बंगाल में मतुआ समुदाय की अच्छी तादाद है. कई सीटों पर ये निर्णायक स्थिति में हैं. पिछले कई सालों में ये समुदाय ममता बनर्जी के साथ रहा है. 2010 में इस समुदाय की नेता बोरो-मां ने ममता बनर्जी को समुदाय का संरक्षक घोषित किया था. लेकिन बदले परिदृश्य में बोरो मां के बेटे भाजपा के खेमे में जा चुके हैं. दूसरी बात-मतुआ समुदाय का एक बड़ा वर्ग आज भी राज्य की मतदाता सूची में जगह पाने से वंचित है. जिसे हर राजनीतिक मेले से आश्वासन दिया जाता रहा है. पढ़िए पश्चिम बंगाल के ठाकुरनगर से हिना फातिमा की रिपोर्ट.
कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने एक बयान में बीजेपी पर झूठा वादा करने का आरोप लगाया. ये कहते हुए कि बीजेपी मतुआ समुदाय को नागरिकता दे ही नहीं सकती है, क्योंकि वो पहले से ही नागरिक हैं.
उधर, पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में निर्णायक फैक्टर माना जा रहा मतुआ समुदाय मतदान को लेकर खेमों में बंटा नजर आता है. केंद्र की मोदी सरकार नागरिकता संशोधन कानून के तहत बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़गानिस्तान से आने वाले मुसलमानों को छोड़कर बाकी धर्म के सभी शर्णार्थियों को भारत की नागरिकता देने का वादा कर रही है.
बंगाल में रह रहे मतुआ समुदाय को ये उम्मीद थी कि मोदी सरकार उन्हें नागरिकता का अधिकार देगी. राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि मोदी ने इस समुदाय को खुश करने के लिए बांग्लादेश के ठाकुरबाड़ी का दौरा किया. लेकिन हकीकत तो यह है कि पश्चिम बंगाल के ठाकुरनगर में रह रहे मतुआ समुदाय के लोग अभी वोटर कार्ड के इंतजार में ही हैं.
देवाशीष हालदार का परिवार कई दशक पहले बांग्लादेश से पश्चिम बंगाल आकर बस गया था. जो आज भी सरकारी सुविधाओं से वंचित है. देवाशीष कहते हैं कि ‘वो भी इस देश में वोट डालने और नागरिकता का हक रखते हैं.’ वह आगे कहते हैं कि ‘जब हम वोटर आईडी कार्ड बनवाने जाते हैं तो अधिकारी हमसे दस हजार रूपए मांगते हैं.’ पिता और मां सरस्वती हालदार ने अपने जीवन में कभी वोट नहीं डाला. 70 साल की सरस्वती की इच्छा है कि वो अपने मरने से पहले एक मर्तबा ममता बनर्जी को वोट करना चाहती हैं. दूसरी तरफ उनके बेटे देवाशीष को उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी ही उन्हें वोटिंग का अधिकार दिला सकते हैं.
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देवाशीष बताते हैं ‘हमारे पिता के समय में नेताओं के आजू-बाजू वाले लोग वोटर कार्ड बनवाने के लिए 5 हजार रूपए मांगा करते थे. अब वो दस हजार मांगते हैं. हम इतना पैसा कहां से लाएं? दस हजार रुपए कमाने में दो महीना लगेंगे.’
अभी वह बैंगलरु में मज़दूरी का काम करते हैं. और दिन का लगभग 350 से 400 रूपए कमाते हैं. इसके साथ ही सरस्वती और उनकी बहू फूलों की माला बनाने का काम करती हैं. वो कहती हैं कि जब वो 20 फूलों की माला के पीस बनाती हैं तो उन्हें 5 रूपए मिलते हैं. इससे वो रोज़ाना 40 से 50 रूपए कमाती हैं. वहीं, बाज़ार में उस एक फूल माला की कीमत बीस रूपए हो जाती है.
देवाशीष कहते हैं ‘लॉकडाउन से पहले एक आदमी कमाकर तीन लोगों को खिला सकता था. लेकिन लॉकडाउन के बाद से तीन लोग मिलकर भी कमाएं तो भी एक शख्स को खिलाने के लिए कम पड़ जाता है.’
