स्मृति दिवस: कार्ल मार्क्स के बारे में मशहूर शायर जॉन एलिया का नज़रिया

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दार्शनिक, अर्थशास्त्री, इतिहासकार, राजनीतिक सिद्धांतकार, समाजशास्त्री, पत्रकार और वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता कार्ल मार्क्स 5 मई 1818 को त्रेवेस (प्रशा) में पैदा हुए। मजदूरों की तहरीक में एक नए तूफ़ान की पेशबीनी करते हुए मार्क्स ने अर्थशास्त्रीय रचना दास कैपिटल में इतना बारीक तरीक़े से समझा दिया कि आज तक उसकी काट सरमाएदारों के पास नहीं है।
इसी बुनियाद पर दुनिया में मजदूर सत्ताएं क़ायम करने के प्रयोग हुए। अमरीकी ख़ानाजंगी की वजह से मार्क्स अपनी आमदनी का बड़ा ज़रिया खो दिया तो उनके दोस्त एंगेल्स बेग़रज़ माली इमदाद देकर मेहनतकश अवाम के हक़ में न सिर्फ़ अपना फ़र्ज़ निभाया, बल्कि मार्क्स की ही बात को तक़रीबन उसी अंदाज़ में पेश करके मिसाल बन गए।
मार्क्स की पूरी ज़िंदगी इंतेहाई मुश्किलों से गुज़री। उनकी छह औलादों में तीन बेटियां ही ज़िंदा बचीं। ताउम्र मज़दूरों के हक़ की बात करते हुए साल 1883 की 14 मार्च को मार्क्स की तूफ़ानी ज़िंदगी फ़ना हो गई, लेकिन उनके बताए उसूल आज न सिर्फ़ ज़िंदा हैं, बल्कि दुनियाभर में जो कोहराम मचा है, उससे छुट्टी पाकर इंसानियत को तरक़्क़ी के रास्ते पर लाने और सुकून से जीने का सबसे मज़बूत नज़रिया है। दुनियाभर के सरमाएदार इस ख़्याल भर से घबराते नज़र आते हैं।
कार्ल मार्क्स के बारे में नौजवानों के बीच सबसे मशहूर शायर जॉन एलिया ने जो फ़रमाया है, वह भी पढ़िए-
                                                                  -जॉन एलिया-

हम दांते का एहतराम करने में कोई ख़तरा नहीं महसूस करते, जबके उसने नबी (स०आ०व०) और हज़रत अली (रज़ी०) की शान में शदीद गुस्ताख़ी की थी। हम डार्विन और लैमार्क के नज़रिये ए इरतक़ा (एवोल्यूशन) पर बहस करने में कोई ख़ौफ़ महसूस नहीं करते, हालांकि ये नज़रिया मज़हब के ख़िलाफ़ है। (john Elia karl marx)

हम फ्रायड के जिंसी नज़रियात पर इज़हार ए ख़्याल करते ख़ुद को बिल्कुल महफूज़ पाते हैं जबके उसके मताबिक़ एक बच्चे का मुंह में चुसनी लेना और उसे चूसते रहना या किसी बूढ़े शख़्स का किसी मुक़द्दस (पवित्र) शय का बोसा देना, इन दोनों का कारण जिंस (sexuality) है और मीनारें और गुम्बद जिन्हें हम मुक़द्दस समझते हैं जिंस की अलामत हैं।

ये नज़रियात सही हों या ग़लत ये उन लोगों के नज़रियात हैं जिन्हें अमेरिका और दूसरे साम्राज्यवादी मुल्कों ने कभी अपना निशाना नहीं बनाया लेकिन जर्मनी के एक ग़रीब और फ़ाक़ाकश मुफक्कीर (विचारक ) ने जो अपने मरते हुए बच्चे का इलाज न करा सका, जो उसके मरने पर कफन ख़रीदने की हैसियत भी न रखता था। (john Elia karl marx)

उसने जब इंसानों की बुनियादी मसअले की साइंसी निशानदेही की तो वह साम्राज्यवादियों के तमाम गिरोह में मज़हब, रिवायत और संस्कार का बाग़ी और ग़द्दार ठहरा। ये शख़्स कार्ल मार्क्स था। ये वह शख़्स था जो नीम फ़ाक़ाकशी की हालत में सारी दुनिया के इंसानों के दुःख दर्द का हल सोचा करता था और एक दिन इसी हालत में बैठे बैठे मर गया। (john Elia karl marx)

हम जब तारीख़ ए फिक्र के इस महबूब और बुरगुज़ीदा बूढ़े और इसके ज़िन्दगी परवर हकीमाना नज़रिया ए कम्युनिज़्म का ज़िक्र करते हैं और इसके ज़रिए अपनी अवाम की दम तोड़ती ज़िन्दगी का हल चाहते हैं तो हम नए पश्चिमी साम्राज्यवादियों और उनके मुक़ामी दलालों के नज़दीक अपने मुल्कों के बाग़ी और ग़द्दार ठहरते हैं।


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