द लीडर हिंदी : म्यांमार (Myanmar) की ‘आयरन लेडी’ कही जाने वाली नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित आंग सान सू की (Aung San Suu Kyi) शनिवार को 76 साल की हो गई. उन्होंने म्यांमार (पूर्व में बर्मा) में लोकतंत्र स्थापित करने के लिए लंबे समय तक संघर्ष किया और कामयाबी भी हासिल की, लेकिन 1 फरवरी को सैन्य शासन ने तख्तापलट करते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया था.
सेना ने इसका विरोध करने पर सैकड़ों लोगों को मौत के घाट उतार दिया. इससे सड़कें खून से लाल हो चुकी है. जनता में सैन्य शासन के प्रति गुस्सा है. सू की के जन्मदिन पर लोगों ने उनकी रिहाई के लिए “फ्लावर स्ट्राइक’ की अनूठी मुहिम शुरू की है.
People across Myanmar celebrated the 76th birthday of detained State Counselor Daw Aung San Suu Kyi on Saturday.
(Photo:CJ)
#WhatsHappeningInMyanmar pic.twitter.com/9ARMAanGxM— The Irrawaddy (Eng) (@IrrawaddyNews) June 19, 2021
केक काटा और बालों में लगाए फूल
म्यांमार के तमाम हिस्सों में लोगों ने केक काटकर देश की शीर्ष नेता सू की का जन्मदिन मनाया. कुछ शहरों में सड़कों पर बधाई देते हुए उनकी फोटो भी लगाई गई, जिसे सेना ने जबरन हटा दिया और ऐसा करने वालाें को हिरासत में ले लिया है. अधिकांश जनता ने बालों में फूल लगाकर अहिंसावादी तरीके से उनकी रिहाई की मांग की. म्यांमार में युवाओं ने तख्तापलट के विरोध में हाथों में फूल लेकर मार्च भी निकाला.
Yinmabin, Sagaing Region: Tens of Thousands marched on 76th Birthday of Daw Aung San Suu Kyi, holding the flowers to stage #76FlowerStrike, in demanding for release of all political detainees including her. #WhatsHappeningInMyanmar #June19Coup https://t.co/6PucnFKjWm
— Yoonwati Myint (@Yoonwati234) June 19, 2021
पिता से विरासत में मिला संघर्ष का जज्बा
19 जून 1945 को सू की का जन्म म्यांमार के रंगून (यंगून) में हुआ था. जीवन में संघर्ष करने का जज्बा उन्हें अपने पिता आंग सान सू से विरासत में मिला था. जिन्हें बर्मा का राष्ट्रपिता भी कहा जाता है. क्योंकि उन्होंने ही आधुनिक बर्मी सेना की स्थापना की थी. साथ ही बर्मा (वर्तमान में म्यांमार) की स्वतंत्रता के लिए आवाज उठाई थी. जब वह महज दो साल की थीं, तब 1947 में उनके पिता की राजनीतिक साजिश के तहत हत्या कर दी गई थी. पिता की मौत ने सू की में लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने का जज्बा पैदा कर दिया.
शिक्षा और संघर्ष की शुरूआत
सू की ने वर्ष 1960 तक बर्मा में पढ़ाई की. फिर 60 के दशक में भारत के नई दिल्ली स्थित लेडी श्रीराम कॉलेज से पॉलिटिकल साइंस की शिक्षा ली. इसके बाद वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से फिलॉसफी और इकोनोमिक्स में मास्टर डिग्री हासिल करने चली गईं. इस दौरान वर्ष 1972 में डॉ. माइकल ऐरिस से सू की ने शादी कर ली. शादी और दो बच्चों की मां बनने के बाद भी लोकतंत्र के लिए संघर्ष रखा. वर्ष 1988 में अपनी बीमार मां की देखरेख के लिए उन्हें म्यांमार वापस लौटना पड़ा. उस वक्त म्यांमार में सैन्य शासन था और उनके जुल्म से लोग परेशान थे. जिस पर सू की ने देश में लोकतंत्र और मानवाधिकार हनन को लेकर मोर्चा खोल दिया.
सिद्धांतों से नहीं डिगी
सू की को उनके सिद्धांतों से डिगाने के लिए सैन्य शासकों को कसर नहीं छोड़ी, मगर वह अलग मिट्टी की बनी थीं. आखिरकार वर्ष 1989 में सैन्य शासकों ने उन्हें रंगून में नजरबंद कर दिया और देश छोड़ने पर रिहा करने का प्रस्ताव दिया. इसके जवाब में उन्होंने कहा था कि जब तक लोकतंत्रिक सरकार नहीं बनती और राजनीतिक बंदियों की रिहाई नहीं होती, वह देश छोड़कर नहीं जाएंगी और अपना संघर्ष जारी रखेंगी.
