गंगा में उतरा रहा बेतुके दावों और कसरतों का कचरा

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By आशीष आनंद

बीते दिनों केंद्र सरकार ने दावा किया कि शहरी भारत ओडीएफ हो चुका है। उत्तरप्रदेश सरकार पांच दिनी गंगा यात्रा अभियान भी पिछले साल चला चुकी है और अब फिर गंगा को पवित्र करने कसरत हो रही है। दावा और कोशिश का शायद हकीकत से कोई लेना-देना नहीं है। ऐसा सरकारी तथ्यों और जमीनी सच से पता चलता है।

पहले बात शहरी भारत के ओडीएफ हो जाने की। इस ताजे दावे से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के ओडीएफ हो जाने का दावा कर चुके हैं, जिसको एनएसएसओ रिपोर्ट ने झुठला दिया। अब सरकार का नया दावा है कि बीते वर्ष यानी 2019 में स्वच्छ भारत मिशन ने शहरी भारत को खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) बनाने के अपने लक्ष्य को हासिल कर लिया है। सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के शहरी क्षेत्र ओडीएफ हो गए हैं।

इस दावे में बताया जा रहा है कि 4320 शहरों ने खुद को ओडीएफ घोषित किया है। निर्धारित लक्ष्य 59 लाख घरेलू व्यक्तिगत शौचालय से ज्यादा 65.81 लाख का निर्माण किया गया वहीं सामुदायिक और सार्वजनिक शौचालयों के लिए 5.08 लाख के लक्ष्य से ज्यादा 5.89 लाख का निर्माण हुआ है। 2300 शहरों के 57,000 से ज्यादा सार्वजनिक शौचालय गूगल मैप पर मौजूद हैं।

लिहाजा, अब सरकार ने शहरों को ओडीएफ बनाए रखने और स्वच्छता लक्ष्य हासिल करने को ‘ओडीएफ प्लस’ और ‘ओडीएफ प्लस प्लस’ की शुरूआत की है। कुल 819 शहरों को ओडीएफ प्लस और 312 शहरों को ओडीएफ प्लस प्लस घोषित किया गया है। इसके अलावा वाटर प्लस की भी शुरूआत की है, जिसका लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी अपशिष्ट जल खुले वातावरण या जल निकायों में न जाने पाए।

निश्चित ही शहरी भारत में कम से कम वे शहर तो शामिल होंगे ही, जिन्हें स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल किया गया है। इस आधार पर परखा जाए तो सिर्फ उत्तरप्रदेश के ऐसे सभी शहर बीते कई साल से सिर्फ स्वच्छता के अभियान पर ही काम कर रहे हैं और उनकी हालत में रत्तीभर भी फर्क नहीं दिखाई देता।

स्वच्छता का छलावा

हालिया स्वच्छता सर्वेक्षण में अपने शहरों को ज्यादा नंबरों के लिए स्मार्ट सिटी के नगर निगम शहरियों के सामने लगभग रिरिया रहे हैं और उनको अंक नहीं मिल पा रहे। इसकी एकमात्र वजह है, स्वच्छता के नाम पर छलावा।

ओडीएफ के नाम पर सिर्फ ये कहना कि अब यहां कोई खुले में शौच को नहीं जाता, काफी नहीं है। घुमंतू जातियों के सडक़ किनारे बसे परिवार, भीख मांगने वाले शहरों में ही ज्यादा हैं और उनके लिए शौचालयों का कोई इंतजाम कहीं नहीं है। ये लोग गूगल मैप पर देखकर सुविधा का लाभ कैसे ले सकते हैं!

मनमाने तरीके से परिभाषा बदलना

इससे भी बड़ा धोखा ये है कि खुले में शौच की परिभाषा को मनमाने तरीके से बदल देना। सीवेज ट्रीटमेंट के बगैर शौच का खुले में पहुंचना भी खुले में शौच ही होता है, जैसा कि वाटर प्लस और ओडीएफ प्लस योजना में बताया जा रहा है। इस बुनियाद पर उत्तरप्रदेश सरकार के जल निगम की आधिकारिक वेबसाइट शहरी भारत ओडीएफ होने के दावे को खारिज कर रही है।

15 साल पुरानी आबादी पर भी बदहाली

यूपी जल निगम की वेबसाइट पर सबसे बड़ी खामी तो यही है कि सीवेज ट्रीटमेंट के गंगा, यमुना और यमुना क्लस्टर से जुड़े शहरों की जनसंख्या 2005 के आंकड़ों पर दर्ज की है, यानी पंद्रह साल पुरानी जनसंख्या के सीवेज ट्रीटमेंट की जरूरत। गंगा कंपोनेंट में 12, यमुना कंपोनेंट में आठ और गोमती में तीन शहर बताए हैं।

कुल 22 शहरों की जनसंख्या 12152804 बताई है। साथ ही ये बताया है कि 311 ड्रेन हैं और 2246.20 मिलियन लीटर प्रतिदिन डिस्चार्ज होता है, जबकि 397.70 एमएलडी सीवेज डायवर्ट किया जाता है। अधिकृत वेबसाइट के अनुसार निर्मित सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नौ हैं, जिनकी क्षमता 349.50 एमएलडी है। दूसरे चरण में 38 एसटीपी प्रस्तावित हैं, जिनकी क्षमता 1538.25 एमएलडी होगी। इनमें से 18 बन चुके होने का हवाला है, जिनकी क्षमता 446.05 एमएलडी बताई गई है। हालांकि गंगा कंपोनेंट में ये क्या और कितना काम कर रहे हैं, इसकी जानकारी नदारद है, जबकि सबसे ज्यादा 12 शहर गंगा कंपोनेंट में ही हैं।