उनकी एक शिकायत है कि मोदी सरकार ने उन्हें उज्जवला योजना के तहत गैस सिलेंडर दिया लेकिन अब गैस इतनी महंगी हो गई है कि वो इस्तेमाल में ही नहीं आता है. इसी तरह पीएम ने हमारा बैंक अकाउंट खुलवाया है लेकिन उसमें कोई पैसा नहीं है. देवाशीष की तरह ही उनके पड़ोस के कई लोग अभी भी मतदाता पहचान पत्र पाने के इंतजार में हैं.
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वहीं, मतुआ समाज में जिन लोगों के पास वोट का अधिकार है. उनमें से एक बहुत बड़े तबके का कहना है कि वो शुरू से ही ममता बनर्जी को वोट देते आए हैं. और इस चुनाव में भी उनको ही वोट देंगे. ठाकुरनगर की परी कहती हैं, ‘ममता ने हमें सड़क दी है. उन्होंने ट्रेन की सुविधा दी. हम शुरुआत से ही टीएमसी को वोट देते आए हैं और इस बार भी देंगे.’
परी पकौड़ों की रेहड़ी लगाती हैं. वह बताती हैं कि ‘लॉकडाउन से पहले मैं रोजाना करीब एक से डेढ़ हज़ार तक कमा लेती थी. लेकिन लॉकडाउन के बाद से मेरी कमाई घटकर महज 200 से 300 रूपए ही रह गई है.’
ठाकुरनगर, मतुआ के एक युवक का आरोप है कि बीजेपी के कुछ कार्यकर्ता उनके इलाके में आकर गुंडागर्दी करते हैं. वो कहते हैं कि ‘बीजेपी के कार्यकर्ता आते हैं और लोगों के साथ मार मारपीट करते हैं. वो यहां आकर लड़की के साथ छेड़छाड़ भी करते हैं. अगर बीजेपी जीत जाती है तो यहां गुंडागर्दी और बढ़ जाएगी.’
कौन हैं मतुआ ?
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक पश्चिम बंगाल में 14 विधानसभा क्षेत्रों के परिणाम मतुआ वोटों पर निर्भर करते हैं. और तक़रीबन 60 से 70 विधानसभा क्षेत्रों में 5 से 10 हज़ार मतुआ मतदाताओं को निर्णायक फैक्टर माना जा रहा है.
मतुआ अनुसूचित जाति समूह के नामशुद्र हैं जो बांग्लादेश के निर्माण के बाद पश्चिम बंगाल में आकर बस गए थे. गौरतलब है कि मतुआ कम से कम छह संसदीय सीटों पर काबिज हैं.
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राज्य में इनकी संख्या का कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, समुदाय के नेताओं ने अपनी आबादी 3 करोड़ बताई थी, जबकि एक राज्य मंत्री के बयान के मुताबिक इस समुदाय के 1.75 करोड़ मतदाता हैं.
1873 में उस वक्त पूर्वी बंगाल (अभी बांग्लादेश) के फरीदपुर में ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था के खिलाफ चांडालों ने हड़ताल की. इस हड़ताल के ज़रिए उन्होने जाति वर्ग में बेहतर जगह हासिल करने के लिए उच्च वर्ग के कामों को करना बंद कर दिया था. चांडालों ने इस हड़ताल को समाज सुधार और शिक्षा के अधिकार के आंदोलन में तब्दील कर दिया. हरी चंद ठाकुर और उनके बेटे गुरूचंद ठाकुर ने इस समुदाय को शिक्षित करने के लिए अभियान शुरू किया. इसके मद्देनज़र उन्होने मातुआ पंथ की स्थापना की.
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देश के विभाजन और बांग्लादेश के गठन के बाद मतुआ पंथ के लोग पश्चिम बंगाल में आकर बस गए. हरिचंद के पोते पीआर ठाकुर ने 1947 के बाद पश्चिम बंगाल के ठाकुरनगर को मुख्यालय के रूप में स्थापित किया. बोरो मां इसी परिवार से ताल्लुक रखती थीं और राज्य की राजनीति पर काफी प्रभाव रखती थीं.
साल 2010 में बोरो मां ने ममता बनर्जी को समुदाय का मुख्य संरक्षक घोषित किया था. 2018 में ममता ने बोरो मां से मुलाकात की और मतुआ समाज के लिए कल्याण बोर्ड बनाने का ऐलान किया. हालांकि बाद में बोरो मां के बेटे मंजुल कृष्ण ठाकुर और पोते सुब्राता ने बीजेपी ज्वॉइन कर ली. जिसके बाद से मतुआ समुदाय का एक गुट बीजेपी के वोटर बन गया.