वसीम अख़्तर
-बड़े मुंह से बड़ी बातें हो रही हैं लेकिन समस्याएं ज़्यादा हैं और समाधान सुनाई नहीं दे रहा. बात चाहे मौलाना महमूद मदनी की हो, आज़म ख़ान, मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ान या फिर बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी हों, मुस्लिम इश्यू पर आग-बबूला दिखाई दे रहे हैं. बावजूद इसके ऐसा नज़रिया सामने नहीं आ पाया है, जिससे भारत में 20 करोड़ से ज़्यादा मुसलमानों की तक़दीर और तस्वीर संवारने का रास्ता हमवार हो सके. (Muslim Politics In India)
जिस तरह का देशभर में माहौल है, राष्ट्रवाद की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है. उसके ख़िलाफ़ शोर भी ख़ूब सुनाई दे रहा है. यूपी की बात करें तो देवबंद से जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी पिछले दिनों ख़ूब मुखर रहे. देवबंद में जमीयत उलमा-ए-हिंद के इजलास में शालीनता के साथ बढ़ी बातें कह गए.
बाद में चैनलों से बात करते हुए इस बात कि वज़ाहत भी की कि उनका यह कहने के पीछे कि हम पाकिस्तान नहीं जाएंगे, जिसे हम बुरे लगते हैं वो कहीं और चले जाएं. महमूद मदनी का कहना है कि वह हिंदुस्तान में बाइ च्वाइस हैं, उनके पास बंटवारे में मौक़ा था पाकिस्तान चुनने का लेकिन उन्होंने इसे ठुकराकर भारत को चुना. बात ठीक है. लेकिन सवाल यह है कि जिस तरह की बेचैनी दिख रही है, उससे पार पाने का फिलवक़्त रास्ता क्या है. वह महमूद मदनी नहीं बता पाए.
समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य मुहम्मद आज़म ख़ान इससे आगे थोड़ा जाकर बोलते हैं, कहते हैं कि मुसलमानों को राइट ऑफ वोट की सज़ा मिल रही है. इससे आगे क़द्दावर नेता की ज़ुबान पर भी सूनापन है…वो भी मुसलमानों को महमूद मदनी की तरह की सब्र का सबक़ पढ़ाते सुने जा सकते हैं. आल इंडिया इत्तेहाद-ए-मिल्लत के संस्थापक अध्यक्ष मौलाना तौक़ीर रज़ा ख़ान की बात करें तो वो थोड़ा मुखर हैं.
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सरकार और उसे चलाने वाले अंदरुनी और बाहरी दोनों संगठनों पर बरसते दिख जाते हैं. बात जब नबी की शान में ग़ुस्ताख़ी की आती है तो सड़क पर आने से आज़म ख़ान या महमूद मदनी की तरह गुरेज़ नहीं करते. जहां तक समाधान की बात है तो वह इसके लिए हुक्मरानों से ही मांग करते दिखते हैं. अब यह हुक्मरानों का बड़प्पन है, वो सुने या नहीं सुनें. मौलाना की ही मानें तो उनकी सुनी नहीं जा रही है, कब सुनी जाएगी मौलाना को ही पता नहीं है, मुसलमान तो आज़ादी के बाद से इंतज़ार कर ही रहे हैं. (Muslim Politics In India)
आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लेमीन के चीफ हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी मुसलमानों से जुड़ा कोई मामला हो, उस पर बोलते ही नहीं कह सकते हैं कि बहुत ज़्यादा बोलते हैं. सबसे ज़्यादा आज तक की एंकर अंजना ओम कश्यप के साथ लाइव दिखते हैं. कभी चलती बस में तो कभी घर के बंद कमरे से. बोलते वक़्त बहुत ज़्यादा ग़ुस्से में आ जाते हैं, उनकी आंखें तक बंद होने लगती हैं लेकिन उनकी शोला बयां तक़रीरें मुसलमानों के लिए शानदार और इज़्ज़त की जिंदगी का रास्ता खोलने में नाकाम हैं.
इन मुस्लिम लीडरान से इतर अगर हम सरकार के खेमे की तरफ़ देखें तो चाहे केरल के राज्यपाल आरिफ मुहम्मद ख़ान हो या केंद्रीय अल्पसंख्यक कार्यमंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी वो मुसलमानों से बहकावे से निकलकर मुख्यधारा में आने की बात करते हैं, शायद उनकी बात भी मुकम्मल नहीं है. होती तो अब तक मुसलमानों की समझ में आ गई होती. ख़ासतौर से आरिफ़ मुहम्मद ख़ान की बात करें तो वो राज्यपाल के रूप में जितना बोलते हैं, उतना शायद ही कोई दूसरे राज्यपाल बोल रहे हों. (Muslim Politics In India)
बहरहाल, तरक़्की, बेहतरी, ख़ुशहाली के जिस रास्ते पर बहुसंख्यक समाज या अल्पसंख्यकों का कुछ हिस्सा तेज़ी से बढ़ रहा है, उस दिशा में इस देश में सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समाज कहे जाने वाले मुसलमानों के क़दम ठिठक क्यों रहे हैं. क्यों तालीम, कारोबार सामाजिक हैसियत में और पिछड़ते जा रहे हैं. सवालों पर जवाब तो बहुत हैं लेकिन बोलने वालों के पास समाधान नहीं है. इसे मुस्लिम लीडरशिप की नाकामी कहें या मुस्लिम क़ौम की बेबसी. सिर्फ़ इतनी ही कहना मुनासिब होगा–ख़ुदा ने आज तक उस क़ौम की हालत नहीं बदली, न हो जिस को ख़याल आप अपनी हालत के बदलने का.