मुझे बनारस नहीं जाना: वीरेंदर भाटिया की कविता

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   वीरेंदर भाटिया-

मुझे बनारस नहीं जाना
सोचता था
बनारस जाऊंगा कभी
कबीर से मिलने
पढूंगा समझूंगा जानूंगा
कि जिस मोक्ष की चाह लिये
प्राण त्यागने आते हैं यहां श्रद्धालु
वहीं के कबीर ने
वहां प्राण त्यागने से इन्कार क्यों किया
क्या उन्हें नही चाहिए था मोक्ष
नहीं चाहिए थी मुक्ति?
क्यों खंडन किया उन्होंने मुक्ति गाथा का?
लोक-श्लोक-दिव्य लोग बताते हैं
कि काशी मरे तो राजा बने, स्वर्ग मिले
मगहर मरे तो गधा बने, नरक मिले
कबीर काशी बसे उम्र भर और मगहर चले गए अपने अंतिम समय,
मोक्ष की फिसलन पर फिसलते लोगों के सामने
अपनी समझ पर खड़ा अकेला कबीर
कैसा था
मुझे देखना था (Mujhe Banaras Nahin Jana)

मैं सोचता था
बनारस जाऊंगा किसी रोज
गुरुबाग देखने
कि
काबा से लौटते
काशी में रुकते
कैसे बाबा नानक ने
एक पंगत मे बैठा दिए
सवर्ण-दलित/अमीर- गरीब
गंगा को गहराई तलक निहारते
कितनी गहरी बात बताई
कि गंगास्नान पाप मुक्ति की चतुराई है चतुरदास
मुझे बनारस उस गंगा को देखने जाना था
जिसमे डुबकी लगा लेने भर से पाप मुक्ति की आश्वस्ति मिल जाती है 
बनारस जाना था मुझे
पंडे-पुजारी देखने
आश्रम-वृद्धबसेरा आलय-देवालय
मोक्ष-स्थल, विसर्जन-तल, अर्जित-बल
सब देखना था
मुझे ऐतिहासिक-मिथिहासिक नज़र से भी
देखना था बनारस
बनारस पर लिखे शोध पढ़ने थे
ग्रन्थ देखने थे
मुझे देखना था
कि मुगल राज में कैसे बची रही काशी की शानो शौक़त
मुगलों ने बचाई काशी
या कि शिव ने अवतार लिए अनाम
आह ! अब मुझे बनारस नहीं जाना
देखना था जो धर्म का उत्कर्ष
पाप पुण्य का विमर्श
काशी का आकर्ष
कबीरी का तर्क
नानक के सौहार्द्र का मर्म
अब नहीं देखना
(Mujhe Banaras Nahin Jana)

मन अब बहुत उदास हो गया है
मन अब
मगहर जाना चाहता है
कबीर से मिलना चाहता है
पूछना चाहता है
आप काशी से विरक्त क्यों हुए कबीर
कितने साहस से आपने
मोक्ष तक की गाथा व्यर्थ करार दे दी
मुझे पूछना है कबीर से
जो राजा होने की अभीप्सा लिए
बार बार आता है बनारस
वह और कितना राजा होना चाहता है
(Mujhe Banaras Nahin Jana)

मुझे पूछना है कबीर से
एक राजा को
अपने प्रपंच की व्यर्थता का बोध कब होता है

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