जीवनदायिनी को अपवित्र कर रहे स्मार्ट सिटी

ये तो रही उत्तरप्रदेश की तीन प्रमुख नदियों को अपशिष्ट से बचाने की कवायद। इसी धारा को पवित्रता, आस्था और अर्थव्यस्था की बातें करके सूबे में पांच दिन का गंगा यात्रा कार्यक्रम जारी है। बाकी शहरों का हाल कैसा है? इसको रुहेलखंड रीजन के दो बड़े मंडलों से समझा जा सकता है, जिनमें आठ जिले आते हैं। ये हैं बरेली और मुरादाबाद मंडल, दोनों ही मंडल मुख्यालय स्मार्ट शहर बनने की कतार में हैं।

बरेली महानगर और इस मंडल के किसी भी जिले में कोई एसटीपी अब तक नहीं है। रामगंगा, गोमती और मुख्य गंगा नदी में यहां का अपशिष्ट प्रवाहित हो रहा है। बरेली नगर निगम के पास तो पुरानी सीवर लाइन का नक्शा तक नहीं है। वीआईपी एरिया में जो सीवर लाइन है, वह बड़े नाले से शहर के अंदर होकर रामगंगा में मिलने वाली नदी में अपशिष्ट भेजने का जरिया है। इसी तरह मुरादाबाद में एक पुराना एसटीपी रामगंगा के पास है, जिससे मात्र 15 एमएलडी ही सीवेज ट्रीटमेंट हो पा रहा है।

दावे करने की जल्दी, बीमारी दूर करने में सुस्ती और कंजूसी

नवंबर 2014 में स्वच्छता कार्यक्रम की शुरुआत के एक महीने बाद तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन राज्यमंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि भारत के 70 प्रतिशत सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) ठीक से काम नहीं कर पा रहे हैं।

इससे इतर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की 2014-15 की रिपोर्ट ने भारत में एसटीपी की स्थिति की जांच की। रिपोर्ट में बताया गया कि भारत के 816 एसटीपी में से 522 चालू हैं और 79 बंद हैं। जनवरी 2015 में 145 एसटीपी निर्माणाधीन थे, जबकि 70 नए एसटीपी प्रस्तावित थे। खास बात ये भी है कि जो चालू हैं, वे तय क्षमता पर काम नहीं कर रहे। इसकी बड़ी वजह एसटीपी के रखरखाव की है, जिस पर ध्यान नहीं दिया जाता।

जब सीपीसीबी ने 2010 में 84 एसटीपी का सर्वेक्षण किया, तो पाया कि उनमें से केवल 8 में निरंतर बिजली की आपूर्ति थी। बाकी दिन में 12, 14 या 18 घंटे तक चलने वाली बिजली आपूर्ति पर निर्भर थे। उस सर्वेक्षण के दौरान देखे गए अधिकांश एसटीपी में बिजली की आपूर्ति के वैकल्पिक स्रोत भी उपलब्ध नहीं थे, क्योंकि केवल 12 एसटीपी के पास जनरेटर जैसे वैकल्पिक स्रोत थे। उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली में एसटीपी पर्याप्त बिजली आपूर्ति के साथ एसटीपी के मामले में सबसे खराब थे।

सीपीसीबी का अनुमान है कि 300 करोड़ रुपये सिर्फ अच्छी क्षमता के एसटीपी की स्थापना को चाहिए। इसके अलावा बिजली आपूर्ति कर्मचारियों को नियुक्त अलग है। सालाना रखरखाव के लिए दो करोड़ रुपये एक एसटीपी पर हो सकता है। एक एसटीपी, जिसकी क्षमता 200 एमएलडी से अधिक है, उसे 1 मेगावाट बिजली चाहिए होती है। भारत में, जहां 50 मिलियन से अधिक घरों में अभी भी बिजली की पहुंच नहीं है, एसटीपी को लगातार 1 मेगावाट बिजली की आपूर्ति करना एक बड़ा काम है।

इन खर्चों को नियमित नहीं किया गया तो संचालन ठप हो जाएगा। देखा जाए तो सरकार के लिए ये कोई बड़ी धनराशि नहीं है, क्योंकि नदियों की स्वच्छता के नाम पर अब तक हजारों करोड़ रुपये बेनतीजा बहाया जा चुका है। दूसरे तरीके भी निकाले जा सकते हैं। जैसे, नागपुर में 190 करोड़ की एसटीपी परियोजना ने दिसंबर 2015 में काम करना शुरू किया, उपचारित सीवेज से बिजली बनाने वाली भारत की पहली एसटीपी बन गई। बेंगलुरु ने मई 2017 में कोरमंगला-चैलघाट एसटीपी शुरू की, जिसमें बायोगैस इंजन का उपयोग करके 1 मेगावाट बिजली उत्पादन की क्षमता थी।

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