क्या बीती सदियाें में बुद्ध के विचारों को जमींदोज करने की कोशिश हुई, फिर मिले कुछ सबूत

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सोमनाथ आर्य


पुरातात्विक अनुसंधान के अभाव में अंग प्रदेश की कई बेशकीमती धरोहर धूल- धूसरित होकर बेजान पड़ी हैं। इतिहासकारों की बेरूखी का खामियाज़ा राज्य का पर्यटन विभाग भुगत रहा है। जिस ऐतिहासिक स्थल की पहचान देश और दुनिया में होनी चाहिए वह आज गुमनामी के अंधेरे में कैद होकर सिसकियाँ ले रहा है।

स्थलीय सर्वेक्षण की जमीनी पड़ताल न होने से तमाम ऐसे राज बिहार के मुंगेर जिले की ढोल पहाड़ी में दफन हैं। मुंगेर के असरगंज का छोटा सा गांव है ढोल पहाड़ी। तकरीबन दो सौ घर हैं। यहां ज्यादातर पिछड़ी जाति (धानुक) और काफी कम संख्या में दलित जाति के लोग रहते हैं। सड़क मार्ग से यह गांव सुल्तानगंज से 12 किलीमीटर की दूरी पर और सुल्तानगंज से सीधी पैदल यात्रा करने से पांच किलोमीटर से भी कम है।

वही सुल्तानगंज, जहां महात्मा बुद्ध की साढ़े सात फुट ऊंची मूर्ति 1861 में रेलवे निर्माण कार्य की शुरुआत में खुदाई के दौरान मिली थी। आधे कुंतल से ज्यादा वजनी यह मूर्ति तांबे से बनी ऊंची मूर्ति पिछले 150 साल से इंग्लैंड के बर्मिंघम म्यूजियम में सैलानियों और विशेषज्ञों के आकर्षण के केंद्र में है।

इसमें गौतम बुद्ध खड़े हैं और उनका एक हाथ अभयमुद्रा में हैं। इसे बर्मिंघम के बिजनसमैन सैम्यूएल थॉर्टन ने तब 200 पौंड में खरीदा था और फिर इसे म्यूजियम में रखवा दिया था। आज भी सुल्तानगंज के अजगैवीनाथ मठ की पहाड़ी पर पत्थर के तराशे हुए महात्मा बुद्ध की विभिन्न मुद्रा में मूर्ति है।

इस गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर है लगमा गांव। जहाँ प्राचीन बुद्ध की दुर्लभ प्रतिमा लतखोरबा गोसाईं के नाम से मशहूर थी, जिसे 2015 में पुनः बुद्ध का दर्जा जिला प्रशासन ने दिया। हालाँकि, उसे अभी तक यथोचित सम्मान नहीं मिला। बहरहाल, ढोल पहाड़ी में तो कदम- कदम पर बुद्धिस्ट संस्कृति के निशान हैं।

बुद्धिस्ट संस्कृति के बिखरे पड़े हैं सबूत

ढोल पहाड़ी की गुफ़ा में बुद्धिस्ट नाग संस्कृति के इतिहास के कई सबूत बिखरे पड़े है। यहाँ कई शिलालेखों , धातु- लकड़ी – पाषाणों में और ग्रामीणों के द्वारा उत्खनन में बुद्धिस्ट संस्कृति के महान इतिहास के लगातार सबूत मिल रहे हैं। महाराष्ट्र की कन्हेरी गुफाओं की तरह पंचमुख नाग मुछलिंद के साथ महात्मा बुद्ध मौजूद हैं। पंचमुख नाग मुछलिंद के साथ महात्मा बुद्ध की यह प्रतिमा थोड़ी खंडित है।

स्थानीय निवासी संतोष कुमार का कहना, उनके पूर्वजों को यह मूर्ति गांव में खंडित अवस्था में जमीन में दफन मिली थी, गांव के ही एक किसान को खेती करने के दौरान हल के टकराने से जमीन के अंदर किसी वस्तु होने का आभास हुआ था, जब जमीन को खोदा गया तो मूर्ति निकली। तब अंग्रेजों का ज़माना था।

बाद में, इस मूर्ति को ढोल पहाड़ी पर मंदिर बनाकर स्थापित कर दिया गया। महात्मा बुद्ध की यह मूर्ति घुमावदार बालों की लट से शोभित है। दोनों भौंह के मध्य बना हुआ एक छोटा सार्वतुलाकार चिन्ह है, जो बुद्ध के बत्तीस गुण और लक्षणों की गणना करती है। मूर्ति का दाहिना हाथ अभयमुद्रा में ऊपर उठा हुआ और बांया हाथ आसनस्थ मूर्तियों में जाँघ पर है।

यह बुद्ध की एक प्राचीन मूर्ति है। ढोल पहाड़ी में जो शिलालेख मिल रहे हैं वे प्रोटोबेंगॉली लिपि में हैं। एक शिलालेख जो साफ-साफ पढ़ने में आ रहा है वह ‘मुयरभोद्रिभित्रा’ है। यह किसी का नाम हो सकता है या इसका कुछ दूसरा अर्थ भी हो सकता है। इस पूरे शब्द का कोई अर्थ अभी नहीं समझ में आया है।

