकों की सामूहिक जिम्मेदारी का अहसास दिलाया। उनका मानना था कि जिस समाज में ज्यादातर लोगों की जिंदगी गमगीन हो, वहां रोमांस जैसे विषय पर लिखते फिरना गैरजिम्मेदाराना रवैया है। साहित्य में भी सही-गलत चुनना ही पड़ेगा। हमारे आसपास जो है, उसे नजरंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि हम उसी समाज का हिस्सा हैं। सच तो यह है कि प्रेम पर लिखी कविताएं भी उनके बागी तेवरों का अंदाजे-बयां है। (John Elia Beloved Poet)

मजहबी दकियानूसी को उन्होंने अपने तरीके से समझाया, बल्कि पाकिस्तानी अवाम और मुसलमानों को खासतौर पर एक सही रास्ता चुनकर इस्लाम सही मायने में अपनाने की दरख्वास्त की। जॉन एलिया मार्क्सवाद और इस्लाम के बीच कोई विरोधाभास नहीं देखते। वह कहते, धार्मिक लोगों और कम्युनिस्टों के बीच दुश्मनी जन्मजात नहीं है, बल्कि मार्क्सवादी विचारों को बदनाम करने के लिए पूंजीवाद के रक्षकों का यह आविष्कार है। वह लिखते हैं-

”पैगंबर मुहम्मद, हजरत अली पर आपत्तिजनक लिखने वाले दांते, फ्रायड या लैमार्क-डार्विन के विचारों को पढ़ने लिखने से हम कभी नहीं डरते, जबकि उनके विचार किसी भी धर्म के उलट हैं। अमेरिका या अन्य पूंजीवादी देशों के राजनीतिक प्रतिष्ठानों ने उन्हें धर्म के नाम पर कभी निशाना नहीं बनाया। लेकिन, जब एक गरीब और निराश्रित जर्मन दार्शनिक, जो अपने बेटे का इलाज तक कराने में असमर्थ था और उसके पास अंतिम संस्कार के लिए पैसे नहीं थे, उसने समाज की सामाजिक और आर्थिक समस्याओं को वैज्ञानिक रूप से पहचानने की कोशिश की, ताकि उन्हें हल किया जा सके। उसको धर्म और नैतिकता का गद्दार बनाकर पेश कर दिया गया। वह शख्स था मार्क्स। जो मानव जाति के दुखों के समाधान के बारे में सोचता था और एक दिन उसी का विलाप करते हुए मर गया। जब हम इतिहास के इस महान दार्शनिक और बुद्धिमान के विचारों के बारे में बात करते हैं, यानी जब हम साम्यवाद की बात करते हैं और कम्युनिस्ट आदर्शों, नव-साम्राज्यवादी और पूंजीवादी देशों के साथ-साथ उनके स्थानीय दलाल का पर्दाफाश कर जनता के दुखों को हल करने का प्रयास करते हैं। हम देश और धर्म के गद्दार कहलाते हैं।”

एलिया साफ कहते हैं वर्ग और जातिगत पूर्वाग्रहों से भरे होने की वजह से उलेमा सामाजिक मंथन और सामाजिक गहराई को नापने में असमर्थ रहे हैं, वक्त के साथ समाज में दकियानूसी ख्यालों को दूर नहीं कर सके। इस पर उन्होंने लिखा-

थे अजब ध्यान के दर-ओ-दीवार

गिरते गिरते भी अपने ध्यान में थे

वह लिखते हैं, “साम्राज्यवादी पूंजीवादी अमेरिका और पश्चिमी यूरोप का अस्तित्व 21वीं सदी के आधुनिक समाज के लिए अपमान है।”

”हर युग के दार्शनिकों, कवियों, लेखकों और विचारकों ने समतामूलक समाज का सपना देखा है, और हमें उम्मीद है कि एक दिन ‘हम’ अपने लक्ष्य तक जरूर पहुंचेंगे।”


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