चुनाव जीतीं, मगर सेना ने परिणामों को किया दरकिनार
वर्ष 1990 में म्यांमार में चुनाव हुए. इसमें उनकी पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलएफडी) ने चुनाव लड़ा और 80 फीसद सीटों पर जीत हासिल की. मगर सैन्य शासकों ने इसके परिणामों को दरकिनार कर दिया और सू की को नजर बंद ही रखा.
बेटे को लेना पड़ा उनका नोबेल पुरस्कार
जब वर्ष 1991 में सू की को नोबेल शांति पुरस्कार दिया जाना था, तब भी वह नजरबंद थी. इसलिए उनके बेटे ऐलेग्जेंडर ऐरिस के हाथों में उनका पुरस्कार दिया गया था. जुलाई 1995 में उन्हें रिहा कर दिया गया, मगर रंगून से बाहर आने-जाने की अनुमति नहीं थी.
Donation and celebration with cakes in honor of Daw Aung San Suu Kyi’s 76th birthday, was staged by people of Mashikahtaung, Phakant, Kachin state today.
FREEDOM FROM FEAR#WhatsHappeningInMyanmar #June19Coup#76FlowerStrike https://t.co/HNL29PKLjD
— Myo Naing Aung (@MyoNaingAung13) June 19, 2021
पति की मौत पर भी इंग्लैंड नहीं जा सकी
वर्ष 1999 में सू की के पति माइकल ऐरिस की इंग्लैंड में कैंसर से मौत हो गई. वह उनके अंतिम दर्शन के लिए इंग्लैंड भी नहीं जा सकी. उन्हें पता था कि यदि वह इंग्लैंड चली गईं तो सैन्य शासक उन्हें कभी भी म्यांमार वापस नहीं आने देंगे. वर्ष 2000 के सितंबर माह में उन्हें फिर से नजरबंद कर दिया गया.
अंतरराष्ट्रीय दवाब बढ़ने पर हटी पाबंदियां
साल 2009 आते-आते उनकी रिहाई को लेकर म्यांमार के सैन्य शासकों पर अंतरराष्ट्रीय दवाब बढ़ने लगा. संयुक्त राष्ट्र ने उनको हिरासत में रखना कानून के ही खिलाफ करार दे दिया. इसके बाद वर्ष 2011 में उन पर लगी पाबंदियों को हटा दिया गया. लोगों से मिलने और यात्रा करने की अनुमति भी मिल गई.
2012 में जीता चुनाव
वर्ष 2012 में सू की ने चुनाव लड़ने का फैसला किया. अप्रैल में चुनाव हुए. इसमें वह सांसद चुनी गईं. हालांकि, वह राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ पाईं. दरअसल, म्यांमार के संविधान के अनुसार- किसी का पति या पत्नी और बच्चे विदेशी नागरिक हैं तो वह राष्ट्रपति का चुनाव नहीं के योग्य नहीं होते. चुनाव में उनकी पार्टी एनएलडी जीत गई तो उनके खास माने जाने वाले तिन क्यॉ को 2016 में राष्ट्रपति चुना गया.
Kachin State, Protests against the military dictatorship were held in #Hpakant on June 19, the birthday of Aung San Suu Kyi.
FREEDOM FROM FEAR#76FlowerStrike#June19Coup#WhatsHappeningInMyanmar pic.twitter.com/wtNZqfI8Yg
— Kaung Khant Htoo (@KaungKhantHto10) June 19, 2021
स्टेट काउंसलर बनीं, हासिल की शक्तियां
म्यांमार में उनकी पार्टी की सरकार बनने के बाद सू की को कानून में बदलाव करके स्टेट काउंसलर घोषित किया गया. यह अन्य देश में प्रधानमंत्री के जैसा पद था. जिसे राष्ट्रपति से ज्यादा ताकत दी गईं थी. सेना को उनका यह कदम उठाना अच्छा नहीं लगा और वह तख्तापलट की कोशिशों में लग गई. आखिरकार 1 फरवरी 2021 को सेना ने सू की को हिरासत में ले लिया और एक साल तक म्यांमार में सैन्य शासन लागू करने का ऐलान कर दिया.
रोहिंग्या से बर्बरता पर नोबेल वापस करने की उठी मांग
वैसे तो सू की मानवाधिकारों की पैरोकार रहीं, मगर उनकी सरकार में रखाइन राज्य में रोहिंग्या मुसलमानों के साथ सेना ने जमकर बर्बरता की. 2017 तक रोहिंग्या मुस्लिमों पर सेना के हमले जारी रहे, जिससे लाखों रोहिंग्या म्यांमार छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेने को मजबूर हो गए. सू की ने रोहिंग्या मुसलमानों के मुद्दे पर चुप्पी साधी ली तो उनके खिलाफ नोबेल पुरस्कार वापस किए जाने मांग शुरू हो गई थी.