जबकि शब्द के प्रत्येक अक्षर को अलग-अलग करके अर्थ लगाएं तो अर्थ आता है- मैं इस पहाड़ को दान देता हूं। चीन यात्री हवेनसांग फाह्यान ने भी इस पहाड़ी के दर्शन कर इसकी चमत्कारी शक्ति का वर्णन अपनी यात्रा वृत्तांत में किया हैं। फ्रांसिस बुकानन ने भी इस पहाड़ी और मंदिर के संबंध में जनरल आॅफ फ्रांसिस बुकानन में 154 एवं 155 पृष्ठ पर लिखा है।

नागपुर स्थित हुई फेंग फाउंडेशन के चेयरमैन सत्यजीत मौर्य का कहना है, मूर्तिकला के हिसाब से दोनों मूर्ति अति प्राचीन नागपुर के हुईनेंग फाउंडेशन के चेयरमैन सत्यजीत मौर्य को जब हमने दोनों प्राचीन मूर्ति की तस्वीर भेजी तो उन्हौने बताया कि मूर्तिकला के हिसाब से दोनों मूर्ति अति प्राचीन है।

महाराष्ट्र की कन्हेरी गुफाओं के समान ढ़ोल पहाड़ी पर पंचमुख नाग के साथ मुछलिंद के साथ महात्मा बुद्ध हैं। महात्मा बुद्ध के साथ उनकी माता महामाया की प्रतिमा की मौजूदगी यह बताती है की किसी ज़माने में यह पूरा क्षेत्र बौद्ध धर्म से जुड़े लोगों का विहार रहा होगा।

इस मामले में जापान की क्योटो यूनिवर्सिटी के डॉ. योशिको सकिको ने कहा, यह मूर्ति महात्मा बुद्ध की है जो मुछलिंद के साथ है। इस बेशकीमती मूर्ति के बारे में ब्रिटिश म्यूजियम में रखे सिक्कों से हमें बहूत सारी जानकारी मिलती है। ईमेल से तस्वीर भेजने के बाद उनका ये जवाब आया।

कौन है पंचमुख नाग मुछलिंद

मुछलिंद के बारे में बौद्ध धर्म ग्रंथ से काफी जानकारी मिलती है। कहानी बौद्ध राजा शेषनाग की है, जिसने विदिशा को राजधानी बनाकर 110 ई0पू0 में शेषनाग वंश की नींव डाली थी। शेषनाग की मृत्यु बीस सालों तक शासन करने के बाद-90 ई0पू0 में हुई, उसके बाद उनके पुत्र भोगिन राजा हुए। जिनका शासन–काल 90-ई0पू-से 80 ई0पू0तक था।

फिर चंद्राशु ( 80 ई0पू0-50-ई0पू0) तब धम्मवर्म्मन (50-ई0पू- 40-ई0पू0) और आखिर में वंगर (40 ई0पू0–:31ई0पू0) ने शेषनाग वंश की बागडोर संभाली। शेषनाग की चौथी पीढ़ी में वंगर थे। इस प्रकार शेषनाग वंश के कुल मिलाकर पांच राजाओं ने कुल 80 सालों तक शासन किया। इन्हीं पांच नाग राजाओं को पंचमुखी नाग के रूप में बतौर बुद्ध के रक्षक कन्हेरी की गुफाओं में दिखाया गया है।

माना जा रहा है कि जिन बुद्ध की प्रतिमाओं के रक्षक सातमुखी नाग हैं। वे पंचमुखी नाग वाली प्रतिमाओं से कोई 350 साल बाद की हैं। महावत्थु में भी बौद्ध नागों का उल्लेख मिलता है। अखंड वर्षा से तथागत भगवान बुद्ध की रक्षा करने वाला मुछलिंद नाग ही था । जिसका वर्णन कथावत्थु में मिलता है ।

बिहार के मुंगेर जिले के असरगंज में महात्मा बुद्ध की मूर्ति सदियों पुरानी जमीदोंज प्रतिमा जब मिलीं तो जटाधारी शिव बना दिया गया । खुदाई से यहां बुद्ध की माता महामाया की मूर्ति भी निकली। इस मूर्ति को शिव पत्नी पार्वती बनाकर ढोल पहाड़ी पर मंदिर बनाकर स्थापित कर दिया गया। ये किसने और क्यों किया, ये सवाल हैं।

यही नहीं, पास में मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर लगमा गांव में मिली बुद्ध की मूर्ति लतखोरबा गोसाईं बना दी गई। उनकी पूजा लात जूते और चप्पल से की जाने लगी। मान्यता बन गई कि इस मूर्ति को जो चप्पल जूते और लात से मारेगा उसकी मन्नत पूरी हो जाएगी।

यहां से पांच किलोमीटर की दूरी सुल्तानगंज में महात्मा बुद्ध की साढ़े सात फुट ऊंची मूर्ति 1861 में रेलवे निर्माण कार्य की शुरुआत में खुदाई के दौरान मिली थी। इसे बर्मिंघम के कारोबारी सैम्युअल थॉर्टन ने तब 200 पौंड में खरीदा था और फिर इसे म्यूजियम में रखवा दिया था।