हवाओं में रहेगी मेरे ख्यालों की बिजली…

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Shaheed-e-Azam Bhagat Singh
विजय शंकर सिंह-

-शहादत दिवस-

 

भगत सिंह भारतीय स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिकारी आंदोलन के वे शीर्षस्थ क्रांतिकारी हैं। भारत आज़ाद हो, यह उनका उद्देश्य तो था ही, पर साम्राज्यवाद का नाश और मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण पर आधारित समाज का ध्वंस और एक नए समाज का निर्माण उनका मूल उद्देश्य था। (Shaheed Bhagat Singh)

भगत सिंह अक्सर कुछ पंक्तियां गुनगुनाया करते थे। उनके प्रिय शेर, जो अक्सर वह पढ़ा करते थे, इस प्रकार हैं ।

 

उसे यह फ़िक्र है हरदम, नया तर्जे-जफ़ा क्या है?

हमें यह शौक है देखें, सितम की इंतहा क्या है?

 

दहर से क्यों खफ़ा रहे, चर्ख का क्यों गिला करें,

सारा जहां अदू सही, आओ मुकाबला करें।

 

कोई दम का मेहमान हूं, ए-अहले-महफ़िल,

चरागे सहर हूं, बुझा चाहता हूं।

 

मेरी हवाओं में रहेगी, मेरे ख्यालों की बिजली,

यह मुश्त-ए-ख़ाक है, फ़ानी रहे, रहे न रहे।

यह कोई नज़्म नहीं है, बल्कि दो अलग अलग नज़्मों से लिए चार शेर हैं, जो उन्हें बेहद पसंद थे। यह चारों शेर एक साथ शहीद भगत सिंह ने एक पत्र में अपने छोटे भाई कुलतार सिंह को, जो 3 मार्च, 1931 को लिखा गया था, उसमें उद्धरित किए थे। (Shaheed Bhagat Singh)

बहुत से लोग इस नज़्म को उनकी अपनी लिखी रचना मानते हैं। पर ऐसा नहीं है। इन्हें ध्यान से पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि चारों शेर अलग अलग शायरों के कलाम हैं। भगत सिंह ने लेख आदि तो बहुत लिखे हैं, और उनसे उनकी विचारधारा का स्पष्ट संकेत भी मिलता है, पर कोई कविता लिखी है या नहीं यह ज्ञात नहीं है।

क्रांतिकारियों में राम प्रसाद बिस्मिल ज़रूर शायर थे, पर भगत सिंह द्वारा लिखी कोई कविता अभी तक सामने नहीं आई है। इस नज़्म का तीसरा शेर अल्लामा इकबाल की एक मशहूर नज़्म से है, और पहला और चौथा शेर बृज नारायण चकबस्त की एक रचना का अंश हैं। (Shaheed Bhagat Singh)

 

अल्लामा इकबाल की पूरी नज़्म

तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूं

तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूं

मिरी सादगी देख क्या चाहता हूं

सितम हो कि हो वादा-ए-बेहिजाबी

कोई बात सब्र-आज़मा चाहता हूं

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को

कि मैं आपका सामना चाहता हूं

कोई दम का मेहमां हूं ऐ अहले-महफ़िल

चिराग़े-सहर हूं बुझा चाहता हूं

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी

बड़ा बे-अदब हूं सज़ा चाहता हूं। (Shaheed Bhagat Singh)

(वादा-ए-बेहिजाबी = पर्दादारी हटाने का वादा,

सब्र-आज़मा = धैर्य की परीक्षा लेने वाली,

ज़ाहिदों = संयम से रहने वालों को,

चिराग़े-सहर = भोर का दीया,

राज़=भेद, बे-अदब=असभ्य)

 

ब्रिज नारायण चकबस्त की पूरी नज़्म

 

उसे यह फ़िक्र है हरदम, नया तर्जे-जफ़ा क्या है?

हमें यह शौक देखें, सितम की इंतहा क्या है?

गुनह-गारों में शामिल हैं गुनाहों से नहीं वाक़िफ़

सज़ा को जानते हैं हम ख़ुदा जाने ख़ता क्या है

ये रंग-ए-बे-कसी रंग-ए-जुनूं बन जाएगा ग़ाफ़िल

समझ ले यास-ओ-हिरमां के मरज़ की इंतिहा क्या है

नया बिस्मिल हूँ मैं, वाक़िफ़ नहीं रस्म-ए-शहादत से

बता दे तू ही ऐ ज़ालिम तड़पने की अदा क्या है।

चमकता है शहीदों का लहू पर्दे में क़ुदरत के

शफ़क़ का हुस्न क्या है शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना क्या है।

उमीदें मिल गईं मिट्टी में दौर-ए-ज़ब्त-ए-आख़िर है,

सदा-ए-ग़ैब बतला दे हमें हुक्म-ए-ख़ुदा क्या है।

मेरी हवाओं में रहेगी, ख़यालों की बिजलीफ़ना,

नहीं है मुहब्बत के रंगो बू के लिए

बहार आलमे-फ़ानी रहे रहे न रहे ।

जुनूने हुब्बे वतन का मज़ा शबाब में है

लहू में फिर ये रवानी रहे रहे न रहे ।

रहेगी आबो-हवा में ख़याल की बिजली

ये मुश्ते-ख़ाक है फ़ानी रहे रहे न रहे ।

जो दिल में ज़ख़्म लगे हैं वो ख़ुद पुकारेंगे

ज़बाँ की सैफ़ बयानी रहे रहे न रहे ।

मिटा रहा है ज़माना वतन के मन्दिर को

ये मर मिटों की निशानी रहे रहे न रहे ।

दिलों में आग लगे ये वफ़ा का जौहर है

ये जमाँ ख़र्च ज़बानी रहे रहे न रहे ।

जो माँगना हो अभी मांग लो वतन के लिए

ये आरज़ू की जवानी रहे रहे न रहे । (Shaheed Bhagat Singh)

(फ़ना=मृत्यु, आलमे-फ़ानी=नाशवान संसार,

जुनूने हुब्बे वतन=स्वदेश प्रेम का उन्माद,

शबाब=जवानी, आबो-हवा=जलवायु,

मुश्ते-ख़ाक=मुट्ठी भर मिट्टी)

 

(लेखक रिटायर्ड आइपीएस अधिकारी हैं)


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